हिंदी चिरकाल से ऐसी भाषा रही है जिसने मात्र विदेशी होने के कारण किसी शब्द का बहिष्कार नहीं किया। - राजेंद्रप्रसाद।
लाश - कमलेश्वर | कमलेश्वर की कहानियां (कथा-कहानी)    Print this  
Author:कमलेश्वर | Kamleshwar

सारा शहर सजा हुआ था। खास-खास सड़कों पर जगह-जगह फाटक बनाए गए थे। बिजली के खम्बों पर झंडे, दीवारों पर पोस्टर। वालंटियर कई दिनों से शहर में परचे बाँट रहे थे। मोर्चे की गतिविधियाँ तेज़ी पकड़ती जा रही थीं। ख़्याल तो यहाँ तक था कि शायद रेलें, बसें और हवाई यातायात भी ठप्प हो जाएगा। शहर-भर में भारी हड़ताल होगी और लाखों की संख्या में लोग जुलूस में भाग लेंगे।

 शहर से बाहर एक मैदान में पूरा नगर ही बस गया था। दूर-दूर से टुकडियाँ आ रही थीं। कुछ टुकडियाँ ठेके की बसों में आई थीं। बसों पर भी झंडे थे। कपड़े की पट्टियों पर तहसील का नाम था। कुछ टुकड़ियों में औरतें भी थीं, बच्चे भी। औरतें खाली वक्त में अभियान गीत गाती रहतीं।

केंद्रीय समिति ने कुछ नए नारे बनाए थे। ज़िला स्तर के कुछ लोग उन नारों का रियाज़ कर रहे थे। लंगर में आपाधापी थी। शहर के सब रास्ते, होटल, धर्मशालाएँ, सराएँ और मामूली रिश्तेदारों के घर प्रदर्शनकारियों से भरे हुए थे।

दो महीने पहले दर्जियों को झंडे और टोपी सिलने का ठेका दे दिया गया था। परचे और पोस्टरों का काम सात छापेख़ानों के पास था जिन परचों पर माँगें और नारे छपे थे, वे सब प्रदर्शनकारियों को बाँट दिए गए थे। पुलिस की सरगर्मी भी बढती जा रही थी। यातायात पुलिस ने नागरिकों की सुविधा के लिए ऐलान निकालने शुरू कर दिए- कि मोर्चे वाले दिन नागरिक शहर की किन-किन सडकों को इस्तेमाल न करें... कि नागरिक अपनी गाडियाँ इत्यादि सुरक्षित स्थानों पर रखें।

मोर्चे की विशालता का अंदाज़ लगाकर पुलिस कमिश्नर ने पी.ए.सी. को बुला लिया था। जिन-जिन सड़कों से जुलूस को गुज़रना था, उनकी इमारतों पर जगह-जगह सशस्त्र पुलिस तैनात कर दी थी। सड़कों के दोनों ओर सिर्फ वह पुलिस थी, जिसके पास डंडे थे... ताकि प्रदर्शनकारियों को ताव न आए। यह सब इंतज़ाम पुलिस कमिश्नर ने खुद ही कर लिया था।

अपने चौकस इंतज़ाम की खबर देने के लिए जब पुलिस कमिश्नर मुख्यमंत्री के पास पहुँचा तो उसका सारा तनाव खुद ही खत्म हो गया। मुख्यमंत्री के चेहरे पर कोई चिंता या परेशानी नहीं थी। वे हमेशा की तरह प्रसन्न मुद्रा में थे। गृहमंत्री धीरे-धीरे मुस्करा रहे थे। मुख्यमंत्री ने कुछ कहा तो पुलिस कमिश्नर ने तफ़सील देनी शुरू की- दो हजार लोकल फोर्स हैं, पाँच सौ  पी.एस.सी., चार सौ डिस्ट्रिक्ट से आया है, तीन सौ रेलवे का है, अस्सी जवान जेल से उठा लिए हैं, दो सौ होमगार्ड! इनमें से आठ सौ आर्म्ड हैं। हर पुलिस चौकी पर शैल्स का इंतजाम है। सोलह सौ लाठियाँ पिछले हफ़्ते आ गई थीं। साढ़े चार सौ का फोर्स सिविलियन हैं...

