हिंदी चिरकाल से ऐसी भाषा रही है जिसने मात्र विदेशी होने के कारण किसी शब्द का बहिष्कार नहीं किया। - राजेंद्रप्रसाद।

मेरे देश का एक बूढ़ा कवि

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 अब्बास रज़ा अल्वी | ऑस्ट्रेलिया

फटे हुए लिबास में क़तार में खड़ा हुआ
उम्र के झुकाओ में आस से जुड़ा हुआ
किताब हाथ में लिये भीड़ से भिड़ा हुआ
कोई सुने या न सुने आन पे अड़ा हुआ

आँखें कुछ धँसी हुई थीं, हाथ थरथरा रहे थे
होंट कुछ फटे हुए थे, पैर डगमगा रहे थे
गिड़गिड़ाते लड़खड़ाते अपने हाथ भींचकर
आँख में आँसू लिये कह रहा था चीख़कर

जला रहे हो तुम जिसे मिटा रहे हो तुम जिसे
यह मेरा है, यह तेरा है, यह अपना देश है
हाँ , यह सबका देश है

-अब्बास रज़ा अल्वी, ऑस्ट्रेलिया

 

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