समाज और राष्ट्र की भावनाओं को परिमार्जित करने वाला साहित्य ही सच्चा साहित्य है। - जनार्दनप्रसाद झा 'द्विज'।
पूर्ण विराम थोड़ी ना लगा (कथा-कहानी)  Click to print this content  
Author:मंगला रामचंद्रन

ईरा लाइब्रेरी में किताबों से कुछ नोट्स ले रही थी। अरूणा उसे ढूंढती हुई वहाँ पहुंच ग‌ई और हँसते हुए बोली—" ईरा, सारे दिन किताबों की खूशबू में डूबी रहती है कभी इनसे जी नहीं भरता?"

ईरा ने मुस्कुराते हुए अरूणा को देखा और तनिक ठहर कर, जैसा कि उसका स्वभाव है, बोली—"ये किताबें ही तो हैं जिन्होंने मुझे थाम रखा है।"

"ऐसे कह रही है मानों तू गिरी जा रही थी या टूट रही थी और इन्होंने तुझे सहारा देकर बचा लिया हो!"

ईरा हँसते हुए बोली—"और नहीं तो क्या; बिना इनके मैं मेरे जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकती।"

"बस कर, मान लिया महान पुस्तक प्रेमी ईरा मैडमजी! वैसे एक समय हम भी थे आपकी तरह, नाश्ते-खाने के साथ एक हाथ में कोई ना कोई दिलचस्प पुस्तक हुआ करतीं थीं। अब तो वो दिन बस सुहानी याद बन कर रह गये।"--अरूणा ने एक लंबी आह भर कर कहा।

ईरा जानती है अरूणा ना सिर्फ कहानी-उपन्यास पढ़ा करती थी बल्कि उसे लिखने का शौक भी था। कविताओं और गीतों से भरी उसकी कॉपियों में बीच-बीच में गद्य साहित्य का समावेश भी है। क‌ई बार ईरा ने उसे उन रचनाओं को प्रकाशित करने की सलाह दी, क‌ई बार इस बात के लिए दबाव डाला पर ना जाने क्यों अरूणा ने अपनी ही रचनाओं से तटस्थता सी अपना ली थी। इस तटस्थता का मूल या असली कारण तो ना अरूणा ने कभी बताया ना ईरा ने कभी जोर देकर पूछा। ईरा स्वयं स्वतंत्र विचार रखती थी और अपने लिए 'स्पेस' चाहती थी, साथ ही सामने वाले की वैयक्तिकता या निजता का भी ख्याल रखते हुए उनके विचारों का भी सम्मान करना जानती थी। कॉलेज के स्टाफ में अविवाहितों की लिस्ट में ईरा के अलावा पिछले ही वर्ष नियुक्त हुई केमिस्ट्री की लेक्चरर नीरा थी और दो-तीन पुरूष लेक्चरर थे। पर ना जाने क्यों और कैसे हिन्दी साहित्य पढ़ाने वाली ईरा और अंग्रेजी साहित्य पढ़ाने वाली, दो बच्चों की माँ अरूणा के बीच मित्रता का एक बहुत सुन्दर रिश्ता कायम हो गया था। वैसे उन दोनों के उम्र का अंतर बहुत अधिक नहीं था, अट्ठाईस की उम्र में ईरा कुंवारी थी और तीस की अरूणा दो बच्चों की माँ थी।

