जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।

नदियों के गंदे पानी को | ग़ज़ल (काव्य)

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Author: डा भावना

नदियों के गंदे पानी को घर में निथार कर
चूल्हा जला रही है वो पत्ते बुहार कर

फुटपाथ के वासिंदे की तकदीर है यही
ताउम्र जीना है उसे आंचल पसार कर

उड़ने लगी है कल्पना बिम्बों की खोज में
कुछ शब्द चल पड़े हैं स्वयं को निखार कर

हर मोड़ पे मिलती है कामयाबियां उसे
जो हर लड़ाई लड़ते हैं गलती सुधार कर

अब तो लड़ाई है मेरी अन्याय के ख़िलाफ,
रख दूंगी सबके झूठ का चोला उतार कर !

 

- डॉ० भावना

ई-मेल:  bhavnakumari52@gmail.com

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