हिंदी चिरकाल से ऐसी भाषा रही है जिसने मात्र विदेशी होने के कारण किसी शब्द का बहिष्कार नहीं किया। - राजेंद्रप्रसाद।

काठ का घोड़ा

 (बाल-साहित्य ) 
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रचनाकार:

 मोहनलाल महतो वियोगी

चलता नहीं काठ का घोड़ा!

माँ चिंतित होंगी, ले चल घर, देख बचा दिन थोड़ा
सोने की थी बनी अटारी,
हाय! लगाई थी फुलवारी,
फूल रही थी क्यारी-क्यारी,
फल से लदे वृक्ष थे पर मैंने न एक भी तोड़ा ।

छोड़ दिया सुख-दुख क्षण भर में,
गिरे खिलौने बीच डगर में,
पड़े रहे कुछ सूने घर में,
सखा और संगिनियों से तो अब बरबस मुंह मोड़ा।

बड़ी लगन से मेरे प्रियवर,
शुष्क लकड़ियों को चुन-चुनकर,
रख अपनी छाती पर पत्थर,
एक-एक टुकड़े को बांधा, जोड़-जोड़ फिर जोड़ा।

है या चिड़िया-रैन-बसेरा,
बना खूब तू वाहन मेरा,
चल दे पथ है अगम, अंधेरा,
आगे की सुधि ले, सपना था, जो कुछ पीछे छोड़ा।
चलता नहीं काठ का घोड़ा!


- मोहनलाल महतो [मासिक १९३३]

[भारत-दर्शन का प्रयास है कि ऐसी उत्कृष्ट रचनाएं प्रकाशित की जाएँ जो अभी तक अंतरजाल पर उपलब्ध नहीं हैं। इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए मोहनलाल महतो की रचना आपको भेंट। संपादक, भारत-दर्शन २८/१२/२०१७]

 

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