मैं हर मन्दिर के पट पर अर्घ्य चढ़ाती हूँ,
भगवान एक पर मेरा है!
मन्दिर मन्दिर में भेद न कुछ मैं पाती,
है सिद्धि जहाँ साधना वहीं पर आती,
मन की महिमा जिसके आगे झुक जाती,
वाणी वर का अभिषेक वहीं पर पाती,
मैं हर पूजन अर्चन पर शीश झुकाती हूँ,
अभिमान एक पर मेरा है!
कलियों फूलों पर किरनें प्यार लुटातीं,
नभ से आतीं, माटी-कन में छा जातीं,
पर क्या कलियों-फूलों में ही बस जातीं!
सूरज की किरनें सूरज के सँग जातीं,
मैं किरन-किरन की श्री पर प्यार लुटाती हूँ,
दिनमान एक पर मेरा है!
मन ही तो शाश्वत स्नेह, प्रेम का बन्धन,
आगे तन की गति क्रिया व्यर्थ का क्रन्दन,
यह पूजा-भक्ति-प्रार्थना-नत अभिनन्दन,
मन की महिमा गरिमा का करते वन्दन,
मैं हर अशीष मन को स्वीकार कराती हूँ,
वरदान एक पर मेरा है!
-सुमित्रा सिनहा