हिंदी समस्त आर्यावर्त की भाषा है। - शारदाचरण मित्र।

मेरा दुश्मन

 (कथा-कहानी) 
Print this  
रचनाकार:

 कृष्ण बलदेव वैद

वह इस समय दूसरे कमरे में बेहोश पड़ा है। आज मैंने उसकी शराब में कोई चीज मिला दी थी कि खाली शराब वह शरबत की तरह गट-गट पी जाता है और उस पर कोई खास असर नहीं होता। आँखों में लाल डोर-से झूलने लगते हैं, माथे की शिकनें पसीने में भीग कर दमक उठती हैं, होंठों का जहर और उजागर हो जाता है, और बस - होशोहवास बदस्‍तूर कायम रहते हैं।

हैरान हूँ कि यह तरकीब मुझे पहले कभी क्‍यों नहीं सूझी। शायद सूझी भी हो, और मैंने कुछ सोच कर इसे दबा दिया हो। मैं हमेशा कुछ-न-कुछ सोच कर कई बातों को दबा जाता हूँ। आज भी मुझे अंदेशा तो था कि वह पहले ही घूँट में जायका पहचान कर मेरी चोरी पकड़ लेगा। लेकिन गिलास खत्‍म होते-होते उसकी आँखें बुझने लगी थीं और मेरा हौसला बढ़ गया था। जी में आया था कि उसी क्षण उसकी गरदन मरोड़ दूँ, लेकिन फिर नतीजों की कल्‍पना से दिल दहल कर रह गया था। मैं समझता हूँ कि हर बुजदिल आदमी की कल्‍पना बहुत तेज होती है, हमेशा उसे हर खतरे से बचा ले जाती है। फिर भी हिम्‍मत बाँध कर मैंने एक बार सीधे उसकी ओर देखा जरूर था। इतना भी क्‍या कम है कि साधारण हालात में मेरी निगाहें सहमी हुई-सी उसके सामने इधर-उधर फड़फड़ाती रहती हैं। साधारण हालात में मेरी स्थिति उसके सामने बहुत असाधारण रहती है।

खैर, अब उसकी आँखें बंद हो चुकी थीं और सर झूल रहा था। एक ओर लुढ़क कर गिर जाने से पहले उसकी बाँहें दो लदी हुई ढीली टहनियों की सुस्‍त-सी उठान के साथ मेरी ओर उठ आई थीं। उसे इस तरह लाचार देख कर भ्रम हुआ था कि वह दम तोड़ रहा है।

लेकिन मैं जानता हूँ कि वह मूजी किसी भी क्षण उछल कर खड़ा हो सकता है। होश सँभालने पर वह कुछ कहेगा नहीं। उसकी ताकत उसकी खामोशी में है। बातें वह उस जमाने में भी बहुत कम किया करता था, लेकिन अब तो जैसे बिलकुल गूँगा हो गया हो।

उसकी गूँगी अवहेलना की कल्‍पना-मात्र से मुझे दहशत हो रही है। कहा न, कि मैं एक बुजदिल इंसान हूँ।

वैसे मैं न जाने कैसे समझ बैठा था कि इतने अर्से की अलहदगी के बाद अब मैं उसके आतंक से पूरी तरह आजाद हो चुका हूँ। इसी खुशफहमी में शायद उस रोज उसे मैं अपने साथ ले आया था। शायद मन में कहीं उस पर रोब गाँठने, उसे नीचा दिखाने की दुराशा भी रही हो। हो सकता है कि मैंने सोचा हो कि वह मेरी जीती-जागती खूबसूरत बीवी, चहकते-मटकते तंदुरुस्‍त बच्‍चों और आरास्‍ता-पैरास्‍ता अलीशान कोठी को देख कर खुद ही मैदान छोड़ कर भाग जाएगा और हमेशा के लिए मुझे उससे निजात मिल जाएगी। शायद मैं उस पर यह साबित कर दिखाना चाहता था कि उससे पीछा छुड़ा लेने के बाद किस खुशगवार हद तक मैंने अपनी जिंदगी को सँभाल-सँवार लिया है।

लेकिन ये सब लँगड़े बहाने हैं। हकीकत शायद यह है कि उस रोज मैं उसे अपने साथ नहीं लाया था, बल्कि वह खुद ही मेरे साथ चला आया था, जैसे मैं उसे नहीं बल्कि वह मुझे नीचा दिखाना चाहता हो। जाहिर है कि उस समय यह बारीक बात मेरी समझ में नहीं आई होगी। मौके पर ठीक बात मैं कभी नहीं सोच पाता। यही तो मुसीबत है। वैसे मुसीबतें और भी बहुत हैं, लेकिन उन सबका जिक्र यहाँ बेकार होगा।

खैर, माला के सामने उस रोज मैंने इसी किस्‍म की कोई लँगड़ी सफाई पेश करने की कोशिश की थी और उस पर कोई असर नहीं हुआ था। वह उसे देखते ही बिफर उठी थी। सबसे पहले अपनी बेवकूफी और सारी स्थिति का एहसास शायद मुझे उसी क्षण हुआ था। मुझे उस कमबख्त से वहीं घर से दूर, उस सड़क के किनारे किसी-न-किसी तरह निबट लेना चाहिए था। अगर अपनी उस सहमी हुई खामोशी को तोड़ कर मैंने अपनी तमाम मजबूरियाँ उसके सामने रख दी होतीं, माला का एक खाका-सा खींच दिया होता, साफ-साफ उससे कह दिया होता - देखो गुरु, मुझ पर दया करो और मेरा पीछा छोड़ दो - तो शायद वहीं हम किसी समझौते पर पहुँच जाते। और नहीं तो वह मुझे कुछ मोहलत तो दे ही देता। छूटते ही दो मोरचों को एक साथ सँभालने की दिक्‍कत तो पेश न आती। कुछ भी हो, मुझे अपने घर नहीं लाना चाहिए था। लेकिन अब यह सारी समझदारी बेकार थी। माला और वह एक-दूसरे को यूँ घूर रहे थे जैसे दो पुराने और जानी दुश्‍मन हों। एक क्षण के लिए मैं यह सोच कर आश्‍वस्‍त हुआ था कि माला सारी स्थिति खुद सँभाल लेगी और फिर दूसरे ही क्षण मैं माला की लानत-मुलामत की कल्‍पना कर सहम गया था। बात को मजाक में घोल देने की कोशिश में मैंने एक खास गिलगिले लहजे में - जो मेरे पास ऐसे नाजुक मौकों के लिए सुरक्षित रहता है - कहा था, डार्लिंग, जरा रास्‍ता तो छोड़ो, कि हम बहुत लंबी सैर से लौटे हैं, जरा बैठ जाएँ तो जो सजा जी में आए, दे देना।

वह रास्‍ते से तो हट गई थी, लेकिन उसके तनाव में कोई कमी नहीं हुई थी, और न ही उसने मुझे बैठने दिया था। साथ ही उस मुरदार ने मेरी तरफ यूँ देखा था जैसे कह रहा हो - तो तुम वाकई इस औरत के गुलाम बन कर रह गए हो। और खुद मैं उन दोनों की तरफ यूँ देख रहा था जैसे एक की नजर बचा कर दूसरे से कोई साजिशी संबंध पैदा कर लेने की ख्‍वाहिश हो।

फिर माला ने मौका पाते ही मुझे अलग ले जा कर डाँटना-डपटना शुरू कर दिया था - मैं पूछती हूँ कि यह तुम किस आवारागर्द को पकड़ कर साथ ले आए हो? जरूर कोई तुम्‍हारा पुराना दोस्‍त होगा? है न? इत्‍ते बरस शादी को हो चले लेकिन तुम अभी तक वैसे-के-वैसे ही रहे। मेरे बच्‍चे उसे देख कर क्‍या कहेंगे? पड़ोसी क्‍या सेाचेंगे? अब कुछ बोलोगे भी?

