हिंदी चिरकाल से ऐसी भाषा रही है जिसने मात्र विदेशी होने के कारण किसी शब्द का बहिष्कार नहीं किया। - राजेंद्रप्रसाद।

प्रगीत कुँअर के मुक्तक

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 प्रगीत कुँअर | ऑस्ट्रेलिया

वो समय कैसा कि जिसमें आज हो पर कल ना हो
वो ही रह सकता है स्थिर हो जो पत्थर जल ना हो
हाथ में लेकर भरा बर्तन ख़ुशी औ ग़म का जब
चल रही हो ज़िंदगी कैसे कोई हलचल ना हो

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उन्हें डर था कहीं हम आसमाँ को पार न कर दें
इरादों में खड़ी उनके कहीं दीवार न कर दें
हमारे साथ बनकर दोस्त वो चलते रहे तब तक
कि जब तक वो हमारी कोशिशें बेकार न कर दें

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तुम्हे पाने की तब उम्मीद सारी टूट जाती हैं
तुम्हे देते हैं जो आवाज वो ना लौट पाती है
निगाहों पे भी अब लगने लगे हैं इस तरह पहरे
कि हमको देखना हो कुछ मगर ये कुछ दिखाती है

#

हमारी हर ख़ुशी में साथ शामिल रंज होता है
हमारी राह का हर एक रस्ता तंग होता है
हमारी मुस्कुराहट को अगर कुछ ग़ौर से देखें
हमारे मुस्कुराने का अलग ही ढंग होता है

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सफ़र के हर बड़े तूफान से लड़कर पहुँचते हैं
चले थे साथ जिनके, साथ उनके घर पहुँचते हैं
हुआ क्या हैं जो उनके क़द नहीं हमसे बड़े बेशक
बड़ी ऊँचाईयों तक वो मगर उड़ कर पहुँचते हैं

#

कमा परदेस से सारी कमाई भेज देता है
धरा पर धूप की वो पाई-पाई भेज देता है
धरा है माँ, पिता सूरज, वो रखता ध्यान सबका यूँ
ठिठुरता जब हमें देखे रज़ाई भेज देता है

-प्रगीत कुँअर
सिडनी, ऑस्ट्रेलिया
ई-मेल: prageetk@yahoo.com

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