जब हम अपना जीवन, जननी हिंदी, मातृभाषा हिंदी के लिये समर्पण कर दे तब हम किसी के प्रेमी कहे जा सकते हैं। - सेठ गोविंददास।

लड्डू (काव्य)

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Author: हरीश पुरोहित

माँ ने दिया जनम तो हँसना रोना आया,
पिता ने पकड़ी ऊँगली तो चलना आया।

भैया ने जोर से ढकेला तो साईकिल चलानी आयी,
यारो ने की जबरदस्ती तो हमने मोटर साइकिल दौड़ाई।

हुई पढ़ाई पूरी तो लगी नौकरी,
बस समझो हमने अपनी सवतंत्रा खोई।

कुछ ही सालो में हो गए हाथ हमारे पीले,
कुछ ने दी सांत्वना, कुछ ने दी बधाई
प्रशोत्तरी के खेल में फस गए भाई,
हर बात पे झूठी हो या सच्ची - देनी पड़ी सफाई।
लगा एक दशक यह हमें तब पता चल पाया
शादी वो लड्डू है यह कहता 'अपराधी'
जिसने नहीं खाया, कम पछताया
...और जिसने खाया, सात जनम पछताया।

हरीश पुरोहित "अपराधी"
ई-मेल: purohit.delhi@gmail.com

 

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