मैं हैरान था कि क्‍या बोलूँ! माला के सामने में बोलता कम हूँ, ज्‍यादा समय तोलने में ही बीत जाता है और उसका मिजाज और बिगड़ जाता है। वैसे उसका गुस्‍सा वजा था। उसका गुस्‍सा हमेशा वजा होता है। हमारी कामयाब शादी की बुनियाद भी इसी पर कायम है - उसकी हर बात हमेशा सही होती है और मैं अपनी हर गलती को चुपचाप और फौरन कबूल कर लेता हूँ। बीच-बीच में महज मुझे खुश कर देने के खयाल से वह इस किस्‍म की शि‍कायतें जरूर कर दिया करती है - तुम्‍हें न जाने हर मामूली-से-मामूली बात पर मेरे खिलाफ डट जाने में क्‍या मजा आता है? मानती हूँ कि तुम मुझसे कहीं ज्‍यादा समझदार हो, लेकिन कभी-कभी मेरी बात रखने के लिए ही सही... वगैर-वगैरा।

मुझे उसके ये झूठे उलाहने बहुत पसंद हैं, गो मैं उनसे ज्‍यादा खुश नहीं हो पाता। फिर भी वह समझती है कि इनसे मेरा भ्रम बना रहता है और मैं जानता हूँ कि बागडोर उसी के हाथ में रहती है और यह ठीक ही है।

तो माला दाँत पीस कर कह रही थी - अब कुछ बोलोगे भी? मेरे बच्‍चे पार्क से लौट कर इस मनहूस आदमी को बैठक में बैठा देखेंगे, तो क्‍या कहेंगे? उन पर क्‍या असर होगा? उफ, इतना गंदा आदमी! सारा घर महक रहा है। बताओ न, मैं अपने बच्‍चों से क्‍या कहूँगी?

अब जाहिर है कि माला को कुछ भी नहीं बता सकता था। सो मैं सर झुकाए खड़ा रहा और वह मुँह उठाए बहुत देर तक बरसती रही।

वैसे यहाँ यह साफ कर दूँ कि वे बच्‍चे माला अपने साथ नहीं लाई थी। वे मेरे भी उतने ही हैं जितने कि उसके, लेकिन ऐसे मौकों पर वह हमेशा 'मेरे बच्‍चे' कह कर मुझसे उन्‍हें यूँ अलग कर लिया करती है, जैसे कोई कीचड़ से लाल निकाल रहा हो। कभी-कभी मुझे इस बात पर बहुत दुख भी होता था, लेकिन फिर ठंडे दिल से सोचने पर महसूस होता है कि शारीरिक सचाई कुछ भी हो, रूहानी तौर पर हमारे सभी बच्‍चे माला के ही है, उनके रंग-ढंग में मेरा हिस्‍सा बहुत कम है। और यह ठीक ही है, क्योंकि अगर वे मुझ पर जाते तो उन्‍हें भी मेरी तरह सीधा होने में न जाने कितनी देर लग जाती। मैं खुश हूँ कि उनका कानूनी और शायद जिस्‍मानी, बाप हूँ, उनके लिए पैसे कमाता हूँ, और दिलोजान से उनकी माँ की सेवा में दिन-रात जुटा रहता हूँ।

खैर! कुछ देर यूँ ही सर नीचा किए खड़े रहने के बाद आखिर मैंने निहायत आजिजाना आवाज में कहना शुरू किया था - अरे भई, मैं तो उस कमबख्‍त को ठीक तरह से पहचानता भी नहीं, उससे दोस्‍ती का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। अब अगर रास्‍ते में कोई आदमी मिल जाए तो...।

न जाने मेरे फिकरे का अंत क्‍योंकर होता। शायद होता भी कि नहीं, लेकिन माला ने बीच में ही पाँव पटक कर कह दिया - झूठ, सरासर झूठ।

यह कह कर वह अंदर चली गई और मैं कुछ देर तक और वहीं सर नीचा किए खड़ा रहने के बाद वापस उस कमरे में लौट आया, जहाँ बैठा वह बीड़ी पी रहा था और मुस्‍करा रहा था, जैसे सब जानता हो कि मैं किस मरहले से गुजर कर आ रहा हूँ।

