उर्दू जबान ब्रजभाषा से निकली है। - मुहम्मद हुसैन 'आजाद'।

नतमस्तक (विविध)

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Author: परवेश जैन

दुनाली साफ की या कहो वैसे ही चला दी आखिर ट्रिगर ही तो दबाना हैं। जान की ताकत होती ही कितनी हैं। कुत्ते बिल्ली हो या आदमी सबका सुर एक ही होता हैं मरने पर। तड़पने का समय भी अमूमन एक सा ही होता हैं ये ही कोई पांच से सात मिनट। फ़िर शांत हमेशा हमेशा के लिये चाहे आदमी चाहे बन्दर। 

अब ये दुनाली, चाकू और डंडा ना चले तो मालिक को ही गाली देने लगते हैं बुजदिल कहीं के…।  अब जब सरकार उनकी तो पाला भी उनका और हथियार भी तो उनके ही होंगे। सरकार बदले तो वो भी बदलेंगे…छल मार कबड्डी…कबड्डी… कबड्डी… इस पाले से उस पाले। इसमें सबका साथ हैं सबका विकास हैं। आखिर जीवित रहने पर ही घी पिया जा सकता है। जिंदा रहना भी एक कला है। संविधान के हिसाब से मरने का अधिकार नहीं है। जीवित रहने के जन्मसिद्ध अधिकार पर ताल ठोकिये और ठोकिये उन सभी को जो आपके जीवित रहने में रोड़ा बने हुये हैं।

अब कुछ तो जीवित रहने का स्वांग रचाते हैं। यह पल पल पर मरने वाले लोग हैं इनको गला फाड़ फाड़ कर चिल्लाने की आदत होती है। धरने और प्रदर्शन की पहचान होते हैं ऐसे लोग। अकेला बोल नहीं पाता इसलिए कई अकेले समूह बनाकर जिंदाबाद का नारा लगाते हैं। लोकतंत्र में जिंदाबाद वह टॉनिक है जिससे तात्कालिक जिंदा होने का आभास होने लगता है। जिन्दाबादी में पुलिस के डंडे और आँसूगैस सहन करने का मंत्र फूंका जाता है। जिंदाबाद ही तो इच्छाओं को बढ़ाता है जो दुःख का कारण बनती है। 

व्यवस्था की मार से अधमरों को चन्द आयातित गुमराह कर अपना उल्लू सीधा करते हैं फ़िर इन अधमरों को हर रोज मारा जाता है। नये नये टैक्स थोपकर, पेट्रोल और गैस का रेट बढ़ाकर, जमा राशि पर ब्याज कम करके। इन पर अनुशासन का चाबुक चलाया जाता है जिससे वे नियमों के मकड़जाल में उलझे रहें और आजादी को तरसते रहे। इनकी सहनशक्ति गजब की होती है यह अस्पताल में डॉक्टर के अभाव में जिंदा रहते हैं। ट्रेन की जनरल बोगी में खिड़की से प्रवेश कर बाथरूम में सफर कर लेते हैं, गड्ढों में सड़क ना मिले तब भी यह कुछ नहीं बोलते। ईमानदारीपूर्वक घूस देना अपना नैतिक कर्तव्य समझते हैं। 

इतने हिचकोलों के बाद बाद भी इनमें जिंदा रहने की अदभुत शक्ति होती है। मुसीबतों की एंटीबॉडीज ने इनको इस्पाती बना दिया है। ये गंदे नाले के पास रहकर भी सौ साल जीवित रहने का दमखम विकसित कर चुके हैं। 

प्रकृति के तांडव का इन पर कोई असर नहीं होता। तेज़ बारिश और बाढ़ से गंदे पानी के नाले इनके घर को नगल ले तो ये घर की छतों, पेड़ो और मचानों पर लटक जायेंगे।  पानी को छतों से देखते हुए कई दिन गुजार देंगे। खाना ना मिले तो बाढ़ में शंख के जीव को अपना निवाला बना लेंगे। नित्य कर्म और जल सेवन दोनों उसी पानी से निपटा लेंगे। 

 

