जब हम अपना जीवन, जननी हिंदी, मातृभाषा हिंदी के लिये समर्पण कर दे तब हम किसी के प्रेमी कहे जा सकते हैं। - सेठ गोविंददास।

विश्वास (कथा-कहानी)

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Author: सतीशराज पुष्करणा

पत्नी लम्बे समय से बीमार पड़ी थी। लाख यत्न करने पर भी चिकित्सक उसे रोगमुक्त नहीं कर पा रहे थे। पति परेशान था। पत्नी की पीड़ा वह दूर नहीं कर सकता था और उसका रोग शय्या पर इस तरह पड़ा रहना वह और नहीं झेल सकता था। वह क्या करे, क्या न करे? इसी उधेड़बुन में सड़क पर चलते जाते उसने सोचा, ऐसे जीवन से उसे या रोगिनी को भी क्या लाभ हो रहा है!  इससे तो अच्छा है - पत्नी को जीवन से ही मुक्त कर दिया जाए और उसने जहर की एक शीशी खरीद ली। घर पहुँचा। पत्नी ने लेटे-लेटे मुस्कराकर पूछा, “आ गए?"

“हाँ,” वह बोला, “तुम दवा ले लो।”

"इतनी दवाइयाँ रखी हैं, किसी से भी कुछ लाभ तो हुआ नहीं। मैं नहीं खाऊँगी अब कोई भी दवा। "

पति बोला, "आज मैं तुम्हारे लिए बहुत अच्छी दवा लाया हूँ। इससे तुम अच्छी हो जाओगी।"

पत्नी पुनः मुस्कराई, "तुम नहीं मानोगे! अच्छा लाओ! अब तुम मुझे जहर भी दे दो, तो पी लूँगी।”

उसी क्षण पति के हाथ से शीशी छूटकर जमीन पर गिरकर चूर-चूर हो गई।

-डॉ सतीशराज पुष्करणा

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