अब हुआ दरअसल यह था कि उस शाम माला से, कुछ दूर अकेला घूम आने की इजाजत माँग कर मैं यूँ ही बिना मतलब घर से बाहर निकल गया था। आम तौर पर वह ऐसी इजाजतें आसानी से नहीं देती और न ही मैं माँगने की हिम्‍मत कर पाता हूँ। बिना मतलब घूमना उसे बहुत बुरा लगता है। कहीं भी जाना हो, किसी से भी मिलना हो, कुछ भी करना या न करना हो, मतलब का साफ और सही फैसला वह पहले से ही कर लेती है। ठीक ही करती है। मैं उसकी समझदारी की दाद देता हूँ। वैसे घर से दूर अकेला मैं किसी मतलब से भी नहीं आ पाता। माला की सोहबत की कुछ ऐसी आदत-सी पड़ गई है, कि उसके बगैर सब सूना-सूना-सा लगता है। जब वह साथ रहती है तो किसी किस्‍म का कोई ऊल-जलूल विचार मन में उठ ही नहीं पाता, हर चीज ठोस और बामतलब दिखाई देती है। अंदर की हालत ऐसी रहती है, जैसे माला के हाथों सजाया हुआ कोई कमरा हो, जिसमें हर चीज करीने से पड़ी हो, बेकायदगी की कोई गुंजाइश न हो। और जब वह साथ नहीं होती, तो वही होता है जो उस शाम हुआ, या फिर उसी किस्‍म का कोई और हादसा, क्योंकि उससे पहले वैसी बात कभी नहीं हुई थी।

तो उस शाम न जाने किस धुन में मैं बहुत देर निकल गया था। आम तौर पर घर से दूर होने पर भी मैं घर ही के बारे में सोचता रहता हूँ - इसलिए नहीं कि घर में किसी किस्‍म की कोई परेशानी है। गाड़ी न सिर्फ चल रही है, बल्कि खूब चल रही है। बागडोर जब माला-जैसी औरत के हाथ हो, तो चलेगी नहीं तो और करेगी भी क्‍या? नहीं, घर में कोई परेशानी नहीं - अच्‍छी तनख्‍वाह, अच्‍छी बीवी, अच्‍छे बच्‍चे, अच्‍छे बा-रसूख दोस्‍त, उनकी बीवियाँ भी खूब हट्टी-कट्टी और अच्‍छी, अच्‍छा सरकारी मकान, अच्‍छा खुशनुमा लॉन, पास-पड़ोस भी अच्‍छा, महँगाई के बावजूद दोनों वक्‍त अच्‍छा खाना, अच्‍छा बिस्‍तर और अच्‍छी बिस्‍तरी जिंदगी। मैं पूछता हूँ, इस सबके अलावा और चाहिए भी क्‍या एक अच्‍छे इंसान को? फिर भी अकेला होने पर घरेलू मामलों को बार-बार उलट-पलट कर देखने से वैसा ही इत्‍मीनान मिलता है, जैसा किसी भी सेहतमंद आदमी को बार-बार आईने में अपनी सूरत देख कर मिलता होगा। मेरा मतलब है कि वक्‍त अच्‍छी तरह से कट जाता है, ऊब नहीं होती। यह भी माला के ही सुप्रभाव का फल है, नहीं तो एक जमाना था कि मैं हरदम ऊब का शिकार रहा करता था।

हो सकता है कि उस शाम दिमाग कुछ देर के लिए उसी गुजरे हुए जमाने की ओर भटक गया हो। कुछ भी हो, मैं घर से बहुत दूर निकल गया था और फिर अचानक वह मेरे सामने आ खड़ा हुआ था।

महसूस हुआ था जैसे मुझे अकेला देख कर घात में बैठे हुए किसी खतरनाक अजनबी ने ही रास्‍ता रोक लेना चाहा हो। मैं ठिठक कर रुक गया था। उसकी सुती हुई आँखों से फिसल कर मेरी निगाह उसकी मुस्‍कराहट पर जा टिकी थी, जहाँ अब मुझे उसके साथ बिताए हुए उस सारे गर्द-आलूद जमाने की एक टिमटिमाती हुई-सी झलक दिखाई दे रही थी। महसूस हो रहा था कि बरसों तक रूपोश रहने के बाद फिर मुझे पकड़ कर किसी के सामने पेश कर दिया गया हो। मेरा सर इस पेशी के खयाल से दब कर झुक गया था।

