साधु—'तुम आज भिक्षा के लिए नहीं गई?’
साध्वी—'आर्य! मेरा आज उपवास है।‘
साधु—'क्यों?’
साध्वी—'मोह का इलाज कर रही हूँ। तुम्हारा क्या हाल है?’
साधु –'मैं भी उसी का इलाज कर रहा हूँ। तुमने क्यों प्रव्रज्या (संन्यास-दीक्षा) ग्रहण की?’
साध्वी—‘पति के मर जाने से। तुमने?’
साधु—'मैंने पत्नी के मर जाने से।’
साधु ने उसे स्नेह भरी नजर से देखा।
साध्वी—'क्या देख रहे हो?’
साधु—'दोनों की तुलना कर रहा हूँ। हँसने, बोलने और सौंदर्य में तुम मेरी पत्नी से बिल्कुल मिलती-जुलती हो। तुम्हारा दर्शन मेरे मन में मोह पैदा करता है।’
साध्वी—'मेरा भी यही हाल है।’
साधु—'वह मेरी गोद में सिर रखकर मर गई। यदि वह मेरी अनुपस्थिति में मरती तो शायद देवताओं को भी उसके मरने का विश्वास न होता। तुम वह कैसे हो सकती हो?’
(जैन ग्रंथ)