जब हम अपना जीवन, जननी हिंदी, मातृभाषा हिंदी के लिये समर्पण कर दे तब हम किसी के प्रेमी कहे जा सकते हैं। - सेठ गोविंददास।

मिले न मुझको सच्चे मोती | गीत (काव्य)

Print this

Author: दिनेश गोस्वामी

दूर-दूर तक ढूंढ़ा मैंने
सागर-तक की गहराई में,

मिले बहुत से शंख-सीपियाँ

मिले न मुझको सच्चे मोती।

 

लहर-लहर में कोलाहल था

जलचर जल में उछल रहे थे,

एक-दूसरे के जीवन को

सगे-सहोदर निगल रहे थे,

अपने स्वार्थ-भरे चिंतन का

बोझ दिखीं चिंताएँ ढोती।

 

उलझे-उलझे जीव-जंतु थे

चिकने-चिकने शैवालों में,

आपा-धापी, भाग-दौड़ थी

सागर के रहने वालों में,

अपने-अपने में खोई थी

हर प्राणी की जीवन-ज्योती।

 

खोज-खोज के रत्नाकर से

मैंने चमके रत्न निकाले,

किंतु सभी पाषाण छली थे

रंग-रूप से छलने वाले,

आहत-आकुल आस रह गई

स्वप्न सँजोती, धीरज खोती।


- दिनेश गोस्वामी

Back

 
Post Comment
 
 
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश