मैं भेजना चाहता हूँ नए वर्ष की शुभकामनाएँ दिसंबर की उजली धूप की बची-खुची सद्भावनाएँ किंतु कौन स्वीकार करेगा मेरे उदास मन की भावनाएँ क्योंकि मेरे प्रियजन जानते हैं आजकल मैं निराश मन हूँ हताश तन हूँ।
रात भर बहुत कम सोता हूँ सुबह अखबार पढ़ने के बाद गुसलखाने में अक्सर रोता हूँ दिसंबर की गुनगुनी धूप को अखबार की खतरनाक खबरें जनवरी की बर्फीली रातों में बदल देती हैं और अपने भाई के लिए स्वेटर बुन रही बहन से सलाइयाँ छीन लेती हैं।
खैर, मैं नए वर्ष की शुभकामनाएँ उसी बहन को भेजता हूँ जो अपने भाई का स्वेटर पूरा करने के लिए नई सलाइयाँ खरीद लाती है रेहड़ी के मार्केट से और मन ही मन कितने घुर्रे गिराती है कितने घुर्रे उठाती है
मैं अपनी शुभकामनाएँ जरूर भेजूँगा किंतु उसे कभी नहीं बताऊँगा उसका भाई अब कभी नहीं आएगा और उसके हाथों से बुनी स्वेटर को कभी पहन नहीं पाएगा क्योंकि वह अब न दिल्ली में न पंजाब में है न भोपाल में न किसी दंगे में न किसी जहरीली गैस के मृत्यु-जाल में और न ही नए वर्ष की शुभकामनाओं के इंतजार में
फिर भी मैं अपनी शुभकामनाएँ उस लड़की को भेजता हूँ जो लोगों के दुख सुनती है और सुख बुनती है भोपाल के हमीदिया अस्पताल में एक डॉक्टर है मरीजों की आँखों पर पट्टी बाँधती एक नर्स है जिसकी आँखों में एक नीहार भरा तर्क है जिन्हें उनका एक समकालीन नए वर्ष की शुभकामनाएँ नहीं भेजना चाहता वह सिर्फ चाहता है कि वे अपने गुसलखानों को टटोलें
-कुमार विकल
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