हिंदी भारतीय संस्कृति की आत्मा है। - कमलापति त्रिपाठी।

बूट पॉलिश (कथा-कहानी)

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Author: बसवराज कट्टीमनी

'पॉलिश बूट पॉलिश ...

रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, सिनेमा थिएटर, नाटक-गृह, होटल, चाय की दुकान आदि के पास आपने मेरी यह आवाज सुनी है। आपको ऊबा देने वाली मेरी यह आवाज परिचित होगी। आप चाहे अपनी नवोढ़ा के साथ उपवन में हँसते-हँसते बातचीत करते बैठे हों, दैनिक अखबार पढ़ते रेलगाड़ी की प्रतीक्षा में चाहे बैठे रहें, टिकट खरीदने चाहे क्यू में खड़े हों, जल्दी-जल्दी ट्रेन से चाहे उतर आते हों, भूख के मारे खाने के लिए चाहे दौड़ते जाते रहे हों, मैं यह सब कुछ नहीं देखता। मेरा उद्देश्य एक ही है बूट पॉलिश मेरा लक्ष्य एक ही है एक आने की कमाई।

मेरी आवाज कानों में पड़ते ही आप अपना मुँह उस ओर घुमाते हैं, भौंहें चढ़ाते हैं, नजर तेज करते हैं। उस नज़र-तीर की मार से मैं डरने वाला नहीं हूँ। उसका मैं आदी हो गया हूँ। आपकी कड़ी आवाज से मना करने पर भी मैं बिना हिचकिचाए नीचे बैठकर बूटों की ओर हाथ बढ़ाता हूँ, फिर बिलकुल अदब से कहता हूँ, 'ज्यादा नहीं हुजूर, एक ही आना सिर्फ अच्छा पॉलिश करता हूँ । आईने की तरह जगमगा देता हूँ।' फिर अपने बगल में लटकने वाली थैली नीचे रखकर उसमें से ब्रुश, पॉलिश की डिबिया निकालकर तैयार हो जाता हूँ। ऐसे मौके पर किसी को भी 'पॉलिश करा लें' लगे बिना नहीं रहेगा । 'एक आना तो, कौन-सी बड़ी रकम देनी है?' सोचकर 'अच्छा' कहकर अपने जूते खोलकर देते हैं। वहीं बैठकर मैं अपना काम शुरू कर देता हूँ। पहले उन पर लगी धूल 'को पोंछना, फिर पॉलिश करना। ब्रुश को दाहिने हाथ में, जूते को बाएँ हाथ में लेकर जोर से रगड़ना । तब आपको मेरे हाथ की दौड़ की रफ़्तार देखते खड़े रहने में एक तरह का मजा आयगा । जूते पर ब्रुश रगड़ता हुआ मेरा हाथ कैसे दौड़ता है! किसी कलाकार को उसे देखकर सिर नीचे झुकाना होगा। यह कला यों ही करगत होती है? उसके लिए भी अनुभव चाहिए महाशय, अनुभव इस विद्या के भीतर के सारे रहस्य मालूम रहने चाहिए।

मेरा कुम्हलाया मुँह, गन्दे कपड़े देखकर, मेरी उम्र का अनुमान करके, न कहियेगा, 'इसे क्या बड़ा अनुभव है!' अपनी उम्र के पाँचवें वर्ष से अब तक दस बरस बूट पॉलिश के बिना मेरा दूसरा काम ही नही रहा है। बूट पॉलिश माने मैं, माने बूट पॉलिश। यहाँ तक कि मै अपने उद्योग में घुल-मिल गया हूँ। मेरे लिए इसे छोड़कर दूसरी दुनिया ही नही है। बूट पॉलिश की दुनिया मेरी दुनिया है । उसे छोड़कर मेरे लिए कोई चारा ही नही।

आपको आश्चर्य होता होगा? अचरज करने की जरूरत नही हुजूर। उसका कोई कारण नही है। इस संसार में अपना मैं ही हूँ। माता-पिता का मुँह मैने नहीं देखा। मै नही जानता मेरी माँ कौन है, मेरे पिता कौन है? जब मैने होश सँभाला, मुझे एक भिखमंगाा पाल रहा था। मेरे जैसे दस-बारह अनाथ बच्चे भी उसके साथ थे। नगर के बाहर एक धर्मशाला मे हम सभी रहते थे। सभी लड़कों का काम एक ही था : बूट पॉलिश। सुबह से लेकर शाम तक जो कुछ कमाते थे वह उसके पास देते थे । वह हम सबको खाना खिलाता था। उसका नाम भी मैं नही जानता। बेचारा, बूढ़ा, खाँसी की बीमारी से जर्जरित होकर हमेशा बिस्तर पर पड़ा रहता था। उसी हालत मे वह उठता, धर्मशाला के एक कोने मे रहे पत्थर के चूल्हे पर चावल पकाता, दोपहर को हमारे लौटने तक खाना तैयार रखता था । हम सबको अपने पुत्रो की तरह मानकर प्यार से खिलाता था। हम सब उसे 'दादा' कहकर पुकारते थे। एक दिन वह इस दुनिया से चल बसा। हम फिर अनाथ हो गए। हमारा समूह तितर-बितर हो गया। हम सबने अपने पैरों पर आप खड़े होकर जीना सीखा।

एक दिन की बात है। वह दिन अब भी याद है । मेरा जी अच्छा नही था । शरीर गर्म हुआ था। 'आज काम पर मत जाना बेटा, आराम से सो जाओ !' कहकर दादा ने मुझे एक बोरे पर सुलाया था। मै एक बोरा ओढ़कर बुखार से भारी हुई आँखें मूंदकर सोया था। मेरे बगल मे बैठ, मेरे माथे पर हाथ फेरते हुए बूढा दादा कह रहा था- 'बुखार से तुम यहाँ पड़े हो। तुम्हारी माँ अब कहाँ है? कितना सुख पाती होगी ? कौन जाने?..."

वही पहली बार थी कि मुझे मालूम हुआ कि मेरी माँ जी रही है । जैसे सबकी एक माँ होती है वैसे मेरी भी एक माँ जरूर होगी, इतना ही मैं जानता था। लेकिन मैने समझा था कि मेरे जन्मते ही वह मर गई होगी, मेरे पिता भी मर गए होगे। लेकिन मेरी माँ नही मरी थी, जीवित है, सुख से दिन बिता रही है, यह जानते ही मेरा हृदय घोर आवाज से पुकारने लगा। माँ मेरी माँ मुझे उससे मिलना ही चाहिए। उसकी गोद में मुँह छिपाकर सोना चाहिए। 'कहाँ है मेरी माँ दादा?' मैने पूछा।

बूढ़ा मेरे सिर के बालों में उँगलियाँ फिराता हुआ, सान्त्वना के स्वर मे बोला, 'कहाँ है किसको मालूम? वह है, इतना तो सच है।'

'तुमने उसको देखा था क्या दादा?"

'नहीं बेटा। देखा होता तो तुम यहाँ क्यों रहते इस हालत में? कुछ-न-कुछ व्यवस्था होती।'

बूढ़े ने न जाने और क्या-क्या कहा वह सब मैं नहीं समझ सका। मेरी माँ अभी कुमारी ही थी, तब कहते हैं किसी ने उसको बिगाड़ा । फलस्वरूप मैं पैदा हुआ। कहते हैं कि वह समाज से डरकर मुझ शिशु को हनुमान के मन्दिर में रखकर चली गई। वह सब किसी गाँव में हुई घटना। मन्दिर के पास रहने वाले इस दादा ने मुझे देख, तरस खाकर पाला-पोसा । तब उसके पास दो बूढ़े भिक्षुक दम्पति थे। उन्होंने मुझे अपने बेटे की तरह देखा। उस भिखारिन का स्तन पान करके ही मैं बड़ा हुआ। कुछ दिनों के बाद वह भी मर गई।

मैंने पूछा- 'मेरी माँ मुझे वैसे क्यों छोड़ गई दादा?'

'वह सब तुम नहीं समझ सकते बेटा। बड़ों के घर में कभी-कभी ऐसा हुआ करता है। वह सब तुम मत सोचो। चुपचाप सो जाओ बेटा। तुमको ज्यादा बुखार चढ़ा है।'

'वह मेरी माँ अब भी जिन्दा होगी दादा?"

'जरूर होगी। किसी और से शादी करके सुख से रहती होगी।'

'मेरी याद उसको होगी दाद ?"

'जरूर होनी चाहिए। उस दिन समाज के डर से इस तरह तुमको छोड़कर जाना पड़ा। लेकिन माँ का कलेजा तरसे बिना रहेगा बेटा? आज भी वह तुम्हारी याद करती होगी । तुम्हारे लिए रोती होगी।'

दादा की बातों से मेरा दुःख उमड़ आया था। कभी न देखी हुई उस माँ की याद करके बिलख-बिलख रोया था। 'मेरी माँ "दादा, मेरी माँ को देखना चाहिए। कुछ भी करो, मेरी माँ की तलाश करो।' इस तरह कहकर गिड़गिड़ाया था।

उस दिन से मुझ पर अपनी माँ को देखने की सनक सवार थी। बूट पॉलिश करते यहाँ-वहाँ घूमता, तब किसी स्त्री का आँचल दिखाई पड़ता तो उस स्त्री का चेहरा आतुरता से देखता रहता। नन्हें-मुन्ने बालकों को गोद में उठाकर रेलगाड़ी में चढ़ने वाली सुहागिनों को जब कभी देखता तब मेरा हृदय भर आता। उनमें कोई मेरी माँ तो नहीं होगी, इस आशा से उनकी ओर टकटकी लगाकर खड़ा देखता रहता। रेशम की साड़ी पहनकर खूब सज-धजकर सिनेमा जाने वाली स्त्रियों को देखता तो लगता कि उनमें कोई मेरी माँ जरूर हो सकती है।

एक दिन इस तरह नाटक-गृह के दरवाजे पर जब खड़ा था तब मध्यम आयु के पति-पत्नी मोटरकार से उतरे। लगता था कि वे बहुत अमीर हैं। दरवाजे के कोने में खड़े होकर आशाभरी दृष्टि से उस स्त्री को देख रहा था। उसकी नज़र भी अचानक मेरी ओर फिरी लगा कि वह किसी को खोज रही है। मेरा दिल धड़कने लगा। वह मुझे देख रही है। गौर वर्ण के उस सुन्दर गोल-गोल भरे चेहरे पर कैसी ममता बड़ी-बड़ी उन सुन्दर आँखों में कितना प्यार कभी खोये हुए अपने बच्चे को देखते ही खींचकर उसको उठा लेने वाली माँ की तरह ही वह मेरी ओर ताक रही है। आनन्द से मेरा सारा शरीर पुलकित हुआ हो, आखिर मिल गई मेरी माँ प्रभु ने कृपा की। मेरी माँ को मुझे लौटा दिया। माँ मेरी माँ हाय! कितने दिनों से तुम्हारी प्रतीक्षा में था तुम्हारी गोद में बैठकर तुम्हारे आँचल में सिर छिपा लेने के लिए उत्कण्ठित रहता माँ!

मैं वह अपना गन्दा कपड़ा, कुम्हलाया चेहरा, स्नान के बिना गन्दा हुआ शरीर, गन्दे बदबूदार बाल, ये सब तब भूल गया था। मैं इस होश में नहीं था कि मैं एक बूट पॉलिश करने वाला लड़का हूँ। प्यार की अद्भुत माया में मैं यह लोक ही भूल गया था और एक दूसरे सपने के लोक में जैसे विचरण करता था। कातरता से दोनों हाथ आगे पसारकर माँ को गले लगाने के लिए आगे बढ़ा।

वह एक मिनट जहाँ थी वहीं खड़ी रही। उसने मुझे कौतूहल से, करुणा से भी गौर से देखकर अपनी थैली में से एक रुपया निकालकर मेरे हाथ में दिया। पास में खड़ा उसका पति 'नाटक का समय हो गया' कहकर गड़बड़ी कर रहा था। वह मेरी ओर एक बार फिर करुणा से देखकर एक उसाँस छोड़कर धीरे से चली गई।

मैं स्वप्नलोक से जैसे धप्प करके गिर गया। मेरे दिल पर कड़ी चोट लगी थी। माता को दिखाकर, अत्यन्त आशा से प्रतीक्षा करने लगकर- अब क्या मिल गई सोच ही रहा था— इतने में उसे मुझसे दूर हटाकर विधि ने मेरा उपहास किया था। उस दिन मुझे लगा था कि यह जीवन बेकार है, यह जीवन नहीं चाहिए। उस स्त्री ने जो रुपया दिया था उसे नाले में – गटर में फेंककर चाय की दुकान के चबूतरे पर रोता लेटा था। 'सबकी एक माँ होती है, मेरी भी है, किन्तु मैं उसे देख नहीं सकता, उसके साथ नहीं रह सकता। हाय मैं कराह रहा था।

एक दूर की आशा बँधी थी कि नाटक समाप्त होने के बाद घर जाते समय वह मुझ पर तरस खाकर मुझे पहचान कर घर ले जायगी। उस रात को तीन बजे तक दरवाजे पर प्रतीक्षा में खड़ा रहा, लेकिन उसने मेरी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखा। पति के हाथ में हाथ डालकर हँसते-हँसते आकर वह तैयार खड़ी मोटर में बैठकर चली गई ।

उस रात को मुझे नीद ही नहीं आई, आने की सम्भावना भी नहीं थी। आँसू बहता हुआ पागल की तरह नगर की गली-गली का चक्कर काट रहा था। घूम घूमकर जब थकावट आई, तब रेलवे स्टेशन पर जाकर एक कोने में सो गया।

अब भी वह सनक मुझसे दूर नहीं हुई है। मैं जब कभी मध्यम आयु की महिला को देखता हूँ तब सोचता हूँ कि वह मेरी माँ तो नहीं है। यों सोचकर रोया करता हूँ माँ के होने पर भी वह मेरे नसीब में नहीं है। उसको याद करके रोने से कोई लाभ नहीं। मैं उसको देख नहीं सकता। वह भी मुझे देख नहीं सकती। मुझे देखने पर भी वह मुझे नहीं पहचान सकेगी कि मैं उसका पुत्र हूँ। मैंने अब तक हजारों महिलाओं को देखा है, उनमें एक शायद मेरी माँ होगी क्या ! लेकिन यह कैसे जानूं कि फलानी मेरी माँ है?

समझ गए न? मेरा कोई नहीं है इस संसार में मैं यह भी नहीं जानता कि मेरा नाम क्या है। मुझे बुलाने वाले 'ऐ बूट पॉलिश' कहकर ही पुकारते हैं। मेरा वही नाम रूढ़ हो गया है। सचमुच के अनाथ का कोई नाम कोई भी हो, उसमें क्या रखा है? माँ है, तो भी नहीं के बराबर नहीं जानता पिता कौन है? सब हो सकते हैं, मगर इस विचित्र लोक में मैं अनाथ हूँ। मुझे जिसने पैदा किया वह यह बात मानने के लिए तैयार नहीं इस लोक में मुझे जनने वाली माँ भी वह बात नहीं मान सकती इस लोक में मैं, मेरे-जैसे अनाथ हमारा जीवन, बहुत विचित्र जीवन कुत्तों का जीवन तो एक तरह से अच्छा है, हमारा तो उससे भी गया गुजरा है। पिल्ले तो अपने माँ-बाप के साथ रहते हैं। हमें तो वह भी नसीब नहीं। किस पाप के लिए हमें यह सजा? वह पाप भी क्या है जो हमने किया? हमारा जीना किसके लिए? तो भी हम जी रहे हैं। जीने के लिए यह लूट पॉलिश। इसीलिए वह मेरा सर्वस्व है। उसे छोड़ दिया जाय तो मेरा कुछ भी नहीं है। मेरी कोई आशा नहीं है, न कोई आकांक्षा।

'बूट पॉलिश बूट पॉलिश सिर्फ़ एक आना सर ज्यादा नहीं। पॉलिश... बूट पॉलिश!"

[कन्नड कहानी]

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