मजहब को यह मौका न मिलना चाहिए कि वह हमारे साहित्यिक, सामाजिक, सभी क्षेत्रों में टाँग अड़ाए। - राहुल सांकृत्यायन।

दिनेश भारद्वाज की दो रचनाएँ  (काव्य)

Print this

Author: दिनेश भारद्वाज

एक विचार

मैं भी माटी, तू भी माटी, छोड़ ये झगड़ा माटी का
कल भी यहीं था, यहीं रहेगा, जमीन का टुकड़ा माटी का
पुराने मालिक सोये हैं सब, ओढ़ के चादर माटी की
नए हक़दार शुरू करेंगे, नया बखेड़ा माटी का
मैं भी माटी, तू भी माटी, छोड़ ये झगड़ा माटी का

- दिनेश भारद्वाज, न्यूज़ीलैंड

 

चंद पंक्तियाँ

डर बहुत था बारिश का, जब तक कपडे मेरे सूखे थे
कोसते थे हालात को, खुद से भी हम रूठे थे
भीगे हैं तो क्या हुआ बारिश का डर जाता रहा
मौसम का लहजा बदल गया, तेवर जिसके रूखे थे
डर बहुत था बारिश का, जब तक कपडे मेरे सूखे थे

- दिनेश भारद्वाज, न्यूज़ीलैंड

 

Back

 
Post Comment
 
 
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश