हिंदी चिरकाल से ऐसी भाषा रही है जिसने मात्र विदेशी होने के कारण किसी शब्द का बहिष्कार नहीं किया। - राजेंद्रप्रसाद।
दूसरी दुनिया का आदमी | लघुकथा (कथा-कहानी)  Click to print this content  
Author:रोहित कुमार 'हैप्पी'

वो शक्ल सूरत से कैसा था, बताने में असमर्थ हूँ। पर हाँ, उसके हाव-भावों से ये पूर्णतया स्पष्ट था कि वो काफी उदास और चिंतित था।

मैंने इंसानियत के नाते पूछ लिया क्या बात है? बहुत उदास दिखाई देते हो। कुछ मदद चाहिए क्या?

'हाँ, मैं उसके लिए काफी चिंतित हूँ। जाने उसपर क्या बीती होगी...जाने कैसी होगी...' उसने एक लम्बी ठँडी आह भरते हुए कहा।

'वो..वो कौन?'

'वो जिससे मेरी शादी होने वाली थी। वो मुझसे बहुत प्यार करती थी और मैं भी उसे जी-जान से चाहता था।' वो अपनी कहानी सुनाए चला जा रहा था और मैं भी उसकी प्रेम कहानी में दिलचस्पी ले रहा था।

'फिर क्या हुआ?' मैं उसकी कहानी आगे सुनने को उत्सुक था।

'फिर क्या..उसके घर वाले नहीं माने। ---लेकिन हम एक-दूसरे के बिना नहीं रह सकते थे। एक दिन सुना कि उसके घर वालों ने जबरन उसकी शादी कहीं और तय कर दी।'

'फिर?'

'मैंने उसे मिलने की बहुत कोशिशें की पर.....'

'पर क्या.....' मैंने पूछा।

'पर मैं उसे मिल नहीं सका,' उसने गहरी साँस छोड़ते हुए कहा, 'और मैंने आत्म-हत्या कर ली।'

'...आत्म-हत्या....पर तुम तो....'

'अब मैं जीवित व्यक्ति नहीं हूँ।'

'क् क्या..मेरी उत्सुकता डर में बदल गई थी।

'डरो मत, मैं तुम्हें कोई नुकसान नहीं पहुँचाऊंगा। बस तुम मेरी थोड़ी-सी सहायता कर दो।'

'हाँ कहो' मैंने राहत की साँस ली।

'मैं उससे बहुत प्यार करता हूँ, उसकी चाहत ही मुझे इस रूप में भी यहाँ खींच लाई है। मैं सिर्फ जानना चाहता हूँ कि वो ठीक तो है! कहीं मेरे मरने की खबर सुनकर उसने भी ....और मेरे माँ-बाप... क्या तुम मेरी मदद करोगे?'

''अरे आज इतनी देर तक सो रहा है! उठ चाय-नाश्ता तैयार है।'' रसोई घर से माँ के तीखे स्वर ने मेरी नींद खोल दी।

'ओह, आया माँ!' मुझे उस दूसरी दुनिया के उस प्राणी से अपनी बातचीत अधूरी रह जाने का खेद था। काश! माँ ने 5-10 मिनट बाद आवाज लगाई होती तो कम से कम उसे इतना तो बता देता कि - 'हे भाई, बेवजह परेशान हो रहे हो। यहाँ सब कुशल ही होंगे। तुम्हारे माँ-बाप भी ठीक-ठाक होंगे। और तुम्हारी वो... वो भी तुम्हें भूल चुकी होगी। जानते नहीं, शादी के बाद स्त्री का एक तरह से पुनर्जन्म होता है और वैसे भी हम धरती के लोग मरे हुओं को याद करना अपशकुन मानते हैं। ---और भूल से भी कहीं अपने घर या उसके घर ना जा पहुँच जाना। तुम जिनके लिए इतने उदास और चिंतित हो, वो 'भूत-भूत' चिल्लाएंगे तुम्हें देखकर, और दूर भागेंगे तुमसे।'

'अरे भइये, इस धरती के लोग यहीं के लोगों से प्यार निभा लें तो काफी है! तुम तो बहुत दूर जा चुके हो।' पर मुझे खेद है कि यह सब मैं उसे नहीं बता पाया।

- रोहित कुमार 'हैप्पी'
  संपादक, भारत-दर्शन, न्यूज़ीलैंड

 

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