हिंदी चिरकाल से ऐसी भाषा रही है जिसने मात्र विदेशी होने के कारण किसी शब्द का बहिष्कार नहीं किया। - राजेंद्रप्रसाद।

जब अन्तस में.... (काव्य)

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Author: विनय शुक्ल 'अक्षत'

जब अन्तस में पीड़ा हो, सन्नाटे हों
जब कहने को खुद से ही न बातें हों
जब पलकें बोझिल सी होने लगती हों
जब नदियाँ लहरों को खोने लगती हों
जब काँटें बन चुभते नर्म बिछौने हों
जब भविष्य के सारे सपने बौने हों।

तब समझोगे खुद को खुद में खोना क्या है?
और एक भावुक मन का कवि होना क्या है!

जब कोयल की कूक रास न आती हो
जब दीपक में बिना तेल की बाती हो
जब सच्चाई अँगारों पर चलती हो
जब उर में अनबुझी प्यास ही बढ़ती हो
जब मीरा के हाथों में विष प्याला हो
जब पागल सा मन ये कहीं निराला हो।

तब समझोगे खुद को खुद में खोना क्या है?
और एक भावुक मन का कवि होना क्या है!

जब रिश्तों में कड़वाहट सी होती हो
जब खो देने की आहट-सी होती हो
जब साँसों में बेचैनी बढ़ जाती हो
जब रातों को नींद  तुम्हें न आती हो
जब कोई ख्वाबों का बोझा ढोता हो
जब कोई अपना, ना अपना होता हो।

तब समझोगे खुद को खुद में खोना क्या है?
और एक भावुक मन का कवि होना क्या है!

- विनय शुक्ल 'अक्षत'
  गोंडा (उत्तर प्रदेश)
  ई-मेल: vs9919610@gmail.com

 

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