इनकी इस हालत की सुध लेना जिम्मेदार लोगों का कर्त्तव्य हैं। वैसे अब माननीय का इनसे कोई लेना देना नहीं हैं। चुनाव बाद तो ये मानों रस निकलने के बाद का बेजान संतरे का गुदा हो आखिर अब यह दे भी क्या सकते हैं सिवाय कड़वाहट । माननीय बोतल बंद पानी, सूखे मेवों और फ्रेश जूस का आनंद उठाते हुये हवाई सर्वेक्षण कर रहें हैं। आकाश से बाढ़ का दृश्य मनोरम दिखता हैं और डी एस एल आर कैमरे के महंगे लेन्सेस से बाढ़ के द्रश्य बहुत अच्छे क़ैद होते हैं। आदमी की बंदरो जैसे हरकत कभी इस डाल पर तो कभी उस डाल पर फोटो खींचने में बाधक होती हैं। तड़पते, डूबते, जान बचाते इन लोगों के हज़ारो फोटोग्राफस में से चन्द फोटोग्राफ्स फॅमिली और बच्चे ही तो एल्बम हेतु सेलेक्ट करेंगे । हवाई सर्वेक्षण राजनीति के हवन कुंड में रस्म अदायगी हैं। चुनाव के वक्त आँखों देखा हाल काम आता हैं। 

इन्हे नीचे उतरने पर पानी के जहरीले सांपों के डसने का डर हैं। फ़ुफ़कार मारते लोगों का नहीं हा उनके पसीने की बदबू का डर रहता हैं। जो चढ़ा उतरा कहाँ। गरीब जमीन से छत और पेड़ पर चढ़ा, गरीबी आसमान पर चढ़ी। चढ़ना आसान भी नहीं होता कइयों को गिराने के बाद ऊपर चढ़ते हैं। 

लोकसभा में संख्या बल के बलबूते सभी प्रस्ताव पारित हो जाते हैं तो यह नीचे गिराने का भी प्रस्ताव पारित होना चाहिए देशहित में बहुत जरूरी है। शराबियों का नशा नींबू तो सत्ता के नशेड़ियों का नशा विपक्षी उतार देता है। सदन में मज़बूती से टांग खिचाई करता हैं। टांग खिंचाई पर पायजामा उतरने का डर बना रहता हैं कई बार पायजामे के साथ साथ अंगवस्त्र भी उतर जाते हैं। ख्याल रखा जाता है अंगवस्त्र फटे न हो पूरे साबुत ही हो। 

सब कुछ तो यहाँ उल्टा पुल्टा हैं। विपक्ष में रहकर विपक्ष से ज्यादा सत्ता से गुपचुप मेल जोल हैं और जो सत्ता में हैं उनके सत्ता को धत्ता दिखाकर विपक्ष से कॉकटेली संबंध हैं। अब अधमरे लोग तो कुछ हिला डुला कर सीधा कर नहीं सकते वे तो आलू, प्याज और पेट्रोल तक की बढ़ी कीमतों को रुकवा नहीं सकते। जब कोई रोकेगा ही नहीं तो उल्टा पुल्टा तो होगा ही। सार्वजनिक निर्माण मंत्री खराब सड़कों की चिंता क्यों करेगा ? वह तो राजपथ पर औषधीय पौधे रुपवायेगा। खाद्य मंत्री का पूरा रुझान राष्ट्रीय पक्षी मोर के दाने पर रहेगा। जनता तो फाको से किसी तरह से पेट भर लेंगी। हर मंत्री कठपुतली की भांति हिल रहा है। हिलने से सरकार की गतिशीलता का पता लगता है। अब सरकार हिलेंगी नहीं तो कहने वाले तो यही कहेंगे कि सरकार बैठी हैं। बैठी सरकार अच्छी नहीं लगती, सरकार तो खड़ी खड़ी ही अच्छी दिखती है, खूबसूरत लगती हैं। खड़े रहना ही जीवित रहने का प्रमाण है। साक्षात रहें या मूर्ति बन खड़े रहे, बस खड़े रहें। 

