जब हम अपना जीवन, जननी हिंदी, मातृभाषा हिंदी के लिये समर्पण कर दे तब हम किसी के प्रेमी कहे जा सकते हैं। - सेठ गोविंददास।

सुजाता की दो कविताएं  (काव्य)

Print this

Author: सुजाता

ठहराव


मैं कुछ पल ठहरना चाहती हूँ
यहीं पर जहां हूँ
क्या है यहाँ , कौन सी शक्ति
कौन-सा आकर्षण ---
जो मुझे बांधे रखना चाहती है।
हाँ, मैं रुकना चाहती हूँ ।
ठहरकर इस पल को जीना चाहती हूँ ,
इसकी मधु-तीखी अनुभूतियों की गूँजों को
कानों में भर लेना चाहती हूँ।
क्यों, कहां, कैसे...
क्या यही जीवन की सार्थकता है?
क्या यही यथार्थ है?
क्या इसी में पूर्णता है?
ये कुछ पल---
मधुर पल
जीवंत, सजीले, वसंत की चादर ओढ़े ।
परंतु,
एक पल पतझड़ भी तो
अच्छा लगता है,
सनसनाती हुई हवा अच्छी लगती है
जब गालों को वह सर से छुकर निकल जाती है
वह स्फूरण मैं जी लेना चाहती हूँ।
मैं कुछ पल ठहरना चाहती हूँ।
आखिर अनुभूतियों के शिलाखंडो से ही
विचारों की श्रृंखला जुड़ती है।
फिर नवश्रृंगार का आलम होता है
प्रकृति श्रृंगार प्रसाधनों को जुटाती है,
फिर से हरा-भरा होने के लिए।
हाँ-- इसलिए, मैं ठहर जाना चाहती हूँ।

- सुजाता

 

(2)

 

वृक्ष


सावन से शुरू होती मेरी जिंदगी...
पतझड़ तक चलती जाती है ।
इस बीच कितने धूल-धक्के खाती हूँ ।
कितने रंग- रूप देखती हूँ,
वल्लरी से फूल बनती जाती हूँ,
मैं सयान होती जाती हूँ ।
फिर यौवन की लहर लगती है...
मैं मदमत हो उठती हूँ ।
भौंरे भिनभिनाते हैं,
मैं इठलाती हूँ...
हरीतिमा(मेहँदी), पियरी(हल्दी), लालिमा(कुमकुम)...
मेरे श्रृंगार का नव आलम...
अहा !
फूल और अब फल
मेरे आंगन किलकारियों की गूंज,
मैं बलैयां लेती न थकती ।
परम सौभाग्य !
आनंदित...
कुछ पल यूँ ही बीत जाते हैं ।
......
अपने जीवन के अंतिम क्षणों में,
मैं दुनिया को विदा कह जाती हूँ ।
मेरी शाखाएँ वहीं रहती है...
नए आवरण धारण करने के लिए ।
फिर, एक नई शुरुआत के लिए ।

--- सुजाता

ई-मेल :  99sujata@gmail.com

Back

 
Post Comment
 
 
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश