अहिंदी भाषा-भाषी प्रांतों के लोग भी सरलता से टूटी-फूटी हिंदी बोलकर अपना काम चला लेते हैं। - अनंतशयनम् आयंगार।
कैलक्यूलेशन (कथा-कहानी)    Print this  
Author:मालती जोशी

साढ़े आठ बजने को थे और पिंकी का अब तक पता नहीं था। मेरी चिंताओं का ग्राफ बढ़ने लगा था। सर्दियों में अँधेरा वैसे ही जल्दी घिर आता है। और शहर में रोज होने वाली घटनाएँ मन को डरा देती हैं। बच्चों को हमारी परेशानियों का कोई एहसास नहीं होता, बल्कि मैं फोन भी करती हूँ तो वह नाराज हो जाती है। कहती है- और किसी के घर से फोन नहीं आता, बस मेरा ही घनघनाता रहता है। इतना एंबेरेसिंग लगता है।
अब भला इसमें एंबेरेसिंग होने जैसा क्या है। तुम्हारे दोस्तों के घर वाले लापरवाह हैं तो मैं क्या करूँ। मैं तो उतनी बेफिक्र नहीं हो सकती न। ये घर में होते हैं तो हर पाँच मिनट पर मुझे 'कूल डाउन' की सलाह देते हैं। पर आज ये भी टूर पर हैं। सारा टेंशन मुझे अकेले ही झेलना है।
जब घर में बैठना असंभव हो गया तो मैं शॉल ओढ़कर गेट पर जाकर खड़ी हो गई। "बिटिया की राह देखी जा रही है?" अँधेरे में एक प्रश्न उछला। मैं बुरी तरह चौंक गई। देखा, बगल वाली अम्माँजी शॉल लपेटे कुरसी पर विराजमान हैं।
मैं मुड़कर उनसे मुखातिब हो गई। कंपाउंड वॉल पर टिकते हुए कहा, "ओरी देखिए न! अँधेरा कैसा हो रहा है! इतनी रात अकेले आती है तो चिंता होने लगती है।" "वह अकेले नहीं आती। एक लड़का घर तक छोड़ने आता है।"
मैं चकित होकर उन्हें देखती रह गई। पिंकी ने उनका नाम, 'चुंगी नाका' रखा है, वह गलत नहीं है।
अपने बरामदे में बैठकर वह पूरे मोहल्ले की खोज खबर रखती हैं। थोड़ा बुरा भी लगा। जरा सी तुर्शी के साथ पूछा, "आप अब तक यहाँ ठंड में क्यों बैठी हुई है?" "अरे, बेटा अभी-अभी दफ्तर से लौटा है। उसका चाय-नाश्ता हो जाने दो, फिर भीतर जाऊँगी।"
"मतलब।"
"अरे मुझे देखेगा तो पास बिठा लेगा। मेरे हालचाल पूछेगा। दफ्तर की बातें बताएगा। बहू को यह सब अच्छा नहीं लगता। कहती है, शादी क्यों की? जिंदगी भर अम्माँ के पल्लू से बँधे रहते।" कहते हुए उन्होंने शॉल और कसकर लपेट ली।
मैं चुप हो गई। हर घर की अपनी समस्या होती है। उससे खुद ही निपटना पड़ता है। बाहर वाला कुछ नहीं कर सकता। इस समय तो मैं अपनी ही चिंता से ग्रस्त थी। दूसरों की मदद क्या करती।
मुझे ज्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। कुछ ही देर में मेरी समस्या यानी कि पिंकी रानी पधार गई। साथ में वह लड़का भी था।
पिंकी बाहर से ही चिल्लाई "ममा, वहाँ ठंड में क्या कर रही हो?" अब उस लड़के ने मुझे देखा-"नमस्ते आंटी !"
"नमस्ते बेटा-आओ, भीतर आओ। गरमागरम कॉफी पिलाती हूँ।" स्कूटर बाहर खड़ा करके वह निस्संकोच भीतर चला आया।

"रोज तो बाहर से ही चले जाते हो। आज पकड़ाई में आए हो।"
"प्रियंका ने कभी बुलाया ही नहीं। मैं तो रोज आ जाऊँगा।"
मैंने फटाफट कॉफी बनाई। सूखे नाश्ते के साथ सर्व की, और कॉफी पीते हुए उससे ढेर सारी बातें पूछ डालीं।
जब वह चला गया तो मैंने जैसे अपने आप से कहा, "लड़का अच्छा है न!"
"कहीं तुम इसके साथ मेरा गठजोड़ा करने की तो नहीं सोच रही हो? एक ही बैठक में उसके खानदान की सारी हिस्ट्री-जॉग्रफी पता कर ली, इसलिए पूछ रही हूँ।"
"हर्ज क्या है?"
"नो मम्मी ही इज जस्ट ए फ्रेंड। कोचिंग तक लाने-ले जाने के लिए ठीक है। पर शादी के कतई लायक नहीं है। इतने मीडियाकर पर्सन से शादी की बात तो मैं सोच भी नहीं सकती।"
"कैट की तैयारी कर रहा है सो क्या ऐसे ही?"
"पता है मम्मी, यह उसका तीसरा अटेम्ट है?"
"तो तुम कौन सा पहली बार में ही निकल जाओगी?"
"तुमसे तो बात करना ही बेकार है।" उसने तुनककर कहा और कपड़े बदलने चली गई।
इन लड़कियों को समझना सचमुच बहुत मुश्किल है। पिछले साल तक सुनील नाम के एक लड़के से अच्छी-खासी दोस्ती थी। दोनों ने टेबल टेनिस में कॉलेज को कई बार रिप्रजेंट किया था। फिर एकाएक उसका आना बंद हो गया। मैंने पिंकी से पूछा तो बोली, "जनाब खेल-खेल में लाइफ पार्टनर बनने के सपने देखने लगे थे। हाऊ रबिश!"
एक लड़का था रजत। दो-तीन नाटकों में दोनों ने साथ काम किया था। लड़का सुंदर था, संपन्न भी। मुझे तो सुशील भी लगता था, पर पिंकी बोली, "मम्मी! उसे ऑफ स्टेज देखोगी न तो तुम्हें मतली आ जाएगी।"
"फिर उसके साथ काम क्यों करती हो?"
"बिकॉज ही इज ए फाइन एक्टर।"
"कल को बॉलीवुड में जाकर बड़ा स्टार बन गया तो..." "नो चांस, मम्मी! वह तो बस लोकल हीरो है। वहाँ तो ऐसे सैकड़ों मारे-मारे फिरते हैं। कोई घास नहीं डालता।" "मैंने सुना है, लड़कियाँ उस पर जान छिड़कती हैं।" "लड़कियाँ परले दरजे की बेवकूफ होती हैं। तभी तो ऐसे लोगों की बन आती है।" "कई बार मेरा पूछने का मन होता है कि लाडो! तेरी नजर में कोई मिस्टर परफेक्ट है भी?"
उस दिन कॉलेज से लौटते ही बोली, "मम्मी, थोड़ा विटामिन एम स्पेयर करो। पार्लर जाना है।"
"क्यों? कॉलेज में फंक्शन है कोई?" "फंक्शन तो है, पर कॉलेज में नहीं है। बर्थ डे पार्टी में जाना है। कार्तिक इज थ्रोइंग ए पार्टी।" "कार्तिक! इतने दिनों कहाँ था?" "यहीं था। पढ़ाई में बिजी था। पी. जी. कर रहा था न!"

"एकाएक तुम्हें कैसे याद कर लिया?"
"याद क्यों नहीं करेगा? मैंने उसे भूलने ही कब दिया है। हर साल बर्थ-डे पर विश करती हूँ। न्यू इयर पर कार्ड भेजती हूँ। हाँ, पार्टी आज पहली बार दे रहा है।"
कार्तिक की पार्टी में खूब वन-सँवरकर गई थी। बार-बार पूछ रही थी-"मम्मी! मैं ठीक लग रही हूँ न! मेकअप बहुत गाड़ी तो नहीं है? साड़ी बहुत जाजी तो नहीं है?"
वह सचमुच बहुत प्यारी लग रही थी। बाल भी ढंग से सँवारे थे। कपड़े भी ढंग से पहने थे। ऐसा नहीं कि हमेशा की तरह कुछ भी ऊटपटाँग पहन लिया और चल दिए। उसकी सज्जा से ही पता लग रहा था कि वह किसी को इंप्रेस करने के लिए बेताब है।
यह जानकर अच्छा भी लग रहा था। कार्तिक सचमुच अच्छा लड़का था। बहुत अरसे पहले वे लोग हमारे पड़ोसी थे। उसकी बहन कीर्ति पिंकी की क्लास में थी। माता-पिता दोनों डॉक्टर थे। अकसर बिजी रहते थे। कीर्ति का अधिकांश समय हमारे यहाँ ही गुजरता था।
फिर मोहल्ले बदल गए, पर एक ही क्लास में होने के कारण कीर्ति और पिंकी की दोस्ती बनी रही। हायर सेकंडरी के बाद वह भी भाई की तरह मेडिकल में चली गई। आना-जाना कम क्या, एक तरह से बंद ही हो गया। यह तो आज पता चला कि पिंकी उन लोगों के, खासकर कार्तिक के बराबर संपर्क में है। अच्छा लगा। जाते समय मैंने उसे ढेर सारी हिदायतें दीं "जल्दी लौटना। ऑटो में अकेले मत आना। किसी भरोसेमंद आदमी की कार में ही बैठना।"
उसे अच्छा तो नहीं लग रहा था, पर चुपचाप सुनती रही। आखिर उसके पापा को ही दया आ गई। झल्लाकर बोले, "बस भी करो अब। लड़की अब बच्ची नहीं रही। खासी बड़ी हो गई है। इस बात को तुम कब समझोगी?"
"बच्ची नहीं रही। बड़ी हो गई है। इसीलिए तो इतनी फिक्र हो रही है। पर ये बातें पुरुषों के दिमाग में कभी नहीं आतीं। फिक्र करने का जिम्मा जैसे माँ ने ही उठाया हुआ है।"
रात को वह लौटी थी तो काफी थकी-थकी सी लग रही थी। मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। जानती हूँ-आजकल की पार्टियों में सिर्फ खाना-पीना थोड़े ही होता है। डांस के नाम पर अच्छी-खासी हुड़दंग लीला होती है। शोर इतना कि कानों के परदे फट जाएँ। "कैसी रही पार्टी?" मैंने पूछा।
"ठीक ही थी," उसने बेरुखी से कहा और सोने चली गई। अब मुझे ताज्जुब हुआ। और कोई दिन होता तो मुझे पूछने की जरूरत नहीं पड़ती। वह आते ही शुरू हो जाती। यह भी भूल जाती कि आधी रात हो रही है और मम्मी जो उसके लिए अब तक जाग रही थी सोना चाहेगी। पर आज तो उसे बात करना भी मुहाल लग रहा था। जाते समय जो उत्साह फूटा पड़ रहा था- उसका लेशमात्र भी अब बाकी नहीं था।
सुबह चाय के समय उसके पापा ने पार्टी के बारे में पूछा तो बोली, "पापा, पार्टी तो शानदार होनी ही थी। उसने अपनी एंगेजमेंट जो अनाउंस करनी थी।"
"अरे वाह! किससे शादी कर रहा है?"
"अपनी वैचमेट से। दोनों ने साथ ही पी. जी. किया है।"
"इसका मतलब है, घर में डॉक्टरों की एक पूरी फौज तैनात है। तब तो उनके नर्सिंग होम का भी एक्सटेंशन होगा।"
"बिल्कुल होगा। अब वह केवल मैटर्निटी होम नहीं रहेगा, वहाँ बड़ी-से-बड़ी सर्जरी होगी।
इसीलिए तो उस बौडम से शादी कर रहा है। अगर उसे पी.जी. में एडमिशन नहीं मिलता तो उसे लिफ्ट थोड़े ही देता, किसी और को पटा लेता।" उसका स्वर अत्यंत कसैला हो गया था। "अंकल-आंटी भी तो उसकी डिग्री पर ही रीझे हैं। नहीं तो कार्तिक के सामने तो वह कुछ भी नहीं है। इट इज ए बिजिनेस डील ऑल इन ऑल।" और फिर उसका स्वर एकदम तरल हो आया-"पापा! आजकल लोग नाप-तौलकर ही प्यार करने लगे हैं न!"
उसके स्वर का गीलापन मुझे भीतर तक भिगो गया। मन हुआ, उसे गले से लगाकर सांत्वना दूँ। कहूँ कि "लाडो! इसमें कार्तिक का क्या दोष है। अपना नफा-नुकसान देखना तो जमाने का चलन है। तुम भी तो इस इल्जाम से बरी नहीं हो।"
वैसे भी टूटकर प्रेम करनेवाली पीढ़ी अब रही कहाँ। वे लोग तो कब के इतिहास बन गए।
-मालती जोशी

 

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