अरूणा अपनी शिक्षा पूर्ण करते-करते ही विवाह के बंधन में बंध ग‌ई‌ थी, इसमें कोई अनहोनी या अचरज वाली बात थी ही नहीं। सामान्यता समाज में यही तो होता आ रहा है, लड़कियों का शिक्षा पूर्ण करना और लड़कों का नौकरी प्राप्त कर लेना मानो विवाह संस्था में प्रवेश का लाइसेंस हो। बच्चों का विवाह संपन्न होना माता-पिता के मन में विजयश्री प्राप्त कर लेने की भावना पैदा कर देती है। ऐसी कन्याओं को सभी भाग्यशाली कहते और सही उम्र में विवाह होने की बात को दोहराते रहते हुए ये कहना नहीं भूलते कि काश सबके साथ ऐसा हो!
अरूणा इन बातों को यदा-कदा शायद इसीलिए याद कर लिया करती है कि उसके डूबते हौसले को सहारा मिल जाए। खासकर तब जब उदासीनता और बेचैनी उसे घेर लेती थी, मानो वो अवश हो गई हो, कुछ करना था जिसे वो अंजाम नहीं दे पा रही है, उसके हाथ से उसकी कोई प्रिय चीज़ छूट गई हो और वो मात्र दर्शक बन कर रह गई हो। एक समय ऐसा था जब समझदार और स्नेही यश को पति के रूप में पाकर अरूणा अपनी किस्मत पर फूली नहीं समा रही थी। विवाह के दो वर्षों पश्चात जब माँ बनी तब भी सबके मुँह से ये सुन-सुनकर कि समय से माँ बन जाने में ही बुद्धिमानी है, उसकी खुशी छुपाए छुप नहीं रही थी। आजकल की युवतियाँ पहले तो विवाह को टालती हैं कि शीघ्रता करने की आवश्यकता नहीं है,फिर माँ बनने के लिए प्लानिंग की बात करते हुए देर करती हैं। तब तक शरीर ढलने लगता है और किसी विधि से बच्चा हो भी जाए तो माता-पिता और बच्चे के बीच उम्र का फासला लगभग दो पीढ़ी का हो जाता है। ये सारी बातें अपनी-अपनी जगह सही और न्यायसंगत हैं पर जब-जब ईरा को देखती तो मन को एक विचार कुरेदे बिना नहीं रहता, कदाचित उसने विवाह करने में जल्दबाजी कर दी। अपने शौक को एक पूर्णरूपेण शक्ल दे देती या एक ठोस मुकाम तक पहुंचा देती उसके पश्चात विवाह करती तो शायद उसके मन में असंतुष्टि का एहसास इस तरह उथल-पुथल न मचाता। हालांकि उन दिनों उसे अपने विवाह से, अपने पति यश से और बाद में दोनों बच्चों के जन्म से बहुत खुशी मिली थी। सदा प्रसन्नचित्त और खिली-खिली रहती थी मानो जीवन में कुछ अद्भुत या नायाब मुकाम हासिल कर लिया हो। हर मुकाम सही उम्र, सही समय पर कितनों को मिलता है! अब बंधनहीन और अपनी मर्जी की मालकिन ईरा जो अपने शौक को स्वतंत्रता से, बिना किसी रूकावट या अड़चन के जारी रख सकने वाली को देखकर कहीं उसे ईर्ष्या तो नहीं होने लगी? हो सकता है अरूणा के मन में हल्की सी जलन की लौ टिमटिमाने लगी हो, आखिर वो मानवी ही तो है, मानवीय मन के एहसास का क्या भरोसा! पर फिर भी अरूणा ईरा की अच्छी और सच्ची सहेली है और उसकी लेखनी व उसके मेहनती स्वभाव के अलावा ईरा के सीधे-सरल व्यवहार की भी कायल है। नकारात्मक विचारों को मन में पनपने से पूर्व ही खारिज कर देती है वरना दिल को कलुषित होने में वक्त कहाँ लगता है!

उस दिन यूं ही अरूणा ने ईरा से पूछ ही लिया था—"ईरा, तुम्हारे मम्मी- पापा तुम पर विवाह करने के लिए दबाव नहीं डालते, टोकते भी नहीं?"---अरूणा के स्वर में आश्चर्य का पुट था।

"तुमको लगता है कि कोई भारतीय माता-पिता ऐसे हो सकतें हैं? पुत्र हो या पुत्री, माता-पिता के द्वारा तय उम्र ही विवाह की सही वय मानी जाती है फिर मेरे पेरेंट्स इस सोच से अलहदा कैसे हो सकतें हैं! इसीलिए तो मैंने उनके साथ एक मेड चौबीस घंटे के लिए लगा दिया"----ईरा शरारत से मुस्कुराते हुए बोली।

"क्या मतलब, मैं समझी नहीं!"---अरूणा हैरानी से उसे देखते हुए बोली।

"तुम अपनी सोच में इतनी डूबी रहती हो, कभी सोचा ही नहीं होगा कि पिछले कुछ समय से मैं बार-बार उनसे मिलने क्यों नहीं जाती! हर आठ-दस दिनों में जाते रहने पर विवाह के विषय पर उनके प्रश्नों का वार असहनीय होता चला जा रहा था।"--- फिर हँसते हुए बोली—"मम्मी-पापा को लेकर मुझे भी फ़िक्र हुआ करती थी। इसीलिए ऐसी संस्था जो फुलटाइम या पार्टटाइम हेल्पर प्रोवाइड करतें हैं, से संपर्क किया और एक फुलटाइम मेड रखवा दी। एक लड़की या महिला कह लो क्योंकि वो छत्तीस वर्ष की है, मम्मी-पापा के साथ रहते हुए उनकी देखभाल करने के लिए रखवा दिया। मेरी चिंता भी कुछ कम हुई।"

"अरे वाह, ये सही में बहुत अच्छा रहेगा वरना सदैव मम्मी-पापा के लिए चिंतित रहा करती थी। पर इससे तेरे विवाह के प्रति उनकी चिंता कम कैसे होगी?"---अरूणा ने कौतूहल से पूछा।

