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Literature Under This Category | ||
न्यूज़ीलैंड के दो द्वीप - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
न्यूज़ीलैंड दो द्वीपों में बंटा है - उत्तरी द्वीप व दक्षिण द्वीप। एक द्वीप से दूसरे द्वीप जाने के लिए हवाई यात्रा करें या समुद्री यात्रा - दोनों के बीच समुद्र होने के कारण थल-मार्ग नहीं है। |
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न्यूज़ीलैंड की हिंदी पत्रकारिता | FAQ - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
न्यूज़ीलैंड हिंदी पत्रकारिता - बारम्बार पूछे जाने वाले प्रश्न | FAQ |
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अमेरिका में हिंदी सर्वाधिक बोले जाने वाली भारतीय भाषा - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
अमेरिका जनगणना ब्यूरो ने अमरीका में बोली जाने वाली सभी भाषाओं के आंकड़े जारी किए हैं। |
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आपसी प्रेम एवं एकता का प्रतीक है होली - डा. जगदीश गांधी | ||
'होली' भारतीय समाज का एक प्रमुख त्यौहार |
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लालबहादुर शास्त्री - भारत-दर्शन संकलन | Collections | ||
भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर, 1904 को मुगलसराय, उत्तर प्रदेश के एक सामान्य निम्नवर्गीय परिवार में हुआ था। आपका वास्तविक नाम लाल बहादुर श्रीवास्तव था। शास्त्री जी के पिता शारदा प्रसाद श्रीवास्तव एक शिक्षक थे व बाद में उन्होंने भारत सरकार के राजस्व विभाग में क्लर्क के पद पर कार्य किया। |
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समाज के वास्तविक शिल्पकार होते हैं शिक्षक - डा. जगदीश गांधी | ||
सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन का जन्मदिवस 5 सितम्बर के अवसर पर विशेष लेख |
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शिक्षक एक न्यायपूर्ण राष्ट्र व विश्व के निर्माता हैं! - डा. जगदीश गांधी | ||
शिक्षक दिवस (5 सितम्बर) पर विशेष लेख |
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वैलेन्टाइन दिवस - डा. जगदीश गांधी | ||
संत वैलेन्टाइन को सच्ची श्रद्धाजंली देने के लिए 14 फरवरी |
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क्या महात्मा गांधी ने भगत सिंह व अन्य क्रांतिकारियों को बचाने का प्रयास किया था? - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
क्या महात्मा गांधी ने भगत सिंह व अन्य क्रांतिकारियों को बचाने का प्रयास किया था? उपरोक्त प्रश्न प्राय: समय-समय पर उठता रहा है। बहुत से लोगों का आक्रोश रहता है कि गांधी ने भगत सिंह को बचाने का प्रयास नहीं किया। |
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The Collected Work of Mahatma Gandhi - Vol 45 - Page 333 - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
The Collected Works of Mahatma Gandhi |
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गाँधी राष्ट्र-पिता...? - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
कुछ समय से यह मुद्दा बड़ा चर्चा में है, 'गाँधी को राष्ट्रपिता की उपाधि किसने दी?' |
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बच्चों को ‘विश्व बंधुत्व’ की शिक्षा - डा. जगदीश गांधी | ||
(1) विश्व में वास्तविक शांति की स्थापना के लिए बच्चे ही सबसे सशक्त माध्यम:- |
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हिन्दी भाषा की समृद्धता - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जीवन परिचय | Bharatendu Harishchandra Biography Hindi | ||
यदि हिन्दी अदालती भाषा हो जाए, तो सम्मन पढ़वाने के लिए दो-चार आने कौन देगा, और साधारण-सी अर्जी लिखवाने के लिए कोई रुपया-आठ आने क्यों देगा। तब पढ़ने वाले को यह अवसर कहाँ मिलेगा कि गवाही के सम्मन को गिरफ्तारी का वारण्ट बता दें। |
