वही भाषा जीवित और जाग्रत रह सकती है जो जनता का ठीक-ठीक प्रतिनिधित्व कर सके। - पीर मुहम्मद मूनिस।
कविता और फसल (काव्य)    Print  
Author:ओमप्रकाश वाल्मीकि | Om Prakash Valmiki
 

ठंडे कमरों में बैठकर
पसीने पर लिखना कविता
ठीक वैसा ही है
जैसे राजधानी में उगाना फसल
कोरे कागजों पर

फसल हो या कविता
पसीने की पहचान है दोनों ही

बिना पसीने की फसल
या कविता
बेमानी है
आदमी के विरुद्ध
आदमी का षडयंत्र--
अंधे गहरे समंदर सरीखा
जिसकी तलहटी में
असंख्य हाथ
नाखूनों को तेज कर रहे हैं
पोंछ रहे हैं उंगलियों पर लगे
ताजा रक्त के धब्बे

धब्बे जिनका स्वर नहीं पहुंचता
वातानुकूलित कमरों तक
और न ही पहुंच पाती है
कविता ही
जो सुना सके पसीने का महाकाव्य
जिसे हरिया लिखता है
चिलचिलाती दुपहर में
धरती के सीने पर
फसल की शक्ल में

-ओमप्रकाश वाल्मीकि

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