साहित्य की उन्नति के लिए सभाओं और पुस्तकालयों की अत्यंत आवश्यकता है। - महामहो. पं. सकलनारायण शर्मा।
प्रेमचंद ने कहा था (विविध)    Print  
Author:मुंशी प्रेमचंद | Munshi Premchand
 
  • बनी हुई बात को निभाना मुश्किल नहीं है, बिगड़ी हुई बात को बनाना मुश्किल है। [रंगभूमि]
  • क्रिया के पश्चात् प्रतिक्रिया नैसर्गिक नियम है। [ मानसरोवर - सवासेर गेहूँ]
  • रूखी रोटियाँ चाँदी के थाल में भी परोसी जायें तो वे पूरियाँ न हो जायेंगी। [सेवासदन]
  • कड़वी दवा को ख़रीद कर लाने, उनका काढ़ा बनाने और उसे उठाकर पीने में बड़ा अन्तर है। [सेवासदन]
  • चोर को पकड़ने के लिए विरले ही निकलते हैं, पकड़े गए चोर पर पंचलत्तिया़ जमाने के लिए सभी पहुँच जाते हैं। [रंगभूमि]
  • जिनके लिए अपनी ज़िन्दगानी ख़राब कर दो, वे भी गाढ़े समय पर मुँह फेर लेते हैं। [रंगभूमि]
  • मुलम्मे की जरूरत सोने को नहीं होती। [कायाकल्प]
  • सूरज जलता भी है, रोशनी भी देता है। [कायाकल्प]
  • सीधे का मुँह कुत्ता चाटता है। [कायाकल्प]
  • उत्सव आपस में प्रीति बढ़ाने के लिए मनाए जाते है। जब प्रीति के बदले द्वेष बढ़े, तो उनका न मनाना ही अच्छा है। [कायाकल्प]
  • पारस को छूकर लोहा सोना होे जाता है, पारस लोहा नहीं हो सकता। [ मानसरोवर - मंदिर]
  • बिना तप के सिद्धि नहीं मिलती। [मानसरोवर - बहिष्कार]
  • अपने रोने से छुट्टी ही नहीं मिलती, दूसरों के लिए कोई क्योकर रोये? [मानसरोवर -जेल]
  • मर्द लज्जित करता है तो हमें क्रोध आता है। स्त्रियाँ लज्जित करती हैं तो ग्लानि उत्पन्न होती है। [मानसरोवर - जलूस]
  • अगर माँस खाना अच्छा समझते हो तो खुलकर खाओ। बुरा समझते हो तो मत खाओ; लेकिन अच्छा समझना और छिपकर खाना यह मेरी समझ में नहीं आता। मैं तो इसे कायरता भी कहता हूँ और धूर्तता भी, जो वास्तव में एक है।
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