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पहले हम खुद ईमानदार बनें - डॉ. वेदप्रताप वैदिक | Dr Ved Pratap Vaidik | ||
दिल्ली सरकार बधाई की पात्र है कि उसने नागरिक अधिकार क़ानून को अब पहले से भी अधिक मजबूत बना दिया है। अब दिल्लीवासियों को 96 प्रकार के सरकारी कामों को निश्चित समय में पूरा करके दिया जाएगा। दिल्ली सरकार के 22 विभागों में फैली इन 96 प्रकार की सेवाओं से लाखों दिल्लीवासियों का रोज पाला पड़ता है। हर दिल्लीवासी की हैसियत ऐसी नहीं कि वह मुख्यमंत्री, मंत्री या सांसद-विधायक तक पहुंच सके। सरकारी कर्मचारी जान-बूझकर मामलों को लटकाए रखते हैं। आम आदमी रिश्वत देने को मजबूर हो जाता है। उसके सही काम भी सही समय पर नहीं होते। अब प्रावधान यह है कि अमुक काम अमुक समय में पूरा करके नागरिकों को देना होगा। यदि कर्मचारी उसे पूरा नहीं करेंगे तो उनके वेतन में से प्रतिदिन के हिसाब से कुछ न कुछ राशि काट ली जाएगी। 10-20 रू की राशि बहुत छोटी मालूम पड़ती है लेकिन वेतन-कटौती अपने आप में बड़ी सज़ा है। वह कर्मचारी के आचरण पर कलंक की तरह चिपक जाएगी। आशा की जानी चाहिए कि इस प्रावधान से आम लोगों को काफी राहत मिलेगी। लेकिन जब तक नागरिक लोग खुद पहल नहीं करेंगे, सरकार के इस कदम का कोई ठोस लाभ उन्हें नहीं मिलेगा। अपनी अर्जीयों के साथ वे यदि समयबद्धता की शर्त दर्ज नहीं कराएंगे तो कुछ भी नहीं होगा। उन्हें दृढ़ता दिखानी होगी। रिश्वतख़ोर और आलसी कर्मचारियों के विरूद्ध उनको काररवाई करनी होगी। तभी ठोस नतीजे सामने आएंगे। पिछले दो सौ साल से मौज-मस्ती छान रही नौकरशाही सिर्फ नियम-क़ायदों से पटरी पर नहीं आने वाली है। जनता को उसे अपना नौकर मानकर उसके साथ सख्ती से पेश आना होगा। इसके लिए यह भी जरूरी है कि लोग अपने आप को साफ-सुथरा रखें। गलत काम न करें। यदि जनता सही रास्ते पर चलेगी तो ही वह अफसरों से काम ले सकेगी। वरना समयावधि तय होने के बावजूद रिश्वत चलती रहेगी। हमारे अफसरों को बेईमानी की लत इसीलिए पड़ी है कि हमारे लोग पूरी तरह ईमानदार नहीं हैं। जरूरी है कि पहले हम खुद ईमानदार बनें। फरवरी 2012 - डॉ. वेदप्रताप वैदिक |
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न्यूजीलैंड : जहाँ सबसे पहले मनता है नया-वर्ष - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
अंतर्राष्ट्रीय दिनांक रेखा के करीब अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण, न्यूजीलैंड नए साल का स्वागत करने वाले दुनिया के पहले देशों में से एक है। अंत: न्यूजीलैंड में नया वर्ष दूसरे देशों से पहले मनाया जाता है। न्यूजीलैंड में नव-वर्ष और उससे अगले दिन सार्वजनिक अवकाश रहता है। |
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गिर जाये मतभेद की हर दीवार ‘होली’ में! - डा. जगदीश गांधी | ||
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प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन, नागपुर, भारत - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
पहला विश्व हिंदी सम्मेलन 10-12 जनवरी, 1975 को नागपुर, भारत में आयोजित किया गया था। |
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आज कबीर जी जैसे युग प्रवर्तक की आवश्यकता है - डा. जगदीश गांधी | ||
(1) आज कबीर जी जैसे युग प्रवर्तक की आवश्यकता है -
(3) इस नश्वर शरीर को एक दिन मिट्टी में ही मिल जाना है -
(4) आजीवन भेदभाव रहित समाज की स्थापना के लिए प्रयासरत् रहें -
