भारत की सारी प्रांतीय भाषाओं का दर्जा समान है। - रविशंकर शुक्ल।

अविरल-गंगा (काव्य)

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Author: रूपेश बनारसी

मैं सुरसरि बहती कल-कल थी
इस उथल-पुथल में विकल हुई


गोमुख से हर-हर निकली थी
मैदानों को भी सींचा था
उपजाऊ किए किनारों पर
जीवन का खाका खींचा था
हँसती थी तुम्हें देखकर मैं
पर अब ये आँखें सजल हुई
मैं सुरसरि बहती कल-कल थी


माता कहते थे तुम मुझको
आँचल में लेकर जीती थी
अपने बच्चों के पालन को
उनका भेजा विष पीती थी
क्या कमी रह गयी थी इसमें
क्यूँ मेरी ममता विफल हुई
मैं सुरसरि बहती कल-कल थी


जग हित में था मेरा जीवन
अद्भुत वो पुरुष-प्रकृति दर्शन
कल-कल से मेरे होता था
विज्ञान-धर्म में स्पंदन
होता अब आच्छादित प्रवाह
कैसे जिजीविषा गरल हुई
मैं सुरसरि बहती कल-कल थी


अधमरी हो गयी हूँ मैं
अब माँ के लिए पुकार करो
अस्तित्व न मेरा मिट जाए
अविरल गंगा हुंकार भरो
निस्वार्थ भरा जीवन मेरा
थम जाएगा यदि भूल हुई
मैं सुरसरि बहती कल-कल थी
इस उथल-पुथल में विकल हुई


 -रूपेश बनारसी

 

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