देवनागरी ध्वनिशास्त्र की दृष्टि से अत्यंत वैज्ञानिक लिपि है। - रविशंकर शुक्ल।

देश की ख़ातिर

 (काव्य) 
Print this  
रचनाकार:

 रामप्रसाद बिस्मिल

देश की ख़ातिर मेरी दुनिया में यह ताबीर हो।
हाथ में हो हथकड़ी, पैरों पड़ी जंज़ीर हो॥

शूली मिले फाँसी मिले या कोई भी तदबीर हो।
पेट में खंज़र दुधारा या जिगर में तीर हो॥

आँख ख़ातिर तीर हो मिलती गले शमशीर हो।
मौत की रक्खी हुई आगे मेरे तस्वीर हो॥

मर कर भी मेरी जान पर जहमत बिला ताख़ीर हो ।
और गर्दन पर धरी जल्लाद ने शमशीर हो॥

ख़ासकर मेरे लिये दोज़ख नया तामीर हो ।
अलग़रज़ जो कुछ हो मुमकिन वह मेरी तहक़ीर हो॥

हो भयानक से भयानक भी मेरा आख़ीर हो ।
देश की सेवा ही लेकिन एक मेरो तकशीर हो॥

इस से बढ़ कर और दुनिया में अगर ताज़ीर हो।
मंज़ूर हो! मंज़ूर हो!! मंज़ूर हो !!! मंज़ूर हो !!!!

मैं कहूंगा फिर भी अपने देश का शैदा हूँ मैं।
फिर करूंगा काम दुनिया में अगर पैदा हुआ॥

-रामप्रसाद 'बिस्मिल'

[ यह कविता पं० रामप्रसाद 'बिस्मिल' ने शाहजहांपुर में 'भारत दुर्दशा नाटक' में गाई थी, तब जनता की आँखों से पानी बहने लगा था, पण्डितजी को एक स्वर्ण पदक और पारितोषिक मिला था। ]

Back
 
Post Comment
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश