जब हम अपना जीवन, जननी हिंदी, मातृभाषा हिंदी के लिये समर्पण कर दे तब हम किसी के प्रेमी कहे जा सकते हैं। - सेठ गोविंददास।

मन की बात (कथा-कहानी)

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Author: मनीष खत्री

एक माँ-बेटी थीं। बेटी जवान हो रही थी, लेकिन उसका विवाह नहीं हो पा रहा था। विधवा वृद्धा माँ इसी चिंता में घुली जा रही थी। जवान बेटी घर से बाहर जाती तो माँ उसकी चौकसी करती। बेटी को यह पसंद नहीं था।

संयोग की बात थी कि दोनों को नींद में चलने और बड़बड़ाने की आदत थी। एक रात दोनों नींद में उठ गई और सड़क पर चलने लगीं। माँ नींद में जोर-जोर से लड़की को गालियाँ दे रही थी इस दुष्ट के कारण मेरा जीना हराम हो गया है। यह जवान हो रही है और मैं बुढ़ापे से दबी जा रही हूँ।' बाजू की सड़क पर लड़की भी नींद में चल रही थी और बड़बड़ा रही थी-‘यह दुष्ट बुढिया मेरा पीछा छोड़ती ही नहीं। जब तक यह जीवित है, तब तक मेरा जीवन नरक है।' तभी मुरगे ने बाँग दी। चिड़िया चहचहाने लगीं और ठंडी बयार बहने लगी। बूढ़ी माँ ने बेटी को देखा। वह प्यार भरे स्वर में बोली, "आज इतनी जल्दी उठ गई। कहीं सर्दी न लग जाए। ऐसे दबे पाँव उठी कि मुझे पता ही नहीं चला।” बेटी ने माँ को देखा तो झुककर उसके पैर छू लिये। माँ ने बेटी को गले से लगा लिया। तब बेटी उलाहने के स्वर में बोली, "माँ, कितनी बार कहा कि इतनी सुबह मत उठा करो मैं पानी भर दूँगी और घर साफ कर दूँगी। तुम बूढ़ी हो। बीमार पड़ गई तो क्या होगा? माँ, तुम ही तो मेरा एकमात्र सहारा हो। इतनी मेहनत करना ठीक नहीं है। आखिर मैं किसलिए हूँ!"

माँ-बेटी नींद में क्या कह रही थीं और जागने पर क्या कह रही थीं? नींद तो झूठ है, सपना झूठ है। नींद में चलना तो रोग है, लेकिन बात एकदम उलटी है। जो नींद में कह रही थीं, वही सच था जो जागने पर कह रही हैं, वह एकदम झूठ है। मन में गहरी दबी बातें भी नींद में बाहर आ जाती हैं। सज्जन व्यक्ति सुप्तावस्था में वही करते हैं, जो दुर्जन लोग जाग्रत् अवस्था में किया करते हैं।

-मनीष खत्री
[प्रेरक लघुकथाएँ]

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