निःसीम नापने चले, मुबारक हो तुम को; पर दोस्त नाप लो तुम पहले अपनी सीमा। ऐसा कोई उल्लास आज तक नहीं दिखा, जो पड़ न गया हो यहां थकावट से धीमा। अक्षय हो ऐसी आयु किसी को कहां मिली? अव्यय हो ऐसी सांस किसी ने कब पाई? मैं हार गया हूं खोज-खोजकर वह समर्थ, जो नाप सका हो अपने दिल की गहराई। आवाज नापने वाले, तुम सच-सच कह दो, क्या नाप सके हो तुम धरती की मौन व्यथा? जो हरित शस्य, निर्मल जल से भी मिट न सकी, वह भूख-प्यास की लिखी रक्त से करुणा कथा। ऐसी कब कोई चाह आह जो बन न गई? ऐसा प्रकाश है कहां तिमिर में खो न गया? मैं हार गया हूं खोज-खोजकर वह चेतन, जो चलते-चलते बीच राह में सो न गया। है ज्ञान समर्थ, महान--नहीं इनकार मुझे, कल्पना-पंख पर लक्ष्यहीन लड़ने वाले। पर देखो, मस्तक पर अभाव, असफलता के हैं घिरे हुए दुर्भेद्य मेघ काले-वाले। है प्रेम सत्य, भावना सत्य, अस्तित्व सत्य; पर तुम में है भय, शंका का अविवेक भरा। तुम अन्तरिक्ष की सुन्दरता पर मुग्ध-विसुध तुम ने कुरूप कर डाली है रसवती धरा।
- भगवतीचरण वर्मा |