साहित्य की उन्नति के लिए सभाओं और पुस्तकालयों की अत्यंत आवश्यकता है। - महामहो. पं. सकलनारायण शर्मा।
शारदाचरण मित्र (विविध)    Print  
Author:भारत-दर्शन
 

हिंदी के दिलदार सिपाही - इन्हें हिंदी से प्यार था 

न्यायमूर्ति शारदाचरण मित्र (17 दिसम्बर, 1848 - 1917) देवनागरी लिपि के प्रबल समर्थक थे। आप चाहते थे कि समस्त भारतववर्ष में उसी का प्रचार हो। इसी उद्देश्य से 1905 में 'एक-लिपि-विस्तार परिषद्‌' नामक सभा स्थापित की, जिसके आप सभापति थे।  इसी परिषद्‌ ने 1907 में एक मासिक 'देवनागर' भी चलाया, जिसमें भारत की विभिन्न भाषाओं के लेख देवनागरी लिपि में रूपांतरित करके प्रकाशित किए जाते थे। इस मासिक में कन्नड़, तेलुगु, बांग्ला आदि की रचनाएं नागरी लिपि में प्रकाशित की जाती थीं।

बाबू शारदाचरण मित्र का जन्म 17 दिसम्बर 1848 को हुआ था। आपके पिता एक प्रसिद्ध व्यवसायी थे। शारदाचरण जब केवल 6 वर्ष के थे तो इनकी माता जी का निधन हो गया। जब ये मिडिल कक्षा में पहुँचे तो इनके पिता का साया भी सिर से उठ गया। 1870 में आपने बी० ए० की  डिग्री प्राप्त की। एफ० ए० और बी० ए० की परीक्षाओं में आप प्रथम रहे। बी० ए० की परीक्षा देने के एक महीने पश्चात ही आपने दूसरी परीक्षा देकर एम० ए० की डिग्री प्राप्त कर ली। आपसे पूर्व शायद किसी ने इतनी जल्दी-जल्दी डिग्रियाँ प्राप्त नहीं की थीं। इसी बीच आपने कई प्रसिद्ध और बड़ी छात्रवृत्तियाँ भी प्राप्त की थीं। आप 21 वर्ष की अवस्था में ही कलकत्ता प्रेसिडेंसी कालेज में अँग्रेजी के प्राध्यापक नियुक्त हुए। शिक्षक होकर आपने अपनी प्रतिभा से छात्रों पर उत्तम प्रभाव डालने की योग्यता का परिचय दिया। 1870 में  में बी० एल० की परीक्षा उत्तीर्ण करके आप हाई कोर्ट के वकील बन गए। वकालत के साथ ही साथ आप 'हाबड़ा हितकारी' तथा अन्य कई पत्रों का सम्पादन भी करते थे। 1878 से 80 तक आप कलकत्ता म्युनिसिपेलिटी के म्युनिसिपल कमिशनर और 1884 से 1900 तक बंगाल की टेक्स्टबुक कमेटी के सदस्य रहे।  

1884 में, जब ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली शहर के अभिजात्य वर्ग के बीच काफी लोकप्रिय थी, न्यायमूर्ति शारदा चरण मित्रा ने स्थानीय शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए उत्तरी कोलकाता में एक स्कूल की स्थापना की। शारदाचरण आर्यन संस्थान बंगाल का पहला आवासीय संस्थान था, जिसमें स्वदेशी विचारों और भाषा को बढ़ावा दिया जाता था। न्यायमूर्ति शारदाचरण मित्र ने स्कूल स्थापित करने के लिए 70,000 रुपये का दान दिया।

1885 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के 'फेलो' हो गए। 1901 से 1904 तक आप फेकल्टी आफ़ ला के सभापति रहे। वकालत में आपने बहुत नाम पैदा किया। मुकदमों को आप बहुत अच्छी तरह और जल्दी समझ लेते थे और अदालत के सामने उन्हें बहुत खूबी से पेश करते थे। आपकी योग्यता पर आपके सहयोगी मुग्ध रहते थे। शीघ्र ही आपकी गणना अव्वल दर्जे के वकीलों में होने लगी। यहाँ तक कि फरवरी 1902 में आप कलकत्ता हाईकोर्ट के जज नियुक्त हो गए। आप समाज-सुधारक और स्त्री-शिक्षा के पक्षधर थे।

[भारत-दर्शन संकलन]

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