भारतेंदु और द्विवेदी ने हिंदी की जड़ पाताल तक पहुँचा दी है; उसे उखाड़ने का जो दुस्साहस करेगा वह निश्चय ही भूकंपध्वस्त होगा।' - शिवपूजन सहाय।
ख़ून बन के रगों में... | ग़ज़ल (काव्य)    Print  
Author:आराधना झा श्रीवास्तव
 

ख़ून बन के रगों में है बहता वतन
अपनी हर साँस में है ये अपना वतन

संदली संदली सी है माटी मेरी
बन के ख़ुशबू ज़ेहन में है बसता वतन

तरबियत और मोहब्बत है पायी यहाँ
इक सुकूं माँ की गोदी सा देता वतन

गुम है गलियों में बचपन मेरा आज भी
याद की थामे उँगली को चलता वतन

तीन रंगों से रंग डाला मेरा ये मन
कोरी पहचान का रंग गहरा वतन

जिसकी चाहत में जागा किए उम्र भर
उन शहीदों की आँखों का सपना वतन

बर्फ़ की चोटियों पर सिपाही खड़े
हमने उनकी ही नज़रों से देखा वतन

नाम रौशन किया रुस्तम-ए-हिंद ने
फ़ख़्र से उनके क़िस्सों को कहता वतन

बीज तहज़ीब का बेल बनकर खिला
है ये तहज़ीबी सरमाया मेरा वतन

हम नवा हो कि दुश्मन करें प्यार ही
दिल में दुनिया के जज़्बात रखता वतन

पार सरहद के बैठी ‘ग़ज़ल’ कह रही
मैं जहाँ भी रहूँ साथ रहता वतन

आराधना झा श्रीवास्तव
स्वतंत्र लेखक एवं पत्रकार
सिंगापुर
ई-मेल : jhaaradhana@gmail.com

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