"उनकी चिंता कम हो या ना हो पर मुझे बार-बार सामना करते हुए उनको सुनना तो नहीं पड़ता है ना!"----ईरा हँसते हुए बोली।

"अंकल-आंटी की चिंता भी तो जायज है, आखिर तू विवाह के नाम से बिदकती क्यों है? सदा अकेले बने रहने का विचार तो नहीं बना लिया?"---अरूणा उस दिन मानो ईरा के पीछे ही पड़ गई थी।

"ना मैं विवाह या विवाह संस्था के खिलाफ हूँ और ना मैंने ऐसा कुछ तय कर रखा है पर कोई तरीके का बंदा मिले तो जो मन को भी भा जाए और दिमाग भी उसके पक्ष में ‘हाँ’ कर दे।"

"ये भला क्या बात हुई; मन को वही तो भाएगा जिसे दिल से स्वीकार करोगी।"

"मेरा कहने का तात्पर्य है कि देख कर अच्छा लग भी जाए पर उसकी बातों और व्यवहार में समझदारी और परिपक्वता होनी चाहिए। अभी तक तो ऐसा कोई मिला नहीं, मिल जाए तो सबसे पहले तुम्हें ही बताऊंगी।"---ईरा के होंठ मुस्कुराहट में खुल ग‌ए।

अरूणा भी मुस्कुराते हुए ईमानदार स्वरों में बोली—"प्रार्थना करूंगी कि तुम्हारा प्रिंस चार्मिंग तुम्हें मोहने टपक पड़े और वो शुभ घड़ी, शुभ दिन जल्द आ जाए।"

"मेरे विवाह की बातें तो बहुत हो गई, कुछ समय से मेरे मन में एक बात कुलबुला रही थी जो तुझसे कहने से रह जाती थी। अगले सप्ताह मम्मी-पापा से मिलने जाऊंगी और हफ्ता भर रहूँगी, तेरे, ईशा और वीरू की भी तो वैकेशन हैं हम सभी मिलकर चलते हैं। तुम्हारे बच्चों को बहुत आनंद आएगा और अच्छा बदलाव भी हो जाएगा।"

अरूणा के चेहरे पर मंद-मंद मुस्कान फैल गई— "बहुत बढ़िया, वैसे भी बच्चों के पापा तीन सप्ताह के लिए डेनमार्क जाने वाले हैं। ईशा और वीरू भी वैकेशन एन्जॉय कर लेंगे और मेरे लिए तो यह मेहमान नवाजी मुँहमाँगी मुराद है।"

लंबे समय बाद अरूणा उन्मुक्त रूप से प्रसन्नचित लग रही थी।
अगले हफ्ते जब ये दल अरूणा के घर पहुंचा तो वहाँ लोहे के मजबूत, कलात्मक झूले को देखकर तो बच्चों को मानों कारूं का खज़ाना मिल गया हो। सफ़र की थकान, भूख-प्यास कुछ याद ना रहा, झूले पर सवार होकर वहीं के हो लिए। अरूणा के मन की खिन्नता ना जाने कहाँ चली गई, झूला जब भी खाली मिलता वो उस पर बैठ जाती और विचारों का रेला सा उसके मन में दौड़ पड़ता। उन पांच दिनों में उसने पांच सुन्दर पद्य रच डाले और उसे स्वयं पर आश्चर्य हो रहा था। कहाँ तो उसने तय मान लिया था कि उसकी लेखनी शुष्क हो चुकी और उसकी क्रियाशीलता की अंतिम संभावना भी खत्म हो चुकी थी, कदाचित राख में दबे अंगारे की तरह उसकी लेखनीय शक्ति उसकी खीझ के नीचे दब गई थी।

रेनु जो ईरा के घर, घर के सदस्यों को संभाल रही थी उससे मिलकर तो अरूणा अवाक रह ग‌ई। सीधी देहधारी, आबनूसी पक्के रंगत वाली दुबली-पतली, सपाट नाक-नक्श की अड़तीस वर्षीय लड़की या महिला जिसे देखकर दुबारा देखने की जिज्ञासा हो ही नहीं सकती। पर लैगिंग और कुर्ती में सजी वो जिस फुर्ती और धैर्य से हर काम को अंजाम देती थी उसकी प्रशंसा किए बिना नहीं रहा जा सकता था। बिना अक्षर ज्ञान प्राप्ति के भी वो दोनों बच्चों से जिस तरह घुल-मिल कर सहजता से उनके खेलों में उनके खानपान में बल्कि उनके हर आवश्यकता में जिस तरह शामिल हो ग‌ई थी वो किसी को भी प्रभावित कर सकता था। अरूणा ने ईरा से अकेले में जब रेनु की प्रशंसा की तो ईरा तसल्ली और किंचित गर्व से बोली—"तभी तो मैं निश्चिंत होकर जॉब कर पा रहीं हूँ। ये वर्कर किसी संस्था में बाकायदा पंजीकृत होकर एजेंट के जरिए ज़रूरत के हिसाब से भेजे जाते हैं। मम्मी-पापा को ढंग का, सुरक्षित सहारा भी मिल गया और रेनु को भी आमदनी के अलावा एक सुरक्षित आसरा प्राप्त हो गया।"

अगले दिन वहाँ से वापसी करनी थी और मात्र बच्चे ही नहीं अरूणा का भी मन लौटने से कतरा रहा था। ईरा लौटने से पहले मम्मी पापा की मेडिकल रिपोर्ट, दवाईयों की जांच तथा अन्य कई तरह की घर की आवश्यकताओं के प्रबंध में व्यस्त थी। रात के खाने के बाद सभी हॉल में बैठे हुए बातों में या किसी बोर्ड गेम को खेलते हुए हँसी-मजाक में व्यस्त थे। ईरा के मम्मी-पापा तो सबकी ख़ुशी महसूस करके ही प्रसन्न हो रहे थे, घर में इस तरह बच्चों की चहल-पहल और उनका हल्ला-गुल्ला उनको एक उपहार की तरह लग रहा था। रेनु भी सारा कार्य खत्म कर वहाँ पहुंच ग‌ई और बच्चों के साथ बैठ गई। अरूणा को ना जाने क्या सूझा वो रेनु से एकाएक पूछ बैठी—"क्यों रेनु कभी शादी करने की बात मन में नहीं आई, शादी करके अपना घर संभालना और पति के साथ आराम से रहने की बात कभी मन में नहीं आई?"

अरूणा का प्रश्न इतना अप्रत्याशित था कि कुछ समय के लिए वहाँ सन्नाटा सा पसर गया पर प्रतिक्रिया में उस आदिवासी, अनपढ़ महिला का जो अंदाज़ और लहज़ा था वो प्रश्न से भी अधिक अप्रत्याशित था। सर्वगुण सम्पन्न, सुंदर कन्याएं भी इतने बेफ्रिक या लापरवाह अंदाज़ में शायद ही कह पातीं।
"गांव से रिश्ते तो बहुत आए पर ढंग का एक भी नहीं था।"---इस वाक्य का महत्व तब और बढ़ गया जब उसके शरीर के हाव-भाव, चेहरे पर सिकुड़े होंठ से नज़र आते उपेक्षा के गहरे भाव पारदर्शी रूप में उजागर हो रहा था।

"ढंग के लड़के माने किस तरह के?"---अरूणा ने बात को विराम नहीं दिया।

हँसते हुए रेनु बोली—"ऐसा लड़का जो मेरी बात समझ सके और शादी के बाद भी मुझे मेरी पसंद का काम करने दे। वो खुद भी काम करें, अच्छे से कमाए और दारू पीकर पड़ा ना रहे।"

ईरा ने भी तो कुछ ऐसा ही कहा था—'मेरी और उसकी सोच एक सी हो, दोनों एक-दूसरे को समझ सकें, दोनों एक-दूसरे का सम्मान करें वगैरह-वगैरह।"

ऐसी क्रियाशीलता जिसमें खुशी और संतुष्टि मिलती हो तो कौन खोना चाहेगा! अरूणा ने विवाह और संतान प्राप्ति के बाद स्वयं ही तय कर लिया था और स्वीकार भी कर लिया था कि उसकी लेखन क्षमता का अंत हो गया है और मन ही मन कुढ़ती रही। जब कि पिछले चंद दिनों में उसने कितना कुछ नया रच डाला। कितने न‌ए-न‌ए विचारों का रेला सा आकर उसके मस्तिष्क पर दस्तक देकर उसे याद दिला रहा है कि रचनात्मकता का स्रोत सूख नहीं गया बस उसको तनिक झिंझोड़ने की आवश्यकता है। अगर वो इस दस्तक की ओर ध्यान दें, उसकी परवाह करे तो बहुत कुछ रच कर आंतरिक प्रसन्नता और संतुष्टि महसूस कर सकती है।

नींद के आगोश में जाने से पहले उसने स्वयं से कहा—'वाक्यों में भी तो अर्धविराम के बाद के शब्दों का महत्व कम थोड़ी न होता है, पूर्ण विराम तो उन शब्दों के बाद ही लगता है। इसी तरह जीवन में विवाह, बच्चों का जन्म रचनात्मकता के बीच अर्धविरामों की तरह हैं।'


मंगला रामचंद्रन
608–आई ब्लाक, मेरी गोल्ड, ओशन पार्क,
निपानिया, इंदौर –452010,म.प्र
मो. नं:-9753351506
Email ID: mangla.ramachandran@gmail.com

 

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