हिंदी चिरकाल से ऐसी भाषा रही है जिसने मात्र विदेशी होने के कारण किसी शब्द का बहिष्कार नहीं किया। - राजेंद्रप्रसाद।

होली - मैथिलीशरण गुप्त

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt

जो कुछ होनी थी, सब होली!
          धूल उड़ी या रंग उड़ा है,
हाथ रही अब कोरी झोली।
          आँखों में सरसों फूली है,
सजी टेसुओं की है टोली।
          पीली पड़ी अपत, भारत-भू,
फिर भी नहीं तनिक तू डोली !

- मैथिलीशरण गुप्त

[साभार: स्वदेश-संगीत, साहित्य-सदन, चिरगाँव, झाँसी]

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