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 नया साल - भवानी प्रसाद मिश्र की कविता | Nav Varsh poem by Bhavani Prasad Mishra
भारत की सारी प्रांतीय भाषाओं का दर्जा समान है। - रविशंकर शुक्ल।
नया साल  (काव्य)  Click to print this content  
Author:भवानी प्रसाद मिश्र

पिछले साल नया दिन आया,
मैंने उसका गौरव गाया,
कहा, पुराना बीत गया लो,
आया सुख का गीत नया लो!

बोला, बीते को बिसार दें,
नये रूप पर जी निसार दें,
कहा, व्यथा अब गीत बनेगी,
हार पुरानी जीत बनेगी!

कहा, गये की बात अलग है,
और नये की बात अलग है,
कहा, निराशा छोड़ो आओ,
पिछले बंधन तोड़ी आओ,
आओ, नया उजाला लाएं
ऊपर-नीचे दाएं-बाएं,
कहा, जगत में भर दें आशा,
चुप-बैठों को दे भाषा!

मौत-मरी को दूर करें हम,
जग में सुख का पूर भरें हम,
अत्याचार हटा दें आओ,
जी से जान सटा दें आओ,
और न जाने क्या-क्या बोला
पिछली साल भवानी भोला!
चलने लगी समय की गाड़ी,
घी, तिरछी, सीधी आड़ी,
दिन पर दिन हफ़्ते पर हफ़्ता,
लगा बीतने रफ़्ता-रफ़्ता,
सूरज के जितने मनसूबे,
पूरब ऊगे पच्छिम डूबे,
मन किरनों को फिरता रहा,
नया अँधेरा घिरता रहा ।

लगे ऱोज झटके पर झटके,
सुख के गीत गले में अटके,
गीत अगर निकला तो कैसा,
मरघट में सियार का जैसा,
बम की चीख गीत का सम था
ओठों पर दुनियाँ का दम था!

आशा दबी निराशा बाढ़ी,,
ऐसी चली समय की गाड़ी,
गाड़ी के पहिये के नीचे,
नैन भवानी जी ने मीचे!

बारह बजे घड़ी में भाई,
मुँह पर उड़ने लगी हवाई
जैसे तैसे साल बिताया,
नया साल फिर से लो आया!
आप चाहते हैं कुछ बोलूँ,
नये साल का परदा खोलूँ,
इसकी आशा और निराशा,
को दे दूं कोई परिभाषा ।

अपना भाग मगर पोचा है,
अब के चुप रहना सोचा है,
हिम्मत नहीं कि बातें हाँकूँ
और बाद में बगलें झाँकूँ;
अब के इतना-भर कहना है,
अगर जेल ही में रहना है,
पढ़ो ज़रा कम, कातो ज्यादा,
खाओ थोड़ा सुथरा सादा ।

बाहर की खबरों के मारे,
रहो न हरदम जी में हारे,
क्योंकि तुम्हारा उस पर बस क्या,
जहाँ नहीं बस, उसमें रस क्या?
और अगर बाहिर हो जाओ
मत कि भीड़ ही में खो जाओ,
सोचो, समझो काम करो हे
मत हक़-नाहक़ नाम करो हे!

धँसो गाँव में बैठो जा कर,
एक ज़रा-सी कुटिया छा कर,
गले-गले तक दुख में डूबा,
है किसान जीवन से ऊबा,
धीरज उसको ज़रा बँधाओ,
अगर भाग से बाहर जाओ ।

- भवानी प्रसाद मिश्र

[ जनवरी, 1945 ]

 

 

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