मजहब को यह मौका न मिलना चाहिए कि वह हमारे साहित्यिक, सामाजिक, सभी क्षेत्रों में टाँग अड़ाए। - राहुल सांकृत्यायन।
दीप जगमगा उठे (कथा-कहानी)  Click to print this content  
Author:शैल चंद्रा

बिरजू थका हारा अपनी झोंपड़ी में लौटा । उसका उतरा हुआ मुख देखकर उसकी पत्नी ने पूछा आज भी आपको काम नही मिला? उसने कुछ नहीं कहा। झोंपड़ी में अंधियारा छाया था।

बिरजू की पत्नी ने दीपक जलाते हुए कहा' "बहुत जरा सा तेल है, पता नहीं यह दीपक भी कितनी देर जलेगा?"

गरीब बिरजू के दुर्दिन चल रहे थे। एक फैक्टरी में काम करते उसने अपना एक हाथ खो दिया था। अपाहिज बिरजू को अब काम के लाले पड़ गये थे। पत्नी भी उपेक्षा करने लगी थी। तभी पत्नी ने उसे थाली परोसी। दो सूखी रोटियां थाली में उसका मुँह चिढ़ा रही थी। उसने झिझकते हुए पूछा, "बच्चों ने खाना खा लिया?"

पत्नी ने कहा, "हाँ, एक-एक रोटी उन्हें भी दी थी पर छोटू दूध और सब्जी के लिये रोता रहा। रोते-रोते वह सो गया है। कल के खाने के लिए तो कुछ भी नहीं है। उसका मन हुआ कि इस अभाव भरी जिंदगी से अच्छा है कि वह सपरिवार मौत को गले लगा ले। उसके नेत्र भर आये। चुपचाप वह सूखी रोटियाँ निगलने लगा। तभी उसने देखा दीपक की लौ तेज जल रही है । वह उठा और दीपक में तेल देखने लगा। दीपक में तेल नाममात्र को था पर दीपक तेज लौ में जल रहा था। उसने देखा कि दीपक की लौ तेज होती जा रही थी और अचानक दीपक जोरों से भभका और बुझ गया। झोपड़ी में अंधेरा छा गया ।

उसने सोचा कि जब छोटा सा दीपक अपने अस्तित्व के लिये इतना तीव्र संघर्ष कर सकता है। तेल न होने पर भी वह अपनी जलने की गति तीव्र कर देता है और अंत तक संघर्षरत होता है तो वह हार क्यों माने? अब वह संघर्ष करेगा। मरने की बात सोचना कायरता है। बिरजू के मन में आशा और आत्मविश्वास के सैकड़ों दीप जगमगा उठे।

-शैल चंद्रा

 

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