पुलिस कमिश्नर सब बताता जा रहा था, पर मुख्यमंत्री विशेष उत्सुकता से नहीं सुन रहे थे। गृहमंत्री भी बहुत दिलचस्पी नहीं ले रहे थे। कमिश्नर कुछ हैरान हुआ। उसने एक क्षण रुक कर उन दोनों की तरफ ताका, तो मुख्यमंत्री ने अपना चश्मा साफ करते हुए कहा, 'ख़्वामख़्वाह आपने इतनी तवालत की।

'इन विरोधी पार्टियों का कुछ भरोसा नहीं... अगर हम इंतज़ाम न करें तो...' कमिश्नर कह रहा था।

'मोर्चा शांत रहेगा।' गृहमंत्री ने कहा।

'क्या पता। कमिश्नर बोला, 'मुझे तो...'

मुख्यमंत्री ने बात काट दी- 'बहुत ऊधम नहीं मचेगा। बस जरा गुंडों पर नजर रखिएगा...'

'गुण्डे तो तीन-चौथाई से ज्यादा पकड़ लिए गए हैं... यह तो तीन दिन पहले ही कर लिया गया था। कुछ आज दोपहर बंद कर दिए जाएँगे।'

'ठीक है।'

'तो मैं इजाज़त लूँ?' कमिश्नर ने पूछा।

'ठीक है', मुख्यमंत्री ने कहा, 'अक्ल से काम लीजिएगा। मेरे ख्याल से आप मोर्चे  के
कर्ताधर्ताओं से मिलते हुए निकल जाइए। तीनों यहीं एम.एल.ए. हॉस्टल में टिके हुए हैं...

'जी मुझे मालूम है, पर शायद अब तक वे अपने पण्डाल में चले गए होंगे...।' कमिश्नर ने जरा सकुचाते हुए कहा, 'और वहाँ जाकर मिलना... मेरे ख़्याल से ठीक नहीं होगा...'

'वह यहीं होंगे... अरे भई, आपको मालूम नहीं, उनमें से कांति तो मेरे साथ जेल में रहे हैं। बड़े आदर्शवादी आदमी हैं... तेज और बेलाग। ऐसे विरोधी को तो मैं सर-माथे बिठाता हूँ। उनकी बस एक ही कमजोरी है- नींद! आप उनके सर पर नगाड़ा बजाइए, पर वे नहीं उठ सकते। जेल में भी यही आदत थी। सत्याग्रह आंदोलन के दिनों में भी! उन्हें नींद पूरी चाहिए... अभी वहीं होंगे...' मुख्यमंत्री ने तारीफ़ करते हुए आगे कहा, 'अब मोर्चे का मामला है, इसलिए शायद वे मिलने न आएं, नहीं तो हमेशा आते हैं... बेहद उम्दा आदमी है। भई, मैं तो उनकी बड़ी इज़्ज़त करता हूँ।'

'इस पार्टीबाजी और पॉलिटिक्स को क्या कहा जाए... कांतिलाल जी को तो सरकार में होना चाहिए था...' गृहमंत्री ने बड़े दुःख से कहा।

'बिलकुल... मुख्यमंत्री बोले, 'देखते जाइए, मिल जाए तो ठीक है... मेरा नमस्कार बोलिएगा। न हों तो पण्डाल जाने की जरूरत नहीं है...'

पुलिस कमिश्नर नया था। बहुत सकुचाते हुए बोला, 'मोर्चेवाले शायद आपका पुतला भी जलाएँगे, उसके बारे में...'

'अरे ठीक है, जलाने दीजिए... इससे आपका क़ानून कहाँ भंग होता है। जो उनके दिल में आए करने दीजिए, आप निगरानी रखिए, बस, आपकी यही जिम्मेदारी है। मुख्यमंत्री ने कहा और कुर्सी से उठ खड़े हुए।

चार बजे चौक मैदान से जुलूस चल पड़ा। मोर्चा जबरदस्त था। सबसे आगे झंडे और बिगुल थे। उनके पीछे अभियान गीत गाने वालों की टोली थी। उसके पीछे माँगों की तख्तियां पकड़े औरतों की टोली थी। उसके पीछे हज़ारों की संख्या में प्रदर्शनकारी थे। जगह-जगह से आए हुए लोग सब टोपियाँ लगाए थे। हाथों में छोटे-छोटे झंडे या माँगों की तख़्ती पकड़े थे। मोर्चा बहुत शान से चल रहा था। कतारों के दोनों तरफ कंधों से लाउडस्पीकर लटकाए नारे देने वाले वालंटियर थे। बीचों बीच झंडों से सजी जीप पर कांतिलाल, उनके साथी नेता और कुछेक महत्वपूर्ण लोग थे।

