हिंदी समस्त आर्यावर्त की भाषा है। - शारदाचरण मित्र।
संकल्प-गीत  (काव्य)    Print this  
Author:उदयभानु हंस | Uday Bhanu Hans

हम तरंगों से उलझकर पार जाना चाहते हैं।
कष्ट के बादल घिरें हम किंतु घबराते नहीं हैं
क्या पतंगे दीपज्वाला से लिपट जाते नहीं हैं?
फूल बनकर कंटकों में, मुस्कराते ही रहेंगे,
दुख उठाए हैं, उठाएंगे, उठाते ही रहेंगे।

पर्वतों को चीर कर गंगा बहाना चाहते हैं,
हम तरंगों से उलझकर पार जाना चाहते हैं।

क्या समझते हो, हृदय चिंगारियां लेकर उठा है,
एक ही झोंका भयंकर आंधियां लेकर उठा है।
आंधियां ऐसी, हिमालय भी कि जिनसे हिल उठेगा,
घुप अंधेरे में उषा का फूल सुंदर खिल उठेगा।

हर असंभव को सदा संभव बनाना चाहते हैं,
हम तरंगों से उलझकर पार जाना चाहते हैं।

रुद्र बनकर हम हलाहल भी यहाँ पीते रहे हैं,
और पीकर उस हलाहल को सदा जीते रहे हैं।
खेल ही समझा उसे जग ने जैसे तूफ़ान माना,
भाग्य के अभिशाप को हमने सदा वरदान माना।

आंधियों की गोद में दीपक जलाना चाहते हैं,
हम तरंगों से उलझकर पार जाना चाहते हैं।

भाग्य से कह दो कि जितना हो सके, हमको सताएँ,
और जी भरकर दुखों की बिजलियाँ हम पर गिराए।
विघ्न-बाधा या विरोधों से नहीं है त्रास हमको,
कष्ट सहने का निरंतर हो चुका अभ्यास हमको।

हम प्रलय की शक्तियां को आजमाना चाहते हैं,
हम तरंगों से उलझकर पार जाना चाहते हैं।

साहसी नर कष्ट में आहें कभी भरते नहीं हैं,
डूबने वाले कभी तूफान से डरते नहीं हैं।
दृढ़ अगर संकल्प है तो विकट संकट क्या करेगा,
घोर वर्षा से नहीं कुछ फर्क सागर को पड़ेगा।

हर चुनौती का घमंडी सिर झुकाना चाहते हैं,
हम तरंगों से उलझकर पार जाना चाहते हैं।

बेबसों को है सताती चतुर बेईमान दुनिया,
है मरे को मारने में यह बड़ी बलवान दुनिया।
जग के झूठे प्रलोभन की नहीं है चाह हमको,
मौत से लड़ना पड़े तो भी नहीं परवाह हमको।

झोंपड़ी को महल का गौरव दिलाना चाहते हैं,
हम तरंगों से उलझकर पार जाना चाहते हैं।

जान का जोखिम उठाने में बड़ा संतोष मिलता,
नित्य पा-पा कर लुटाने में बड़ा संतोष मिलता।
दुख बिना झेले कभी आता नहीं आनंद पूरा,
सत्य समझो, आंसुओं के हैं बिना जीवन अधूरा।

फूल हो या शूल, सीने से लगाना चाहते हैं,
हम तरंगों से उलझकर पार जाना चाहते हैं।

जो कसक पैदा न कर पाए भला वह गीत क्या है,
होना जिसमें कुछ विरह की वेदना, वह प्रीत क्या है।
घन गरजने और विद्युत के कड़कने में मज़ा है,
आग लगने में, सुलगने में, भड़कने में मज़ा है।

चोट खाकर भी हृदय पर गीत गाना चाहते हैं,
हम तरंगों से उलझकर पार जाना चाहते हैं।

-उदयभानु हंस
[उदयभानु हंस के प्रतिनिधि गीत, श्री गुरु जम्भेश्वर प्रकाशन, हिसार]

Previous Page  |  Index Page  |   Next Page
 
Post Comment
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश