जब हम अपना जीवन, जननी हिंदी, मातृभाषा हिंदी के लिये समर्पण कर दे तब हम किसी के प्रेमी कहे जा सकते हैं। - सेठ गोविंददास।

एक मिट्टी दो रंग (कथा-कहानी)

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Author: ओ. हेनरी

एक ही मकान के ऊपर-नीचे की कोठरियों में श्रीमती फिंक और श्रीमती केसिडी रहती थीं। साथ रहने से उन दोनों में दोस्ती हो गयी थी। एक दिन श्रीमती फिंक जब अपनी सहेली श्रीमती केसिडी के पास पहुँचीं, तो उस समय वह शृंगार कर रही थीं। शृंगार के बाद गर्व प्रदर्शन करते हुए श्रीमती केसिडी ने पूछा-- क्यों, मैं अच्छी लग रही हूँ न आज ?

श्रीमती फिंक ने देखा, सहेली की मूँदी आँखों के चारों ओर हरे, किंतु हल्के निशान थे, नीचला ओंठ फट गया था, जहाँ से अब भी आहिस्ता-आहिस्ता खून बह रहा था और उनकी सुराहीनुमा गर्दन पर भी नाखून से नोचे जाने के निशान मौजूद थे। उसी क्षण श्रीमती फिंक बोलीं-नहीं, मेरे पति महोदय ऐसा कभी नहीं कर सकते ! इतना सुनते ही श्रीमती केसिडी बोलीं--नहीं के क्या मानी? मैं तो इस विचार की हूँ कि हर पत्नी को अपने पति से हफ्ते में एक बार जरूर मार खानी चाहिए, क्योंकि दाम्पत्य प्रेम की कसौटी यही है। मुझे मेरे पति जेक ने अभी कल ही पीटा है और इस हफ्ते भर उम्मीद है कि वह मुझे अपनी पुतलियों पर उठाये रखेगा और पाउडर, क्रीम तथा स्नो की कौन कहे, वह मुझे सिनेमा ले जाएगा और मनपसंद कपड़ों से लाद देगा।

-- चाहे कुछ भी हो जाए, श्रीमती फिंक बोलीं--मगर मेरे पति कभी मुझपर हाथ नहीं उठायेंगे, इसलिए कि वह बड़े नेक हैं।

-- सच तो यह है कि तुम मुझसे ईर्ष्या कर रही हो,-- श्रीमती केसिडी व्यंग-सने शब्दों में बोलीं-- असल में तुम्हारा पति बूढ़ा जो ठहरा। उसे अखबार और साहित्य-अध्ययन से छुट्टी मिले, तब तो प्यार करे? अरी, सच्ची बात क्यों छुपाती है?

-- तुम ठीक कहती हो, लेकिन यह कभी संभव नहीं कि वह मुझे पीटेंगे।

इतना सुनते ही श्रीमती केसिडी खिलखिलाकर हँस पड़ीं। फिर श्रीमती फिंक को अपनी कालर के नीचे का वह घाव दिखाया, जो भरा नहीं था। घाव देखते ही श्रीमती फिंक का चेहरा सफेद हो गया और फिर ईर्ष्या की रेखाएँ उभर आयीं। वह बोलीं- अच्छा, बताओ, चोट तुम्हें लगती है या नहीं?

--लगती है, श्रीमती केसिडी खुशी बिखेरती हुई-- बोलीं-- लेकिन जब भी जेक मुझे दोनों हाथों से पीटता है, तो इसकी क्या कीमत अदा करता है जानती हो? उसके एक हाथ में होते हैं बहुमूल्य रेशमी कपड़े और दूसरे में मन लुभानेवाले शृंगार के सामन। कहो, कैसी रही कीमत?

-- लेकिन क्यों पीटता है वह तुझे? - श्रीमती फिंक उत्सुक होकर पूछने लगीं।

-- कैसी पगली है तू? यह भी नहीं मालूम तुझे ? वह बार से जब चढ़ाकर आता है, तभी ऐसी हरकत करता है।

- मगर उसके ऐसा करने का कोई कारण तो होगा अवश्य ?

- इसलिए कि मैं उसकी रखेल हूँ। जब वह खूब पीये होता है, तो उस समय हाथ उठाने के लिए मेरे सिवा और दूसरी औरत कहाँ से मिलती? और मुझे जब भी किसी चीज की जरूरत महसूस होती है, मैं वैसी हरकत कर बैठती हूँ कि वह मुझपर हाथ उठा दे। यही कल रात में हुआ। रेशमी कपड़े की मुझे जरूरत थी और आज देखना कि वह मेरे लिए रेशमी कपड़े लेकर आता है या नहीं? चाहो तो बाजी लगा सकती हो। न हो, रही आइसक्रीम की ही बाजी, क्यों?

श्रीमती फिंक थोड़ी देर के लिए विचार में डूब गयीं। बाद में फिर उतरे स्वर में बोलीं-- वह मुझे नहीं पीटता। इसी कारण न तो कभी उसके साथ सिनेमा ही देख पाती हूँ और न सैर को ही साथ ले जाता है मुझे कभी। जो चीज़ माँगती हूँ, तुरंत लाकर दे देता है। सचमुच, इसमें लुत्फ कतई नहीं।

इतना सुनना था कि श्रीमती फिंक की कमर से श्रीमती केसिडी जा लिपटीं, फिर कहने लगीं तुम बड़ी अभागिन हो। जेक सा पति सबको कैसे मिलेगा? सभी स्त्रियाँ वैसा पति पाने लगें, तो उनके विवाह आनन्दमय न हो जाएँ?

हर दुखिया यही चाहती है कि उसका पति उसे मारे-पीटेऔर इच्छित वस्तुएँ दे, जैसे, चुम्बन, चाकलेट,टाफी, आदि।

तभी दरवाजा खुला और मिस्टर जेक ने हाथ में एक सुन्दर बंडल लिए हुए प्रवेश किया। श्रीमती केसिडी उन्हें देखते ही श्रानन्द-विभोर होकर लिपट गयीं।

हाथ का बंडल मिस्टर जेक ने टेबुल पर रखा, फिर केसिडी को अपने अंक में भरते हुए कहा-- यह रहे सिनेमा के टिकट !.... ओह, श्रीमती फिंक? नमस्ते! माफ कीजिएगा, मैंने आपको देखा नहीं। हाँ, मिस्टर मार्टिन अच्छे तो हैं?

-- मजे में हैं, श्रीमती फिंक बोलीं-- अब मैं चलती हूँ, क्योंकि मार्टिन के लंच का समय हो गया है।— और दरवाजे तक बिदा देने के लिए आयी मिसेज केसिडी से उन्होंने फिर कहा मैं तुम्हारे उपाय को कल काम में लाकर देखती हूँ।

और श्रीमती फिंक जब अपने कमरे में पहुँची, तो उनका कलेजा बिना किसी कारण के फटा जा रहा था। सच तो यह है कि औरत जाति को आँसू बहाने के लिए कोई ख़ास कारण ढूँढ़ने की जरूरत कभी नहीं पड़ती। वह सोचने लगीं, मेरा मार्टिन केसिडी के पति मिस्टर जेक से किसी भी चीज में उन्नीस नहीं। वह भले ही मुझे नहीं पीटता, मगर मेरी चिंता कम नहीं करता। वह कभी नहीं लड़ता। घर पहुँचा, चुपचाप खाना खा लिया और जुट गया अध्ययन में हलाँकि वह नेक इन्सान है, मगर उसे कहाँ मालूम कि पत्नी किस चीज़ की भूखी है ?.... और वह डूब गयीं विचारों में।

मिस्टर मार्टिन ठीक सात बजे आए। श्रीमती फिंक खाना परोसकर लायीं और पूछने लगीं--खाना अच्छा बना है न?

--मिस्टर मार्टिन हँसने लगे और खाना खाकर अपने अध्ययन कक्ष में चले गए।

दूसरा दिन इतवार था। श्रीमती फिंक सुबह ही अपनी सहेली श्रीमती केसिडी के पास जा पहुँचीं। श्रीमती केसिडी रेशमी कपड़ों में सोलह वर्षीया बालिका के सदृश लग रही थीं। खुशी से आँखें चमक रही थीं और मुस्कान ओंठों पर खेल रही थी। दम्पति इतवार के दिन का प्रोग्राम बना रहे थे। श्रीमती फिंक के मन में उन्हें देखते ही ईर्ष्या की एक लहर मचल उठी। वह वापस अपने कमरे में चली आयीं और फुसफुसाने लगीं, कितने सुखी हैं वे! कैसा आनन्दमय दाम्पत्य प्रेम है! ऐसा मालूम पड़ता है, मानो सुख का ख़जाना केसिडी पा गयी हो। इसके मानी क्या हुए? यही न कि अन्य पति भी अपनी पत्नी की मरम्मत में कसर नहीं रखते और ऐसा हर परिवार आनन्द के सागर में नहाता रहता है। ठीक है, मैं उसे दिखा दूँगी !

