हमारी नागरी दुनिया की सबसे अधिक वैज्ञानिक लिपि है। - राहुल सांकृत्यायन।
भिखारी ठाकुर  (काव्य)    Print  
Author:केदारनाथ सिंह | Kedarnath Singh
 

विषय कुछ और था
शहर कोई और
पर मुड़ गई बात भिखारी ठाकुर की ओर 
और वहाँ सब हैरान थे यह जानकर
कि पीते नहीं थे वे
क्योंकि सिर्फ़ वे नाचते थे
और खेलते थे मंच पर वे सारे खेल
जिन्हें हवा खेलती है पानी से
या जीवन खेलता है
मृत्यु के साथ

इस तरह सरजू के कछार-सा
एक सपाट चेहरा
नाचते हुए बन जाता था
कभी घोर पियक्कड़
कभी वर की ख़ामोशी
कभी घोड़े की हिनहिनाहट
कभी पृथ्वी का सबसे सुंदर मूर्ख

और ये सारे चेहरे सच थे
क्योंकि सारे चेहरे हँसते थे एक गहरी यातना में
अपने मुखौटे के ख़िलाफ़
और महात्मा गाँधी आकर
लौट गए थे चम्पारन से
और चौरीचौरा की आँच पर
खेतों में पकने लगी थीं
जौ-गेहूँ की बालियाँ

पर क्या आप विश्वास करेंगे
एक रात जब किसी खलिहान में चल रहा था
भिखारी ठाकुर का नाच
तो दर्शकों की पाँत में
एक शख़्स ऐसा भी बैठ था
जिसकी शक्ल बेहद मिलती थी
महात्मा गाँधी से
इस तरह एक सांझ से
दूसरी भोर तक
कभी किसी बाज़ार के मोड़ पर
कभी किसी उत्सव के बीच की
खाली जगह में
अनवरत चलता रहा
वह अजब बेचैन-सा चीख़-भरा नाच
जिसका आज़ादी की लड़ाई में
कोई ज़िक्र नहीं

पर मेरा ख़याल है
चर्चिल को सब पता था
शायद यह भी कि रात के तीसरे पहर
जब किसी झुरमुट में
ठनकता था गेहुंअन
तो नाच के किसी अँधेरे कोने से
धीरे-धीरे उठती थी
एक लंबी और अकेली
भिखारी ठाकुर की आवाज़ 
और ताल के जल की तरह
हिलने लगती थीं
बोली की सारी
सोई हुई क्रियाएँ

और अब यह बहस तो चलती रहेगी
कि नाच का आज़ादी से
रिश्ता क्या है
और अपने राष्ट्रगान की लय में
वह ऐसा क्या है
जहाँ रात-बिरात जाकर टकराती है
बिदेसिया की लय। 
 
-केदारनाथ सिंह 
[ उत्तर कबीर और अन्य कविताएं]

Back
 
 
Post Comment
 
  Captcha
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश