आओ ! आओ ! भारतवासी।
क्या बंगाली ! क्या मदरासी ! ॥
क्या पंजाबी ! क्या गुजराती ! ।
क्या सिंधी ! क्या पर्वतवासी ! ॥
हम हैं एकहि देश के वासी ।
एकहि बोली बोलैं खासी ॥
हिन्दी को सब मिलि अपनावै ।
वाहीको सब सीस नवावैं ॥
हिन्दी मेरी प्यारी प्यारी ।
नख सिख से लगती उँजियारी ॥
सुन्दर डोल सुडौल सुहाई ।
अंग अंग सुन्दरता छाई ॥
सिर में बेनी गुथी बनाई।
ओढ़नि तापर परम सुहाई ॥
पायन में पैजनिया भाई ।
सिर पर मुरछल चँवर ढुराई ॥
ऐसी हिन्दी महरानी की ।
देव नगर की सुख दानी को ॥
सरल स्वभाव दया खानी को ।
सत्यव्रती अखिला मानी की ॥
आओ हम सब मिलिके सारैं ।
तिलक हिन्द का और जुहारैं ॥
करैं पूरती भंडारे की।
दै दै तिन भेट यथा सक्ती ।
सम्मिलनी करके हिन्दी की ।
कह डालैं है जो कुछ जी की ॥
करि डालैं त्रुटि दूर सबै मिलि।
जामें हिन्दी राज्य चलै चलि ॥
राज काज में याहि चलावैं ।
सिक्कन पर भी याहि खुदावैं ॥
देिग दिगन्त में यश फैलावैं।
हिन्दी की जय ध्वजा उड़ावैं ॥
- बाबू जगन्नाथ, बी० ए०
[ प्रथम हिन्दी साहित्य सम्मेलन 10 अक्टूबर 1910 को बाबू जगन्नाथ बी० ए० द्वारा लिखा गया गीत जो सम्मेलन में स्कूल के विद्यार्थियों ने गाया था ]