जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।

विप्लव-गान | बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 बालकृष्ण शर्मा नवीन | Balkrishan Sharma Navin

कवि, कुछ ऐसी तान सुनाओ जिससे उथल-पुथल मच जाये,
एक हिलोर इधर से आये, एक हिलोर उधर से आये,
प्राणों के लाले पड़ जायें त्राहि-त्राहि स्वर नभ में छाये,
नाश और सत्यानाशों का धुआँधार जग में छा जाये,
बरसे आग, जलद जल जाये, भस्मसात् भूधर हो जाये,
पाप-पुण्य सद्-सद् भावों की धूल उड़ उठे दायें-बायें,
नभ का वक्षस्थल फट जाये, तारे टूक-टूक हो जायें,
कवि, कुछ ऐसी तान सुनाओ जिससे उथल-पुथल मच जाये!

माता की छाती का अमृतमय पय कालकूट हो जाये,
आँखों का पानी सूखे, हाँ, वह खून की घूँट हो जाये,
एक ओर कायरता काँपे, गतानुगति विगलित हो जाये,
अन्धे मूढ़ विचारों की वह अचल शिला विचलित हो जाये
और दूसरी और कँपा देने वाला गर्जन उठ धाये,
अन्तरिक्ष में एक उसी नाशक तर्जन की ध्वनि मंडराये
कवि, कुछ ऐसी तान सुनाओ जिससे उथल-पुथल मच जाये!

नियम और उपनियमों के बन्धन टूक-टूक हो जायें,
विश्वम्भर की पोषण वीणा के सब तार मूक हो जायें,
शान्ति दण्ड टूटे, उस महा रुद्र का सिंहासन थर्राये,
उसकी शोषक श्वासोच्छवास, विश्व के प्रांगण में घहरायें,
नाश! नाश!! हाँ, महानाश!! की प्रलयंकारी आँख खुल जायें,
कवि, कुछ ऐसी तान सुनाओ जिससे उथल-पुथल मच जाये!

सावधान! मेरी वीणा में चिनगारियाँ आन बैठी हैं,
टूटी हैं मिजराबें युगलांगुलयाँ ये मेरी ऐंठी हैं!!

- पंडित बालकृष्ण शर्मा

 

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