पहले महापुरुषों की मूर्ति लगती थी। यह महापुरुष भी हर सत्ता के अपने अपने होते हैं कोई एक दूसरे के महापुरुषों में दखल नहीं देता जैसे कोई गोपनीय सन्धि हो। महापुरुष बनने में समय बहुत लगता है क्या पता मरने के बाद महापुरुष बन पाये या न बन पाये किसने देखा हैं इसलिए जिंदा लोग अपनी मूर्तियां लगवा कर जिंदा महापुरुष बन गए हैं। अब महापुरुषों की भी दो कैटेगरी हैं एक जिन्दा दूसरी मृतक।  धीमे धीमे मृतक महापुरषों की केटेगरी को ख़त्म ही कर दिया जायेगा। जनता याद नहीं रख पाती। जनता के लिये जनता के प्रतिनिधि द्वारा किया गया कार्य याद न रख पाना जनता से एकत्रित प्रत्यक्ष कर की फिजूलखर्ची हैं। 

क्या कभी किसी महापुरुष ने आपकी बात मानी हैं ? फैशन के दौर में महापुरुष की भी गारंटी नहीं बेचारा कितने समय तक महापुरुष बना रहेगा। यहाँ तो रोज मुद्दे मरते हैं, वायदे फिसलते हैं, किसान जमीनजोद हो रहे हैं लेकिन आंख का पानी मरा नहीं, मूर्तियां जीवित रहती है भले ही कितनी ही गंदगी चिपक जाये। चिपटी गंदगी से वास्तविक स्वरुप का चित्रण होता हैं। गंदगी जीवन हैं और जीवन में गंदगी हैं। जब इर्द गिर्द हैं ही गंदगी तो गंदगी में विश्वास तो होगा ही। यू कहिये गंदगी ही आज़ादी हैं। 

आजाद गंदे लोग धाय धाय करेंगे,जान लेंगे, खून पियेंगे, डरायेंगे, सताएंगे और झुकाएंगे। प्रजा कर भी क्या सकती हैं सिवाय झुकने के, नतमस्तक होने के, धक्का मुक्की कर माल्यार्पण करने के। माल्यार्पण जिंदा लोगों का हो या मूर्तियों का, कुछ नतमस्तक करने के भी विशेषज्ञ लोग हैं जो 90 डिग्री से 120 डिग्री तक मुड़ जाते हैं। इन्हे परम्परावादी कहेगे ऐसे परंपरावादी लोग आजादी से पहले भी थे और बाद में भी हैं। 

ना जाने आजादी कैसी चिड़िया हैं जो प्रजा के पास आने से पहले ही फुर्र हो जाती है। आज़ादी को राज वैभव और विलासिता पसंद है। आज़ादी जानती हैं रोज़ रोज़ की किन्न किन्न से बेहत्तर हैं स्थायी तौर पर अमीरी में बसा जाये। ऊँचे आज़ाद महलों से गरीब की झुकीं पीठ देखने का अपना अलग मज़ा हैं। ऊँचाई से सही जानकारी मिल पाती हैं की कही पीठ सीधी तो नहीं हो रही। पीठ सीधी होते ही पीठ झुकाने का मंत्र फूका जा सकता हैं। 

आज़ादी का तिलस्म तो देखिये जिसे आजादी मिले उसे और ज्यादा चाहिये जिसे नहीं मिली वह किस्मत पर सारा दोष मढ़कर खुश हैं। ये भी गरीबी का ही दोष हैं की कभी कभी ही सही चन्द बगावती लोग आज़ादी से भी आंख मिला लेते हैं। 

गरीब को चाहिए बस सपने। सोते, उठते, बैठते, हसीन सपने। चमत्कार के धागों से बुने सपने। जादू मंतर से बदलाव के सपने। विश्व गुरु बनने के सपने। मुंगेरीलाल के हसीन सपने। सपने दिखलाइये, वह मस्त हो जायेगा। भूल जायेगा अपने कष्टों को, दुखों को, तकलीफों को, भूख को, बेकारी को, मौत को, शोषण को। उसे हर हाल में माटी की जय जयकार चाहिये। धर्म का नारा चाहिये। देश की वैभवशाली संस्कृति के उत्तराधिकारी होने का सपना दिखलाइये उसे सब कुछ मिल जाएगा और भूखे पेट शान से सीना फुलाये रखेगा। 

-परवेश जैन

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