कुछ, या शायद कितनी ही देर हम सड़क के उस नंगे और आवारा अँधेरे में एक-दूसरे के रूबरू खड़े रहे थे। अगर कोई तीसरा उस समय देख रहा होता, तो शायद समझता कि हम किसी लाश के सिरहाने खड़े कोई प्रार्थना कर रहे हैं, या एक-दूसरे पर झपट पड़ने से पहले किसी मंत्र का जाप।

वैसे यह सच है कि उसे पहचानते ही मैंने माला को याद करना शुरू कर दिया था, कि हर संकट में मैं हमेशा उसी का नाम लेता हूँ। साथ ही यहाँ से दुम दबा कर भाग उठने की ख्‍वाहिश भी मन में उठती रही थी। एक उड़ती हुई-सी तमन्‍ना यह भी हुई थी कि वापस घर लौटने के बजाय चुपचाप उस कमबख्‍त के साथ हो लूँ, जहाँ वह ले जाना चाहे चला जाऊँ और माला को खबर तक न हो। इस विचार पर तब भी मैं बहुत चौंका था और अभी तक हैरान हूँ, क्‍योंकि आखिर उसी से पीछा छुड़ाने के लिए ही तो मैंने माला की गोद में पनाह ली थी। अगर आज से कुछ बरस पहले मैंने उसके खिलाफ बगावत न की होती तो। लेकिन उस भागने को बगावत का नाम दे कर मैं अपने-आपको धोखा दे रहा हूँ, मैंने सोचा था और मेरा मुँह शर्म के मारे जल उठा था।

उस हरामजादे ने जरूर मेरी सारी परेशानी को भाँप लिया होगा। उससे मेरी कोई कमजोरी छिपी नहीं और उससे भाग कर माला की गोद में पनाह लेने की एक बड़ी वजह यही थी। उसकी हँसी मुझे सूखे पत्‍तों की हैबतनाक खड़खड़ाहट सुनाई दे रही थी और उस खड़खडाहाट में उसके साए में गुजारे हुए जमाने की बेशुमार बातें आपस में टकरा रही थीं। बड़ी ही मुश्किल से आँख उठा कर उसकी ओर देख था। उसका हाथ मेरी तरफ बढ़ा हुआ था। कसे हुए दाँतों से मैंने उसकी आँखों का सामना किया था। अपना हाथ उसके खुरदरे हाथ में देते हुए और उसकी साँसों की बदबूदार हरारत अपने चेहरे पर झेलते हुए मैंने महसूस किया था जैसे इतनी मुद्दत आजाद रह लेने के बाद फिर अपने-आपको उसके हवाले कर दिया हो। अजीब बात है, एहसास से जितनी तकलीफ मुझे होनी चाहिए थी, उतनी हुई नहीं थी। शायद हर भगोड़ा मुजरिम दिल से यही चाहता है कि उसे कोई पकड़ ले।

घर पहुँचने तक कोई बात नहीं हुई थी। अपनी-अपनी खामोशी में लिपटे हुए हम धीमे-धीमे चल रहे थे, जैसे कंधों पर कोई लाश उठाए हुए हों।

सो, जब माला की डाँट-डपट सुन लेने के बाद, मुँह बनाए, मैं वापस बैठक में लौटा, तो वह बदजात मजे में बैठा बीड़ी पी रहा था। एक क्षण के लिए भ्रम हुआ, जैसे वह कमरा उसी का हो। फिर कुछ सँभल कर, उससे नजर मिलाए बगैर, मैंने कमरे की सारी खिड़कियाँ खोल दीं, पंखे को और तेज कर दिया, एक झुँझलाई हुई ठोकर से उसके जूतों को सोफे के नीचे धकेल दिया, रेडियो चलाना ही चाहता था कि उसकी फटी हुई हँसी सुनाई दी और मैं बेबस हो, उससे दूर हट कर चुपचाप बैठ गया।

