मजहब को यह मौका न मिलना चाहिए कि वह हमारे साहित्यिक, सामाजिक, सभी क्षेत्रों में टाँग अड़ाए। - राहुल सांकृत्यायन।
भूखे-प्यासे  (काव्य)    Print  
Author:देवेन्द्र कुमार मिश्रा
 

वे भूखे प्यासे, पपड़ाये होंठ
सूखे गले, पिचके पेट, पैरों में छाले लिए
पसीने से तरबतर, सिरपर बोझा उठाये
सैकड़ो मील पैदल चलते
पत्थर के नहीं बने
पथरा गये चलते-चलते।

टूटी आस, अटकती सांस लिए
घर को जा रहे हैं,
जहां भूख पहले से प्रतीक्षा में है उनकी।
वे मजदूर हैं, मेहनतकश हैं
चेारी कर नहीं सकते
बस मर सकते हैं।

और मरने का जतन आप
कर रहे हैं उनका।
कर्मभूमि से जन्मभूमि की यात्रा
छूटी रोटी से भूख की मात्रा
बढ़ती जा रही है।
कुछ नहीं कर सकते तो
श्मशान का आकार बढ़ाओ
बाद में मत कहना कि शवों को जलाने की
पर्याप्त व्यवस्था में कुछ समय लगेगा।

- देवेन्द्र कुमार मिश्रा
  पाटनी कालोनी, भरत नगर,
  चन्दनगाँव जि.छिन्दवाड़ा (म.प्र.) 480001
  मो:9425405022
  ई-मेल: devendra.5022mishra@gmail.com

Back
 
 
Post Comment
 
  Captcha
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश