जब हम अपना जीवन, जननी हिंदी, मातृभाषा हिंदी के लिये समर्पण कर दे तब हम किसी के प्रेमी कहे जा सकते हैं। - सेठ गोविंददास।

मंदिर-दीप

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 सोहनलाल द्विवेदी | Sohanlal Dwivedi

मैं मंदिर का दीप तुम्हारा।
जैसे चाहो, इसे जलाओ,
जैसे चाहो, इसे बुझायो,

इसमें क्या अधिकार हमारा?
मैं मंदिर का दीप तुम्हारा।

जस करेगा, ज्योति करेगा,
जीवन-पथ का तिमिर हरेगा,

होगा पथ का एक सहारा!
मैं मंदिर का दीप तुम्हारा।

बिना स्नेह यह जल न सकेगा,
अधिक दिवस यह चल न सकेगा,

भरे रहो इसमें मधुधारा,
मैं मंदिर का दीप तुम्हारा।

- सोहनलाल द्विवेदी

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