जी में आया कि हाथ बाँध कर उसके सामने खड़ा हो जाऊँ, सारी हकीकत सुना कर कह दूँ - देखो दोस्‍त, अब मेरे हाल पर रहम करो और माला के आने से पहले चुपचाप यहाँ से चले जाओ, वरना नतीजा बुरा होगा।

लेकिन मैंने कुछ कहा नहीं। कहा भी होता तो सिवाय एक और जहरीली हँसी के उसने मेरी अपील का कोई जवाब न दिया होता। वह बहुत जालिम है, हर बात की तह तक पहुँचने का कायल, और भावुकता से उसे सख्‍त नफरत है।

उसे कमरे का जायजा लेते देख मैंने दबी निगाह से उसकी ओर देखना शुरू कर दिया। टाँगे समेटे वह सोफे पर बैठा हुआ एक जानवर-सा दिखाई दिया। उसकी हालत बहुत खस्‍ता दिखाई दी, लेकिन उसकी शक्‍ल अब भी मुझसे कुछ-कुछ मिलती थी। इस विचार से मुझे कोफ्त भी हुई और एक अजीब किस्‍म की खुशी भी महसूस हुई। एक जमाना था जब वही एक मात्र मेरा आदर्श हुआ करता था, जब हम दोनों घंटों एक साथ घूमा करते थे, जब हमने बार-बार कई नौकरियों से एक साथ इस्‍तीफे दिए थे, कुछ-एक से एक साथ निकाले भी गए थे, जब हम अपने-आपको उन तमाम लोगों से बेहतर और ऊँचा समझते थे जो पिटी-पिटाई लकीरों पर चलते हुए अपनी सारी जिंदगी एक बदनुमा और रवायती घरौंदे की तामीर में बरबाद कर देते हैं, जिनके दिमाग हमेशा उस घरौंदे की चहारदीवारी में कैद रहते है, जिनके दिल सिर्फ अपने बच्चों की किलकारियों पर ही झूमते हैं, जिनकी बेवकूफ बीवियाँ दिन-रात उन्‍हें तिगनी का नाच नचाती हैं, और जिन्‍हें अपनी सफेदपोशी के अलावा और किसी बात का कोई गम नहीं होता। कुछ देर मैं उस जमाने की याद में डूबा रहा। महसूस हुआ, जैसे वह फिर उसी दुनिया से एक पैगाम लाया हो, फिर मुझे उन्‍हीं रोमानी वीरानों में भटका देने की कोशिश करना चाहता हो, जिनसे भाग कर मैने अपने लिए एक फूलों की सेज सँवार ली है, और जहाँ मैं बहुत सुखी हूँ।

वह मुस्‍करा रहा था, जैसे उसने मेरे अंदर झाँक लिया हो। उसे इस तरह आसानी से अपने ऊपर काबिज होते देख, मैंने बात बदलने के लिए कहा - कितने रोज यहाँ ठहरोगे?

उसकी हँसी से एक बार फिर हमारे घर की सजी-सँवारी फि़जा दहक गई, और मुझे खतरा हुआ कि माला उसी दम वहाँ पहुँच कर उसका मुँह नोच लेगी। लेकिन यह खतरा इस बात का गवाह है कि इतने बरसों की दासता के बावजूद मैं अभी तक माला को पहचान नहीं पाया। थोड़ी ही देर में वह एक बहुत खूबसूरत साड़ी पहने मुस्‍कराती-इठलाती हुई हमारे सामने आ खड़ी हुई। हाथ जोड़ कर बड़े दिलफरेब अंदाज में नमस्‍कार करती हुई बोली, 'आप बहुत थके हुए दिखाई देते हैं, मैंने गरम पानी रखवा दिया है, आप 'वाश' कर लें, तो कुछ पी कर ताजादम हो जाएँ। खाना तो हम लोग देर से ही खाएँगे।'

मैं बहुत खुश हुआ। अब मामला माला ने अपने हाथ में ले लिया था और मैं यूँ ही परेशान हो रहा था। मन हुआ कि उठ कर माला को चूम लूँ, मैंने कनखियों से उस हरामजादे की तरफ देखा। वह वाकई सहमा हुआ-सा दिखाई दिया। मैंने सोचा, अब अगर वह खुद-ब-खुद ही न भाग उठा तो मैं समझूँगा कि माला की सारी समझ-सीख और रंग-रूप बेकार है। कितना लुत्‍फ आए अगर वह कमबख्‍त भी भाग खड़ा होने के बजाय माला के दाँव में फँस जाए और फिर मैं उससे पूछूँ - अब बता, साले, अब बात समझ में आई? मैंने आँखें बंद कर लीं और उसे माला के इर्द-गिर्द नचाते हुए, उस पर फिदा होते हुए, उसके साथ लेटे हुए देखा। एक अजीब राहत का ए‍हसास हुआ। आँखें खोलीं तो वह गुसलखाने में जा चुका था और माला झुकी हुई सोफे को ठीक कर रही थी। मैंने उसकी आँखों में आँखें डाल कर मुस्कराने की कोशिश की, लेकिन फिर उसकी तनी हुई सूरत से घबरा कर नजरें झुका लीं। जाहिर था कि उसने अभी मुझे माफ नहीं किया था।

नहा कर वह बाहर निकला, तो उसने मेरे कपड़े पहने हुए थे। इस बीच माला ने बीअर निकाल ली थी और उसका गिलास भरते हुए पूछ रही थी - 'आप खाने में मिर्च कम लेते हैं या ज्यादा?' मैंने बहुत मुश्किल से हँसी पर काबू किया - उस साले को तो खाना ही कब मिलता होता, मैं सोच रहा था और माला की होशियारी पर खुश हो रहा था।

कुछ देर हम बैठे पीते रहे, माला उससे घुल-मिल कर बातें करती रही, उससे छोटे-छोटे सवाल पूछती रही - आपको यह शहर कैसा लगा? बीअर ठंडी तो है न? आप अपना सामान कहाँ छोड़ आए? - और वह बगलें झाँकता रहा। हमारे बच्‍चों ने आ कर अपने 'अंकल' को ग्रीट किया, बारी-बारी उसके घुटनों पर बैठ कर अपना नाम वगैरा बताया, एक-दो गाने गाए और फिर 'गुड नाइट' कह कर अपने कमरे में चले गए। माला की मीठी बातों से यूँ लग रहा था जैसे हमारे अपने ही हलके का कोई बेतकल्‍लुफ दोस्‍त कुछ दिनों के लिए हमारे पास आ ठहरा हो, और उसकी बड़ी-सी गाड़ी हमारे दरवाजे़ के सामने खड़ी हो।

मैं बहुत खुश था और जब माला खाना लगवाने के लिए बाहर गई, तो उस शाम पहली बार मैंने बेधड़क उस कमीने की तरफ देखा। वह तीन-चार गिलास बीअर के पी चुका था और उसके चेहरे की जर्दी कुछ कम हो चुकी थी। लेकिन उसकी मुस्कराहट में माला के बाहर जाते ही फिर वही जहर और चैलेंज आ गया था और मुझे महसूस हुआ जैसे वह कह रहा हो - बीवी तुम्‍हारी मुझे पसंद है, लेकिन बेटे! उसे खबरदार कर दो, मैं इतना पिलपिला नहीं जितना वह समझती है।

एक क्षण के लिए फिर मेरा जोश कुछ ढीला पड़ गया। लगा जैसे बात इतनी आसानी से सुलझनेवाली नहीं। याद आया कि खूबसूरत और शोख औरतें उस जमाने में भी उसे बहुत पसंद थीं, लेकिन उनका जादू ज्‍यादा देर तक नहीं चलता था। फिर भी, मैंने सोचा, बात अब मेरे हाथ से निकल गई है और सिवाय इंतजार के मैं और कुछ नहीं कर सकता था।

