एप्रिल फूल आज है साथी,
आओ, तुमको मूर्ख बनाऊँ;
मैं भी हँसू, हँसो कुछ तुम भी,
फिर तुम मैं, मैं तुम बन जाऊँ।
खामखाह की इस दुनिया में
मूरखता का है कौन ठिकाना;
हम भी मूरख, तुम भी मूरख,
मूरख है यह सकल जमाना।
फिर भी देखो, अजब तमाशा,
सभी यहाँ ज्ञानी बनते हैं;
देखो, ये मिट्टी के पुतले
कितने अभिमानी बनते हैं।
मोटे-मोटे पोथे पढ़कर
कोई तो पंडित बनता है;
कोई उछल-कूद चिल्लाकर
सब सद्गुणमंडित बनता है।
अपनी अपनी डफली लेकर
अपनी अपनी तान सुनाते;
सत्य धर्म का पन्थ यही है,
डंडे से लेकर बतलाते।
क्या जाने यह सत्य धर्म का
मार्ग इन्होंने कैसे जाना;
नित्य चिरन्तन रूप सत्य का
क्या जाने कैसे पहचाना।
फिर भी अपनी ओर खींचते,
अद्भुत है यह खैंचातानी;
आप धरम का मरम न जाने,
औरों के हित बनते ज्ञानी।
कौतुक देखो, राह बताने--
वाले ये भी तो अंधे हैं;
अजब तमाशा है दुनिया के
ये अद्भुत गोरखधन्धे हैं।
धर्मों के ये अजब झमेले,
तू-तू मैं-मैं अजब मची है;
आपस में डंडे चलते हैं,
विधि ने अद्भुत सृष्टि रची है।
धन्यवाद है उस ईश्मा को
जिसे हाथ जोड़े जाते हैं;
लेकर जिसका नाम परस्पर
सर तोड़े-फोड़े जाते हैं।
मानवता के बीच खड़ी हैं
ये कैसी दुर्गम दीवारें;
पागलखानों से पगलों की
आती, कैसी विकट पुकारें।
मेरा धर्म सभी से अच्छा,
पगले जोरों से चिल्लाते;
ये बहिश्त के ठेके वाले
आपस में ही छुरे चलाते।
अग्नि सदा पैदा होगी ही
जितने देते जाओ रगड़े;
हम मनुष्य, ये भी मनुष्य हैं,
आपस के ये कैसे झगड़े?
आओ साथी, हम-तुम हिल-मिल
विमल प्रेम के नाते जोड़ें;
‘तत्त्व धर्म का निहित गुफा में’
उसकी सारी झंझट छोड़े।
छोड़ें सारे बम्ब-बखेडे,
आपस में मिल मोद मनाएँ,
एप्रिल फूल आज है साथी,
आओ, हम-तुम हँसे-हँसाएँ।
- प्रो० मनोरंजन