जब हम अपना जीवन, जननी हिंदी, मातृभाषा हिंदी के लिये समर्पण कर दे तब हम किसी के प्रेमी कहे जा सकते हैं। - सेठ गोविंददास।

क्यों हमें डर लगता है (काव्य)

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Author: मनीष तुलसानी

डर हर किसी को लगता हैं,
किसी कीमती चीज के खो जाने का,
किसी अपने से दूर जाने का ।
एक student को exam से,
Employee  को मिलनें वालें काम से,
बारिश के मौसम में जुकाम से,
रास्ते पर traffic jam से ।

Result पर student के fail हो जाने का,
एक criminal को jail हो जाने का,
घर में फिर किसी मेहमान के आने का,
मंदिर भी जाओ तो चप्पल चोरी हो जाने का,
नेता को मार्केट में नई पार्टी के आने का,
एक actor को दूसरे actor के hit गाने का ।
व्यापारी को business में होने वाले घाटे से,
एक बच्चे को मम्मी से मिलने वाले चांटे से ।

डर हर किसी को लगता है,
हर सीधे को टेढे से,
हर लड्डू को पेड़े से,
हर बच्चे को अपने बाप से,
हर धार्मिक को पाप से,
मगर असल में हमें डर लगता हैं अपने आप से,
तो डर से दूर मत जाओ,
अपने अंदर के डर को भगाओ ,
फिर शान से कहो
डर के आगे जीत है।

- मनीष तुलसानी
ई-मेल: manishtulsani6@gmail.com

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