खाना उस रोज बहुत उम्‍दा बना था और खाने के बाद माला खुद उसे उसके कमरे तक छोड़ने गई थी। लेकिन उस रात मेरे साथ माला ने कोई बात नहीं की। मैंने कई मजाक किए, कहा - नहा-धो कर वह काफी अच्‍छा लग रहा था, क्‍यों? बहुत छेड़-छाड़ की, कई कोशिशें कीं कि सुल‍हनामा हो जाए, लेकिन उसने मुझे अपने पास फटकने नहीं दिया। नींद उस रात मुझे नहीं आई, फिर भी अंदर से मुझे इत्‍मीनान था कि किसी-न-किसी तरह माला दूसरे रोज उसे भगा सकने में जरूर कामयाब हो जाएगी।

लेकिन मेरा अंदाजा गलत निकला। माना कि माला बहुत चालाक है, बहुत समझदार है, बहुत मनमोहिनी है, लेकिन उस हरामजादे की ढिठाई का भी कोई मुकाबला नहीं। तीन दिन तक माला उसकी खातिर-तबाजा करती रही। मेरे कपड़ों में वह अब बिलकुल मुझ जैसा हो गया था और नजर यूँ आता था जैसे माला के दो पति हों। मैं तो सुबह-सबेरे गाड़ी ले कर दफ्तर को निकल जाता था, पीछे उन दोनों में न जाने क्‍या बातें होती थीं। लेकिन जब कभी उसे मौका मिलता वह मुझे अंदर ले जा कर डाँटने लगती -अब यह मुरदार यहाँ से निकलेगा भी कि नहीं। जब तक यह घर में है, हम किसी को न तो बुला सकते हैं, न किसी के यहाँ जा सकते हैं। मेरे बच्‍चे कहते हैं कि इसे बात करने तक की तमीज नहीं। आखिर यह चाहता क्‍या है?

मैं उसे क्‍या बताता कि वह क्‍या चाहता है? कभी कहता - थोड़ा सब्र और करो अब जाने की सोच रहा होगा। कभी कहता - क्‍या बताऊँ, मैं तो खु़द शर्मिंदा हूँ। कभी कहता - तुमने खु़द ही तो सर पर चढ़ा लिया है। अगर तुम्‍हारा बर्ताव रूखा होता तो...

माला ने अपना बर्ताव तो नहीं बदला, लेकिन चौथे रोज अपने बच्‍चों-सहित घर छोड़ कर अपने भाई के यहाँ चली गई। मैंने बहुतेरा रोका, लेकिन वह नहीं मानी। उस रोज वह कमबख्‍त बहुत हँसा था, जोर-जोर से, बार-बार।

आज माला को गए पाँच रोज हो गए हैं। मैंने दफ्तर जाना छोड़ दिया है। वह फिर अपने असली रंग में आ गया है। मेरे कपड़े उतार कर उसने फिर अपना वह मैला-सा कुर्ता-पायजामा पहन लिया है। कहता कुछ नहीं, लेकिन मैं जानता हूँ कि क्‍या चाहता है - वह मौका फिर हाथ नहीं आएगा! वह चली गई है। बेहतर यही है कि उसके लौटने से पहले तुम भी यहाँ से भाग चलो। उसकी चिंता मत करो, वह अपना इंतजाम खुद कर लेगी।

और आज आखिर मैं उसे थोड़ी देर के लिए बेहोश कर देने में कामयाब हो गया हूँ। अब मेरे सामने दो रास्‍ते हैं। एक यह कि होश आने से पहले मैं उसे जान से मार डालूँ। और दूसरा यह कि अपना जरूरी सामान बाँध कर तैयार हो जाऊँ और ज्‍यूँ ही उसे होश आए, हम दोनों फिर उसी रास्‍ते पर चल दें, जिससे भाग कर कुछ बरस पहले मैंने माला की गोद में पनाह ली थी। अगर माला इस समय यहाँ होती तो कोई तीसरा रास्‍ता भी निकाल लेती। लेकिन वह नहीं है और मैं नहीं जानता कि मैं क्या करूँ?

--कृष्ण बलदेव वैद
[संशय के साये, भारतीय ज्ञानपीठ] 

Back
 
Post Comment
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश