दूर-दूर तक ढूंढ़ा मैंने
सागर-तक की गहराई में,
मिले बहुत से शंख-सीपियाँ
मिले न मुझको सच्चे मोती।
लहर-लहर में कोलाहल था
जलचर जल में उछल रहे थे,
एक-दूसरे के जीवन को
सगे-सहोदर निगल रहे थे,
अपने स्वार्थ-भरे चिंतन का
बोझ दिखीं चिंताएँ ढोती।
उलझे-उलझे जीव-जंतु थे
चिकने-चिकने शैवालों में,
आपा-धापी, भाग-दौड़ थी
सागर के रहने वालों में,
अपने-अपने में खोई थी
हर प्राणी की जीवन-ज्योती।
खोज-खोज के रत्नाकर से
मैंने चमके रत्न निकाले,
किंतु सभी पाषाण छली थे
रंग-रूप से छलने वाले,
आहत-आकुल आस रह गई
स्वप्न सँजोती, धीरज खोती।
- दिनेश गोस्वामी