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सोहनलाल द्विवेदी | Sohanlal Dwivedi
सोहन लाल द्विवेदी (22 फरवरी 1906 - 1 मार्च 1988) हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए देश-भक्ति व ऊर्जा से ओतप्रोत आपकी रचनाओं की विशेष सराहना हुई और आपको राष्ट्रकवि की उपाधि से अलंकृत किया गया।
आप महात्मा गांधी से अत्यधिक प्रभावित हुए । द्विवेदी जी ने बालोपयोगी रचनाएँ भी लिखीं ।
आपने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से एम. ए., एल. एल. बी. की डिग्री ली और आजीविका के लिए जमींदारी और बैंकिंग का काम करते रहे । 1938 से 1942 तक वे राष्ट्रीय पत्र 'दैनिक अधिकार' के संपादक थे । कुछ वर्षों तक आपने अवैतनिक रूप से बाल पत्रिका 'बाल-सखा' का संपादन भी किया ।
साहित्यिक कृतियां:
देश प्रेम के भावों से युक्त आपकी प्रथम रचना 'भैरवी' 1941 में प्रकाशित हुई । आपकी अन्य प्रकाशित कृतियां हैं- 'वासवदत्ता', 'कुणाल 'पूजागीत', 'विषपान, 'युगाधार और 'जय गांधी' । इनमें आपकी गांधीवादी विचारधारा और खादी-प्रेम की मार्मिक और हृदयग्राही अभिव्यक्ति के दर्शन होते हैं । आपने प्रचुर मात्रा में बाल साहित्य की भी रचना की । उनमें प्रमुख हैं- 'बांसुरी', 'झरना', 'बिगुल', 'बच्चों के बापू, 'चेतना', 'दूध बताशा, 'बाल भारती, 'शिशु भारती', 'नेहरू चाचा' 'सुजाता', 'प्रभाती' आदि ।
द्विवेदी जी का साहित्य वर्तमान और अतीत के प्रति गौरव की भावना जगाता
है ।
1969 में भारत सरकार ने आपको पद्मश्री उपाधि प्रदान कर सम्मानित किया।
1 मार्च 1988 को राष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी का देहांत हो गया।
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बढ़े चलो! बढ़े चलो!
न हाथ एक शस्त्र हो
न हाथ एक अस्त्र हो,
न अन्न, नीर, वस्त्र हो,
हटो नहीं,
डटो वहीं,
बढ़े चलो!
बढ़े चलो!
रहे समक्ष हिमशिखर,
तुम्हारा प्रण उठे निखर,
भले ही जाए तन बिखर,
रुको नहीं,
झुको नहीं
बढ़े चलो!
बढ़े चलो!
घटा घिरी अटूट हो,
...
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती
लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती स्वागत! जीवन के नवल वर्ष दीनों दुखियों का त्राण लिये खड़ा हिमालय बता रहा है डिगो ना अपने प्राण से, तो तुम अचल रहा जो अपने पथ पर ज़ंजीरों से चले बाँधने -सोहनलाल द्विवेदी मैं मंदिर का दीप तुम्हारा। इसमें क्या अधिकार हमारा? जस करेगा, ज्योति करेगा, होगा पथ का एक सहारा! पढ़े-लिखों से रखता नाता, दुनिया के सब संकट खोता ! जो करते दिन रात परिश्रम, बहता रहती सुख का सोता ! ... अकबर का है कहाँ आज मरकत सिंहासन? धूलि धूसरित ढूह खड़े हैं बनकर रजकण, महाकाल का वक्ष चीरकर, किंतु, निरंतर, ... चल पड़े जिधर दो डग, मग में जिसके शिर पर निज हाथ धरा हे कोटि चरण, हे कोटि बाहु अकबर और तुलसीदास, 'अकबर महान' अकबर का नाम ही है शेष सुन रहे कान!
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती
नन्ही चींटीं जब दाना ले कर चढ़ती है
चढ़ती दीवारों पर सौ बार फिसलती है
मन का विश्वास रगॊं मे साहस भरता है
...
नववर्ष
आओ, नूतन-निर्माण लिये,
इस महा जागरण के युग में
जाग्रत जीवन अभिमान लिये;
मानवता का कल्याण लिये,
स्वागत! नवयुग के नवल वर्ष!
...
खड़ा हिमालय बता रहा है
डरो न आंधी पानी में।
खड़े रहो तुम अविचल हो कर
सब संकट तूफानी में।
सब कुछ पा सकते हो प्यारे,
तुम भी ऊँचे उठ सकते हो,
छू सकते हो नभ के तारे।
...
मुक्ता
आज़ादी की चाह।
घी से आग बुझाने की
सोची है सीधी राह!
हाथ-पाँव जकड़ो,जो चाहो
है अधिकार तुम्हारा।
ज़ंजीरों से क़ैद नहीं
हो सकता ह्रदय हमारा!
...
मंदिर-दीप
जैसे चाहो, इसे जलाओ,
जैसे चाहो, इसे बुझायो,
मैं मंदिर का दीप तुम्हारा।
जीवन-पथ का तिमिर हरेगा,
... अगर कहीं मैं पैसा होता ?
मैं मूर्खों के पास न जाता,
अगर कहीं मैं पैसा होता ?
उनके पास नहीं होता कम,
अगर कहीं मैं पैसा होता ?तुलसीदास | सोहनलाल द्विवेदी की कविता
भौम राज्य वह, उच्च भवन, चार, वंदीजन;
बुझा विभव वैभव प्रदीप, कैसा परिवर्तन?
सत्य सदृश तुम अचल खड़े हो अवनीतल पर;युगावतार गांधी
चल पड़े कोटि पग उसी ओर;
गड़ गई जिधर भी एक दृष्टि
गड़ गए कोटि दृग उसी ओर,
उसके शिर-रक्षक कोटि हाथ
जिस पर निज मस्तक झुका दिया
झुक गए उसी पर कोटि माथ;
... अकबर और तुलसीदास
दोनों ही प्रकट हुए एक समय,
एक देश, कहता है इतिहास;
गूँजता है आज भी कीर्ति-गान,
वैभव प्रासाद बड़े
जो थे सब हुए खड़े
पृथ्वी में आज गड़े!
...
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