वही भाषा जीवित और जाग्रत रह सकती है जो जनता का ठीक-ठीक प्रतिनिधित्व कर सके। - पीर मुहम्मद मूनिस।

चुम्मन चाचा की होली | कुंडलियाँ (काव्य)

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Author: डॉ सुशील शर्मा

होली में पी कर गए,चाचा चुम्मन भंग।
नाली में उल्टे पड़े, लिपटे कीचड़ रंग॥
लिपटे कीचड़ रंग,नहीं सुध-बुध है तन की।
लटके झटके नाच,खूब कर ली है मन की॥
लिए हाथ में रंग, आज चाची भी बोली।
हे प्राणों के नाथ,खेलते आओ होली॥

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चाचा चुम्मन लोट कर,करते सद्य प्रणाम।
शरमा कर चाची छुपी,करें राम हे राम॥
करें राम हे राम,इन्हें अब क्या है सूझी।
पीकर भंग तरंग,करें ये बात अबूझी॥
नहीं पियेंगे भंग,हारते आज त्रिवाचा।
फिर मित्रों के संग, भाँग पीते हैं चाचा॥

-डॉ सुशील शर्मा

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