हफ्ते भर का कपड़ा बाल्टी में साफ करने के लिए रखा हुआ था। मार्टिन बेचारे अपने अध्ययन कक्ष में साहित्य पढ़ने में लीन थे। उन्हें देख श्रीमती पिंक ने अपने-आपसे कहा, मुझे अगर वह नहीं पीटेगा, तो मैं कोई ऐसी तरकीब करूँगी कि उसे बाध्य होकर मुझपर अपना पुरुषार्थ लादना पड़े।

और मिस्टर मार्टिन थे कि रसोई घर से मीठी-मीठी पकवानों की आरही सुगंध का मजा चखते हुए साहित्यिक संसार में भटक रहे थे। पत्नी को पीटने की कल्पना उनके मन में स्वप्न में भी नहीं आ सकती थी।

और तभी ऊपरी मंजिल से श्रीमती केसिडी के हँसने की आवाज आयी। श्रीमती फिक कपड़ा धोने की तैयारी कर रही थीं। उन्हें लगा, जैसे उनपर व्यंग कसा गया है। और इस विचार के उठते ही श्रीमती फिंक आपे से बाहर होकर अपने पति के कमरे में जा पहुँचीं। बोलीं-- हुह: ! मैं कोई घोबन हूँ, जो इन सारे कपड़ों को मैं ही धोऊँ? एक मैं हूँ कि कपड़ा पीटते-पीटते परेशान हुईं जा रही हूँ और एक तुम हो कि बेफिक्र बैठे सिगरेट धूक रहे हो ! काहिल कहीं के! तुम इन्सान हो या हैवान?

पत्नी द्वारा अचानक किये गये इन तीव्र प्रहारों से मार्टिन को बड़ा अचंभा हुआ। हाथ के अखबार को एक और सरका वह चुपचाप पत्नी को देखने लगे।

उन्हें यों चुप्पी साधे देख श्रीमती फिंक मन-ही-मन सोचने लगीं, क्या इतने तीखे व्यंग को भी यह पी जाएगा! क्या पीटे जाने के लिए यही कदम काफी नहीं है?

मार्टिन जब इतने पर भी एक बुत की तरह बन रहे, तो श्रीमती कि उन्हें एक घूसा भी जमा बैठीं।

मार्टिन के आश्चर्य की सीमा न रही। वह तत्क्षण खड़े हो गये। श्रीमती फिंक ने आव देखा न ताव और धर दबायी पति की गर्दन, फिर मार खाने की आशा में, उनकी आँखें आप ही बन्द हो गयीं।

उस समय ऊपर की मंजिल पर श्रीमती केसिडी शृंगार में लगी थीं। उन्होंने सुना कि नीचे कोई झगड़ रहा है। जेक आश्चर्यचकित होकर बोले-- मार्टिन और उनकी पत्नी के बीच झगड़ा तो नहीं हुआ कभी। अच्छा, मैं नीचे चलकर देखता हूँ कि बात आख़िर क्या है?

श्रीमती केसिडी की आँखों में एक ज्योति चमक उठी। वह बोलीं-- ठहरो, मैं खुद देख आती हूँ जाकर कि बात क्या है आखिर?

श्रीमती केसिडी दौड़ती हुई जीने उतर गयीं। श्रीमती फिंक उन्हें देखते ही उनसे लिपट गयीं।

-- मार्टिन ने पीटा है न ? –-श्रीमती केसिडी ने प्रसन्नता जाहिर करते हुए पूछा।

श्रीमती फिंक चुप। उन्हें रो देने की इच्छा हो रही थी। दूसरे क्षण वह सचमुच फूट-फूटकर रोने लगीं। श्रीमती फिंक के सिर पर प्यार से हाथ फेरती हुई श्रीमती केसिडी ने पूछा--अरी, बोलती क्यों नहीं। उन्होंने तुझे पीटा है या नहीं? -- फिर स्वयं उनके शरीर को गौर से देखा, तो कहीं भी मार के निशान नज़र नहीं आये। श्रीमती फिक की आँखों में मगर जो झड़ी लगी थी, वह बन्द नहीं हो पा रही थी और चेहरे पर सफ़ेदी पुत गयी थी।

बाद में श्रीमती फिंक श्रीमती केसिडी के उभरे उरोजों पर अपना सिर टेक हिचकियाँ लेती हुई कहने लगीं-- नहीं-नहीं, दरवाजा अभी मत खोलो! तुझे कसम है मेरी, किसी से मत कहना यह सब! मार्टिन ने मुझे नहीं मारा, उल्टे वहाँ नल पर हफ्ते भर का कपड़ा स्वयं धो रहा है।

[ A Harlem Tragedy by O. Henry - अंग्रेजी से अनु० देवेन्द्र बिसुनपुरी ]

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