मोर्चा बढता जा रहा था। हर कोई चकित था। पता नहीं, इतने लोग एकाएक कहाँ से निकल पड़े थे। तमाशबीन नागरिकों की कतारें झंडेवाली पुलिस के पीछे से आश्चर्य से झाँक रही थीं।

सचमुच विश्वास नहीं होता था कि इतनी तादाद में लोग अभी जीवित होंगे  कि वे अब भी इन तरीक़ों पर भरोसा करते होंगे। शानदार और उमड़ता हुआ अपार जुलूस अदम्य शक्ति से बढ़ता जा रहा था। बड़े अख़बारों के फोटोग्राफर इमारतों पर चढ-चढकर हर मोड़ पर जुलूस के चित्र खींच रहे थे। कुछेक विदेशी फोटोग्राफर इस ऐतिहासिक मोर्चे को देखकर हैरान थे। वे जनतंत्र की ताकत के बारे में एकाध फ़िक़रा बोलकर अपने काम में मशग़ूल हो जाते थे। वे ज्यादातर आदिवासियों वाली टोली के चित्र उतार रहे थे। सरकारी फिल्म्स डिवीजन के कैमरामैन अपना काम कर रहे थे।

लम्बी सड़क पर जाते हुए जुलूस का दृश्य अदृश्य था। लाखों पैर-ही-पैर... लाखों सिर-ही-सिर। हज़ारों झंडे और उत्साह से भरे नारे...हहराता हुआ जनसमूह और समवेत गर्जन। कहीं न ओर न छोर। मीलों तक अजगर की तरह तभी एकाएक विध्वंस हो गया... जुलूस के अगले हिस्से में भगदड़ मच गई। सारा बाराबाँट हो गया। चारों तरफ बदहवासी भर गई। इमारतों की खिडकियों और दुकानों के दरवाजे तड-तड होने लगे। जुलूस दौड़ती-भागती चीखती-चिल्लाती बदहवास और अंधी भीड़ में दबल गया। चारों ओर भयंकर बदअमनी फैल गई। फिर धुएँ के बादल उठे... कुछ लपटें दिखाई दीं। तोड़फोड़ की गूँजती हुई आवाज़ें और घबराहट भरी चीखें आईं और गोलियाँ चलने की चटखती हुई तड़तड़ाहट से वातावरण व्याप्त हो गया। धुएँ के समुद्र में जैसे लाखों लोग ऊब-चूब रहे हों। गिरते-पड़ते और भागते हुए लोग। कुचले और अंगभंग हुए लोग... हुंकारे, चीखें, धमाके, शोर और तड़तड़ाहट।

देखते-देखते सब कुछ हो गया। सड़कों पर सिर्फ जूते-चप्पलें, झण्डे और माँगों की तख़्तियां रह गईं। फटे कपड़े, टोपियाँ, टूटे डंडे और फटी हुई पताकाएँ।

कुछ पता नहीं चला कि यह विध्वंस कैसे हुआ। क्यों हुआ? पुलिस की गाडियों में दंगाई और घायल भरे गए। घायलों को अस्पताल में पहुँचा दिया गया। दंगाइयों को दस मील ले जाकर छोड़ दिया गया। वे गुण्डे नहीं थे, गुण्डे पहले से बंद थे।

चोटें बहुतों को आई थीं। वे आपस में कुचल गए थे। पुलिस ने गोली चलाई जरूर थी, पर हवाई फ़ायर किए थे। उसकी गोली से एक भी आदमी घायल नहीं हुआ था। अंगों की सिर्फ टूट-फूट हुई थी।

सारा शहर सन्न रह गया था। ग़नीमत थी कि इतने बडे हादसे में सिर्फ एक लाश गिरी थी। वह लाश भी बिल्कुल सालिम थी। उसके न गोली लगी थी, न वह कहीं से घायल थी।

पुलिस ने लाश के चारों ओर से डेरा डाल लिया थ। पुलिस का कहना था कि लाश कांतिलाल की है। कांतिलाल ने यह सुना तो हैरान रह गए। भगदड़ और उस भयंकर हादसे से प्रकृतिस्थ होकर कुछ देर बाद वे लाश को देखने पहुँचे। उसे देखते ही कांतिलाल ने जोश से भरे स्वर में कहा - 'यह मुख्यमंत्री की लाश है।'

घटित हुए हादसे का मुआयना करने के लिए मुख्यमंत्री भी निकल चुके थे। उन्होंने यह सुना तो सकपकाए हुए पहुँचे। उन्होंने गौर से लाश को देखा और मुस्कराते हुए बोले- 'यह मेरी नहीं है।'



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