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 तीन दृष्टियाँ | लघु-कथा | Short Stories by Kanhaiyalal Mishra Prabhakar
भारत की सारी प्रांतीय भाषाओं का दर्जा समान है। - रविशंकर शुक्ल।
तीन दृष्टियाँ | बोधकथा (कथा-कहानी)    Print this  
Author:कन्हैया लाल मिश्र 'प्रभाकर' | Kanhaiyalal Mishra 'Prabhakar'

चंपू, गोकुल और वंशी एक महोत्सव में गये।

वहाँ तब तक कोई न आया था। वे आगे की कुर्सियों पर बैठ गये। दर्शक आते गये, बैठते गये, पंडाल भर गया।

उत्सव आरंभ हुआ। संयोजक ने सबका स्वागत किया।

तब आये एक महानुभाव अपनी चमचमाती मोटर में। उत्सव की बहती धारा रुक गयी। उनकी आवभगत में संयोजक और दूसरे लग गये। वह पंडाल में यों आए कि जैसे जुलूस हो।

संयोजक ने आगे बढ़कर 'उठप' के उद्घोष में आँखों की वक्रता का झटका-सा देकर उठा दिया चंपू, गोकुल और वंशी को। अब उन कुर्सियों पर बैठे वह महानुभाव, उनकी पत्नी और पुत्र।

चंपू, गोकुल और वंशी एक तरफ खड़े ताकते रहे। तभी उन महानुभाव ने 1,111 रुपये का चैक संयोजक को दिया। माइक पर इसकी घोषणा हुई और पंडाल तालियों से गूंजा।

'ओह यह बात है।' चंपू, गोकुल, वंशी ने एक साथ सोचा, एक साथ कहा।

चंपू ने सोचा - मेरे भाग्य में कुर्सी होती तो मैं उन महानुभाव के घर जन्म लेता!

गोकुल ने सोचा - लाख धुपट रचने पड़ें, मैं धनपति बनूंगा।

वंशी ने सोचा - सिक्के के गज से आदमी को नापने वाली इस समाज व्यवस्था के विरूद्ध मैं विद्रोह करूंगा।

तीनों अपने-अपने घर लौट गये।

[ चंपू, गोकुल और वंशी तीनों साथी हैं। तीनों साथ उत्सव में गये, तीनों साथ कुर्सियों पर बैठे, तीनों साथ ही कुर्सियों से उठाये गये पर अपमान की तीनों पर एक ही प्रतिक्रिया नहीं हुई। प्रतिक्रिया ने चंपू को दीन, गोकुल को धूर्त और वंशी को विद्रोही के रूप में प्रस्तुत कर दिया। ]

- कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर

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