समाज और राष्ट्र की भावनाओं को परिमार्जित करने वाला साहित्य ही सच्चा साहित्य है। - जनार्दनप्रसाद झा 'द्विज'।
प्रेम पर दोहे  (काव्य)    Print  
Author:कबीरदास | Kabirdas
 

प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा-परजा जेहि रुचै, सीस देइ लै जाय॥

प्रेम-प्रेम सब कोइ कहै, प्रेम न चीन्हे कोय।
आठ पहर भीना रहे, प्रेम कहावै सोय॥

प्रीतम को पतियाँ लिखूँ, जो कहु होय विदेस ।
तन में, मन में, नैन में, ताको कहा सँदेश॥

कबिरा प्याला प्रेम का, अन्तर लिया लगाय ।
रोम-रोम मे रमि रहा, और अमल क्या खाय॥

जहाँ प्रेम तहँ नेम नहि, तहाँ न बुधि व्यौहार।
प्रेम-मगन जब मन भया, कौन गिनै तिथि बार॥

प्रेम छिपाये ना छिपै, जा घट परघट होय।
जोपै मुख बोले नहीं, नैन देत है रोय॥

जो घट प्रेम न संचरे, सो घट जान मसान।
जैसे खाल लुहार की, साँस लेत बिनु प्रान ॥

-कबीर

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