कबीरदास जी जिस युग में आये वह युग भारतीय इतिहास में आधुनिकता के उदय का समय था। वह कर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे और उसकी झलक उनकी रचनाओं में साफ झलकती है। लोककल्याण हेतु ही मानो उनका समस्त जीवन था। कबीर दास जी एक सच्चे विश्व-प्रेमी थे। कबीर को जागरण युग का अग्रदूत कहा जाता है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि साधना के क्षेत्र में वे युग-युग के गुरू थे, उन्होंने संत काव्य का पथ प्रदर्शन कर क्षेत्र में नव-निर्माण किया था। कबीरदास जी अपने जीवन में प्राप्त की गयी स्वयं की अनुभूतियों को ही काव्यरूप में ढाल देते थे। उनका स्वयं का कहना था ‘‘मैं कहता आंखिन देखी, तू कहता कागद की लेखी।'' इस प्रकार उनके काव्य का आधार स्वानुभूति या यर्थाथ ही है। इसलिए अब वह समय आ गया है जबकि हम वर्तमान समाज में व्याप्त धर्म, जाति, रंग एवं देश के आधार पर बढ़ते हुए भेदभाव जैसी बुराइयों को जड़ से उखाड़ फेकें और संसार की समस्त मानवजाति में इंसानियत एवं मानवता की स्थापना के लिए कार्य करें। - डा. जगदीश गांधी, प्रख्यात शिक्षाविद् एवं |
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अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस (21 जून) - डा. जगदीश गांधी | ||
स्कूलों में बच्चों को ‘यौन शिक्षा' के स्थान पर ‘योग' एवं ‘आध्यात्म' की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाये!-डॉ. जगदीश गाँधी(1) 21 जून ‘अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस' के रूप में घोषित:- 27 सितंबर, 2014 को प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा में प्रस्ताव पेश किया था कि संयुक्त राष्ट्र को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की शुरुआत करनी चाहिए। संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपने पहले भाषण में मोदी ने कहा था कि ‘‘भारत के लिए प्रकृति का सम्मान अध्यात्म का अनिवार्य हिस्सा है। भारतीय प्रकृति को पवित्र मानते हैं।'' उन्होंने कहा था कि ‘‘योग हमारी प्राचीन परंपरा का अमूल्य उपहार है।'' यूएन में प्रस्ताव रखते वक्त मोदी ने योग की अहमियत बताते हुए कहा था, ‘‘योग मन और शरीर को, विचार और काम को, बाधा और सिद्धि को ठोस आकार देता है। यह व्यक्ति और प्रकृति के बीच तालमेल बनाता है। यह स्वास्थ्य को अखंड स्वरूप देता है। इसमें केवल व्यायाम नहीं है, बल्कि यह प्रकृति और मनुष्य के बीच की कड़ी है। यह जलवायु परिवर्ततन से लड़ने में हमारी मदद करता है।'' संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 21 जून, 2014 को अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाने को मंजूरी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रस्ताव के मात्र तीन महीने के अंदर दे दी। इसी के साथ भारत की सेहत से भरपूर प्राचीन विद्या योग को वैश्विक मान्यता मिल गई थी। भारत में वैदिक काल से मौजूद योग विद्या एक जीवन शैली है जिसे प्रधानमंत्री मोदी ने नया मुकाम दिलाया। (2) प्रस्ताव रिकार्ड समय और समर्थन से पारित :- संयुक्त राष्ट्र महासभा के 69वें सत्र में इस आशय के प्रस्ताव को लगभग सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया था। भारत के साथ रिकार्ड 177 सदस्य देश न केवल इस प्रस्ताव के समर्थक बने बल्कि इसके सह-प्रस्तावक भी बने। इस मौके पर संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने कहा था कि, ‘‘इस क्रिया से शांति और विकास में योगदान मिल सकता है। यह मनुष्य को तनाव से राहत दिलाता है।'' बान की मून ने सदस्य देशों से अपील की कि वे योग को प्रोत्साहित करने में मदद करें। यहाँ उल्लेखनीय है कि भारत में इससे पहले 2011 में हुए एक योग सम्मेलन में 21 जून को विश्व योग दिवस के तौर पर घोषित किया गया था। इस दिन को इसलिए चुना गया क्योंकि 21 जून साल का सबसे लंबा दिन होता है और समझा जाता है कि इस दिन सूरज, रोशनी और प्रकृति का धरती से विशेष संबंध होता है। इस दिन को किसी व्यक्ति विशेष को ध्यान में रख कर नहीं, बल्कि प्रकृति को ध्यान में रख कर चुना गया है। संयुक्त राष्ट्र में भारत के लिए पिछले सात सालों में यह इस तरह का दूसरा सम्मान है। इससे पहले यूपीए सरकार की पहल पर 2007 में संयुक्त राष्ट्र ने महात्मा गांधी के जन्मदिन यानि 2 अक्टूबर को अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के तौर पर घोषित किया था। |
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कौनसा हिंदी सम्मेलन? - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
आजकल दो हिंदी सम्मेलनों का आयोजन होता है। एक है विश्व हिंदी सम्मेलन (World Hindi Conference) और दूसरा है अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन (International Hindi Conference)। |
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जीवन सार - मुंशी प्रेमचंद | Munshi Premchand | ||
मेरा जीवन सपाट, समतल मैदान है, जिसमें कहीं-कहीं गढ़े तो हैं, पर टीलों, पर्वतों, घने जंगलों, गहरी घाटियों और खण्डहरों का स्थान नहीं है। जो सज्जन पहाड़ों की सैर के शौकीन हैं, उन्हें तो यहाँ निराशा ही होगी। मेरा जन्म सम्वत् १९६७ में हुआ। पिता डाकखाने में क्लर्क थे, माता मरीज। एक बड़ी बहिन भी थी। उस समय पिताजी शायद २० रुपये पाते थे। ४० रुपये तक पहुँचते-पहुँचते उनकी मृत्यु हो गयी। यों वह बड़े ही विचारशील, जीवन-पथ पर आँखें खोलकर चलने वाले आदमी थे; लेकिन आखिरी दिनों में एक ठोकर खा ही गये और खुद तो गिरे ही थे, उसी धक्के में मुझे भी गिरा दिया। पन्द्रह साल की अवस्था में उन्होंने मेरा विवाह कर दिया और विवाह करने के साल ही भर बाद परलोक सिधारे। उस समय मैं नवें दरजे में पढ़ता था। घर में मेरी स्त्री थी, विमाता थी, उनके दो बालक थे, और आमदनी एक पैसे की नहीं। घर में जो कुछ लेई-पूँजी थी, वह पिताजी की छ: महीने की बीमारी और क्रिया-कर्म में खर्च हो चुकी थी। और मुझे अरमान था, वकील बनने का और एम०ए० पास करने का। नौकरी उस जमाने में भी इतनी ही दुष्प्राप्य थी, जितनी अब है। दौड़-धूप करके शायद दस-बारह की कोई जगह पा जाता; पर यहाँ तो आगे पढ़ने की धुन थी-पाँव में लोहे की नहीं अष्टधातु की बेडिय़ाँ थीं और मैं चढऩा चाहता था पहाड़ पर! |
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प्रेमचंद के आलेख व निबंध - मुंशी प्रेमचंद | Munshi Premchand | ||
प्रेमचंद के साहित्य व भाषा संबंधित निबंध व भाषण 'कुछ विचार' नामक संग्रह में संकलित हैं। इसके अतिरिक्त 'साहित्य' का उद्देश्य में प्रेमचंद की अधिकांश सम्पादकीय टिप्पणियां संकलित हैं। |
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कुछ मीठे, कुछ खट्टे अनुभव : 10वां विश्व हिंदी सम्मेलन - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
विश्व हिंदी सम्मेलन भव्य था। इसकी सराहना भी हुई, विरोध भी, आलोचना भी और जैसा कि होता आया है यह विवादों से परे भी नहीं था। |
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विश्व हिंदी सम्मेलन : आदि से अंत - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
दसवां विश्व हिंदी सम्मेलन 10-12 सितंबर 2015 तक भोपाल में आयोजित किया गया। यह सम्मेलन 32 वर्ष पश्चात् भारत में आयोजित किया गया था। |
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हमारी इंटरनेट और न्यू मीडिया समझ - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
हमारी इंटरनेट और न्यू मीडिया समझ पर संकलित आलेख। |
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हमारे हिंदी पत्र समूहों की इंटरनेट समझ - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
दैनिक भास्कर (जून 16, 2015) में एक समाचार प्रकाशित हुआ, "EXCLUSIVE: भारत की साख पर GOOGLE का 'फन'। |
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जाने भी दो....चाँद में भी दाग होता है - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
कौन मेक्ग्रेगर, कौन वरान्निकोव? |
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भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जीवन परिचय | Bharatendu Harishchandra Biography Hindi | ||
आज बड़े आनंद का दिन है कि छोटे से नगर बलिया में हम इतने मनुष्यों को एक बड़े उत्साह से एक स्थान पर देखते हैं। इस अभागे आलसी देश में जो कुछ हो जाए वही बहुत है। बनारस ऐसे-ऐसे बड़े नगरों में जब कुछ नहीं होता तो हम यह न कहेंगे कि बलिया में जो कुछ हमने देखा वह बहुत ही प्रशंसा के योग्य है। इस उत्साह का मूल कारण जो हमने खोजा तो प्रगट हो गया कि इस देश के भाग्य से आजकल यहाँ सारा समाज ही एकत्र है। राबर्ट साहब बहादुर ऐसे कलेक्टर जहाँ हो वहाँ क्यों न ऐसा समाज हो। जिस देश और काल में ईश्वर ने अकबर को उत्पन्न किया था उसी में अबुलफजल, बीरबल,टोडरमल को भी उत्पन्न किया। यहाँ राबर्ट साहब अकबर हैं जो मुंशी चतुर्भुज सहाय, मुंशी बिहारीलाल साहब आदि अबुलफजल और टोडरमल हैं। हमारे हिंदुस्तानी लोग तो रेल की गाड़ी है। यद्यपि फर्स्ट क्लास, सैकेंड क्लास आदि गाड़ी बहुत अच्छी-अच्छी और बड़े-बड़े महसूल की इस ट्रेन में लगी है पर बिना इंजिन सब नहीं चल सकती वैसी ही हिंदुस्तानी लोगों को कोई चलाने वाला हो तो ये क्या नहीं कर सकते। इनसे इतना कह दीजिए 'का चुप साधि रहा बलवाना' फिर देखिए हनुमानजी को अपना बल कैसा याद आता है। सो बल कौन याद दिलावे। हिंदुस्तानी राजे-महाराजे, नवाब, रईस या हाकिम। राजे-महाराजों को अपनी पूजा, भोजन, झूठी गप से छुट्टी नहीं। हाकिमों को कुछ तो सरकारी काम घेरे रहता है कुछ बाल-घुड़दौड़, थियेटर में समय लगा। कुछ समय बचा भी तो उनको क्या गरह है कि हम गरीब, गंदे, काले आदमियों से मिल कर अपना अनमोल समय खोवें। बस यही मसल रही - |
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कहानी कला - 2 | आलेख - मुंशी प्रेमचंद | Munshi Premchand | ||
एक आलोचक ने लिखा है कि इतिहास में सब कुछ यथार्थ होते हुए भी वह असत्य है, और कथा-साहित्य में सब कुछ काल्पनिक होते हुए भी वह सत्य है। |
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स्वामी विवेकानन्द का विश्व धर्म सम्मेलन, शिकागो में दिया गया भाषण - स्वामी विवेकानंद | ||
स्वामी विवेकानंद ने 11 सितंबर 1893 को शिकागो (अमेरिका) में हुए विश्व धर्म सम्मेलन में एक बेहद चर्चित भाषण दिया था। विवेकानंद का जब भी जि़क्र आता है उनके इस भाषण की चर्चा जरूर होती है। पढ़ें विवेकानंद का यह भाषण... |
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भारतीय संविधान विश्व में अनूठा - डा. जगदीश गांधी | ||
भारतीय संविधान सारे विश्व में "विश्व एकता" की प्रतिबद्धता |
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फीजी में हिंदी - विवेकानंद शर्मा | फीजी | ||
फीजी के पूर्व युवा तथा क्रीडा मंत्री, संसद सदस्य विवेकानंद शर्मा का हिंदी के प्रति गहरा लगाव था । फीजी में हिंदी के विकास के लिए वह निरंतर प्रयत्नशील रहे। |
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हिंदी पत्रकारिता में भाषा की शुद्धता - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
पत्रकारिता में भाषा की पकड़, शब्दों का चयन व प्रस्तुति बहुत महत्वपूर्ण है। पत्रकारिता में निःसंदेह समाचार की समझ, भाषा की शुद्धता व वाक्य विन्यास आवश्यक तत्व हैं। |
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हिन्दी का स्थान - राहुल सांकृत्यायन | Rahul Sankrityayan | ||
प्रान्तों में हिन्दी |
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विंग कमांडर अभिनंदन - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
विंग कमांडर अभिनंदन वर्तमान (Wg Cdr V Abhinandan) भारतीय वायुसेना के पायलट हैं। आपका जन्म-दिवस 21 जून को होता है। |
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चन्द्रदेव से मेरी बातें | निबंध - बंग महिला राजेन्द्रबाला घोष | ||
बंग महिला (राजेन्द्रबाला घोष) का यह निबंध 1904 में सरस्वती में प्रकाशित हुआ था। बाद में कई पत्र-पत्रिकाओं ने इसे 'कहानी' के रूप में प्रस्तुत किया है लेकिन यह एक रोचक निबंध है। |
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आपने मेरी रचना पढ़ी? - हजारीप्रसाद द्विवेदी | ||
हमारे साहित्यिकों की भारी विशेषता यह है कि जिसे देखो वहीं गम्भीर बना है, गम्भीर तत्ववाद पर बहस कर रहा है और जो कुछ भी वह लिखता है, उसके विषय में निश्चित धारणा बनाये बैठा है कि वह एक क्रान्तिकारी लेख है। जब आये दिन ऐसे ख्यात-अख्यात साहित्यिक मिल जाते हैं, जो छूटते ही पूछ बैठते हैं, 'आपने मेरी अमुक रचना तो पढ़ी होगी?' तो उनकी नीरस प्रवृत्ति या विनोद-प्रियता का अभाव बुरी तरह प्रकट हो जाता है। एक फिलासफर ने कहा है कि विनोद का प्रभाव कुछ रासायनिक-सा होता है। आप दुर्दान्त डाकू के दिल में विनोद-प्रियता भर दीजिए, वह लोकतंत्र का लीडर हो जायगा, आप समाज सुधार के उत्साही कार्यकर्ता के हृदय में किसी प्रकार विनोद का इंजेक्शन दे दीजिए, वह अखबार-नवीस हो जायेगा और यद्यपि कठिन है, फिर भी किसी युक्ति से उदीयमान छायावादी कवि की नाड़ी में थोड़ा विनोद भर दीजिए, वह किसी फिल्म कम्पनी का अभिनेता हो जायेगा। |
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न्यूज़ीलैंड की भारतीय पत्रकारिता - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
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मेरी कथायात्रा - कृष्णा सोबती | ||
अपनी साहित्यिक यात्रा में मुझे न किसी को पछाड़ने की फ़िक्र रही और न किसी से पिछड़ने का आतंक। इरादा सिर्फ इतना कि लिखते रहो, अपने कदमों से बढ़ते रहो, अपनी राह पर। जो देखा है, जाना है, जिया है, पाया है, खोया है, उसके पार निगाह रखो। एक व्यक्ति के निज के आगे और अलग भी एक और बड़ी दुनिया है। उसे मात्र जानने की नहीं, अपने पर उतारने की समझ जगाओ। तालीम बढ़ाओ। फिर जो उजागर हो, उसे समेट लो! याद रहे यह कि जो तुम हो, उसे ही संवेदन का मानदंड समझ लेना काफी नहीं। जो तुमने झेला है, संघर्ष उतना ही नहीं। अपनी सीमाओं और क्षमताओं पर आँख रखते हुए- सफल और विफल के झमेलों को भूल, अथक परिश्रम और चौकसी ही कृतित्व को कृतार्थ करती है। अपने पांव तले की एक छोटी सी ज़मीन पर खड़े होकर, एक बड़ी दुनिया से साक्षात्कार करती है। लेखक में प्रतिभा कितनी है- इसे जांचने-मापने का काम आलोचक के जिम्मे है। |
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मैं लेखक कैसे बना - अमृतलाल नागर | ||
अपने बचपन और नौजवानी के दिनों का मानसिक वातावरण देखकर यह तो कह सकता हूँ कि अमुक-अमुक परिस्थितियों ने मुझे लेखक बना दिया, परंतु यह अब भी नहीं कह सकता कि मैं लेखक ही क्यों बना। मेरे बाबा जब कभी लाड़ में मुझे आशीर्वाद देते तो कहा करते थे कि ''मेरा अमृत जज बनेगा।'' कालांतर में उनकी यह इच्छा मेरी इच्छा भी बन गई। अपने बाबा के सपने के अनुसार ही मैं भी कहता कि विलायत जाऊँगा और जज बनूँगा। |
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जापान का हिंदी संसार - सुषम बेदी - सुषम बेदी | ||
जैसा कि कुछ सालों से इधर जगह-जगह विदेशों में हिंदी के कार्यक्रम शुरू हो रहे हैं उसी तरह से जापान में भी पिछले दस-बीस साल से हिंदी पढ़ाई जा रही होगी, मैंने यही सोचा था जबकि सुरेश रितुपर्ण ने टोकियो यूनिवर्सिटी ऑफ फॉरन स्टडीज़ की ओर से विश्व हिंदी सम्मेलन का आमंत्रण भेजा। वहाँ पहुंचने के बाद मेरे लिए यह सचमुच बहुत सुखद आश्चर्य का विषय था कि दरअसल जापान में हिंदी पढ़ाने का कार्यक्रम 100 साल से भी अधिक पुराना है और वहां सन 1908 से हिंदी पढ़ाई जा रही है। आखिर हम भूल कैसे सकते हैं कि जापान के साथ भारत के सम्बन्ध उस समय से चले आ रहे हैं जब छठी शताब्दी में बौद्ध धर्म का वहां आगमन हुआ। यह जरूर है कि सीधे भारत से न आकर यह धर्म चीन और कोरिया के ज़रिये यहां आया। इस विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी भी बहुत सम्पन्न है। वहां लगभग 60-70 हजार के क़रीब हिंदी की पुस्तकें और पत्रिकाएँ हैं। |
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अमरीका में हिंदी : एक सिंहावलोकन - सुषम बेदी | ||
जब से अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने (जनवरी 2006) यह घोषणा की है कि अरबी, हिंदी, उर्दू जैसी भाषाओं के लिए अमरीकी शिक्षा में विशेष बल दिया जाएगा और इन भाषाओं के लिए अलग से धन भी आरक्षित किया गया तो यह समाचार सारे संसार में आग की तरह फैल गया था। यहाँ तक कि फरवरी 2007 को भी डिस्कवर लैंग्वेजेस महीना घोषित किया गया। अमरीकी कौंसिल आन द टीचिंग आफ फारन लैंग्वेजेस नामक भाषा शिक्षण से जुड़ी संस्था ने विशेष रूप से राष्ट्रपति बुश के संदेश को प्रसारित करते हुए बताया है कि देश भर में कई तरह से स्कूलों और कालेजों के प्राध्यापक भाषाओं के वैविध्य को मना रहे हैं। सच तो यह है कि दुनिया को चाहे अब जा के पता चला हो कि इन भाषाओं को पढ़ाया जाएगा, इस दिशा में काम तो बहुत पहले से ही हो रहा था। |
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लिखी कागद कारे किए - प्रभाष जोशी | ||
सिडनी से ही ब्रिसबेन गया था और भारत को आस्ट्रेलिया से एक रन से हारते देखकर लौट आया था। सिडनी में भारत का मैच पाकिस्तान से होना था और फिर क्रिकेट के दो सबसे पुराने प्रतिद्वन्द्वियों इंग्लैंड और आस्ट्रेलिया का मुकाबला था। यानी काम के दिन दो थे और सिडनी में टिकना सात दिन था। |
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आत्मकथ्य : बालेश्वर अग्रवाल - बालेश्वर अग्रवाल | ||
जीवन के नब्बे वर्ष पूरे हो रहे हैं आज जब मैं यह सोच रहा हूँ, तो ध्यान में राष्ट्रकवि स्व. श्री माखन लाल चतुर्वेदी की प्रसिद्ध कविता 'पुष्प की अभिलाषा' की पक्तियां याद आ रही है। |
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प्रशांत में हिंदी - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
यूँ तो प्रशांत में अनेक देश, द्वीप और द्वीपीय देश हैं। हम जब 'प्रशांत में हिंदी' की बात करते हैं तो हम न्यूज़ीलैंड, फीजी और ऑस्ट्रेलिया पर केंद्रित हैं। यहाँ इस विषय पर चर्चा करेंगे कि प्रशांत के इन देशों में हिंदी शिक्षण, साहित्य, पत्रकारिता और मनोरंजन के संसाधनों और उपलब्धता की क्या स्थिति है। |
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रोनाल्ड स्टुअर्ट मेक्ग्रेगॉर - विदेशी हिंदी सेवी - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
रोनाल्ड स्टुअर्ट मेक्ग्रेगॉर का जन्म न्यूजीलैंड में 1929 में हुआ था। मेक्ग्रेगॉर के माता-पिता स्कॉटिश थे। बचपन में मेक्ग्रेगॉर को किसी ने फीजी से प्रकाशित हिंदी व्याकरण की एक पुस्तक भेंट की थी। इसी के फलस्वरूप उनका हिंदी की ओर रूझान हो गया। |
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हिंदी में आगत शब्दों के लिप्यंतरण के मानकीकरण की आवश्यकता - विजय कुमार मल्होत्रा | ||
इसमें संदेह नहीं कि आज हिंदी पत्रकारिता का क्षेत्र बहुत व्यापक होता जा रहा है, मुद्रण से लेकर टी.वी. चैनल और इंटरनैट तक मीडिया के सभी स्वरूपों में नये-नये प्रयोग किये जा रहे हैं। टी.वी. चैनल के मौखिक स्वरूप में हिंदी के साथ अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग बहुत सहज लगता है, क्योंकि मौखिक बोलचाल में आज हम हिंदी के बजाय हिंगलिश के प्रयोग के आदी होते जा रहे हैं, लेकिन जब वही बात अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में मुद्रित रूप में सामने आती हैं तो कई प्रश्न उठ खड़े होते हैं। अर्थ का अनर्थ होने के खतरे भी सामने आ जाते हैं। ध्वन्यात्मक होने की विशेषता के कारण हम जो भी लिखते हैं, उसी रूप में उसे पढ़ने की अपेक्षा की जाती है। इसी विशेषता के कारण देवनागरी लिपि को अत्यंत वैज्ञानिक माना जाता है। उदाहरण के लिए taste और test दो शब्द हैं। अंग्रेज़ी के इन शब्दों को सीखते समय हम इनकी वर्तनी को ज्यों का त्यों याद कर लेते हैं। इतना ही नहीं put और but के मूलभूत अंतर को भी वर्तनी के माध्यम से ही याद कर लेते हैं। Calf, half और psychology में l और p जैसे silent शब्दों की भी यही स्थिति है। कुछ विद्वान् तो अब हिंदी के लिए रोमन लिपि की भी वकालत भी करने लगे हैं। ऐसी स्थिति में अंग्रेज़ी के आगत शब्दों के हिंदी में लिप्यंतरण पर गंभीरता पूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। |
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‘हम कौन थे, क्या हो गए---!’ - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
किसी समय हिंदी पत्रकारिता आदर्श और नैतिक मूल्यों से बंधी हुई थी। पत्रकारिता को व्यवसाय नहीं, ‘धर्म' समझा जाता था। कभी इस देश में महावीर प्रसाद द्विवेदी, गणेशशंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, महात्मा गांधी, प्रेमचंद और बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन' जैसे लोग पत्रकारिता से जुड़े हुए थे। प्रभाष जोशी सरीखे पत्रकार तो अभी हाल ही तक पत्रकारिता का धर्म निभाते रहे हैं। कई पत्रकारों के सम्मान में कवियों ने यहाँ तक लिखा है-- |
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गांधीजी को महात्मा की उपाधि किसने दी? - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
गांधीजी को भारत ही नहीं पूरा विश्व ‘महात्मा गांधी' कहता है। पिछले कई वर्षों में यह प्रश्न बार-बार पूछा गया है कि गांधी जी को ‘महात्मा' की उपाधि किसने दी। उन्हें महात्मा की उपाधि ‘किसने, कब और कहाँ दी' इस विषय में कई लोगों ने सूचना के अधिकार (RTI) के अंतर्गत भी यह प्रश्न उठाया। |
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बदलते विश्व में बदलता भारत - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
कहा जाता है, ‘परिवर्तन सृष्टि का नियम है।‘ परिवर्तन और अनित्यता को समझ लेना ही ज्ञान प्राप्त करना है। जीवन में जन्म से लेकर मृत्यु तक क्या हम परिवर्तन का ही मार्ग तय करते हैं? या कहें कि हम एक नियत प्रवृत्ति के साक्षी बनते हैं कि इस संसार में सब कुछ नश्वर और क्षणभंगुर है। जो पैदा हुआ, वह मरता भी है। एक बालक युवा होता है, प्रौढ़ होता है, फिर वृद्ध जीवन जीकर मृत्यु को प्राप्त होता है। यही जीवन है। |
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"हिन्दू" शब्द की व्युत्पत्ति - महावीर प्रसाद द्विवेदी | Mahavir Prasad Dwivedi | ||
किसी-किसी का मत है कि हिन्दू शब्द नदीवाचक सिन्धु शब्द का अपभ्रंश है और इंडस (Indus) अर्थात सिन्धु-शब्द से ही अँगरेजी शब्द इंडिया (India) की उत्पत्ति है। किसी-किसी का मत है कि अरबी हिन्द शब्द से अँगरेजी शब्द इंडिया निकला है। कोई कोई पंडित हिन्दू शब्द की सिद्धि संस्कृत व्याकरण से करते हैं और कहते हैं कि वह हिसि + दो + धातुओं से बना है और हीन अर्थात् बुरे या कुमार्गगामी लोगों को दोष या दराड देने वाले आर्यों का नाम है। बहुत आदमी हिन्दू शब्द को फ़ारसी भाषा का शब्द मानते हैं और उसका अर्थ चोर, डाकू, राहजन गुलाम, काला, काफिर आदि करते हैं। फ़ारसी में हिन्दू शब्द ज़रूर है और अर्थ भी उसका अच्छा नहीं है। इसी से इस शब्द के अर्थ की तरफ़ लोगों का इतना ध्यान गया है। सिन्धु से हिन्दू हो जाना या पुराने जमाने में हिन्दुओं को तुच्छ दृष्टि से देखने वाले मुसलमानों का, उनके लिए काफिर और ग़ुलाम आदि अर्थों का वाचक शब्द प्रयोग करना, कोई विचित्र बात भी नहीं। परन्तु पंडित धर्मानन्द महाभारती न तो इन अर्थों में से किसी अर्थ को मानते हैं और न हिन्दू-शब्द की आज तक प्रसिद्ध व्युत्पत्ति ही को क़बूल करते हैं। आपने पुरानी व्युत्पत्ति और पुराने अर्थ को गलत साबित करके हिन्दू शब्द की उत्पत्ति और अर्थ एक नए ही ढंग से किया है। आपने इस विषय पर, तीन चार वर्ष हुए, बॅगला भाषा में एक लेखमालिका निकाली थी। उसके उत्तर अंश का मतलब हम यहां पर, संक्षेप में, देते है-- |
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ऑकलैंड | नोर्थ आइलैंड, न्यूज़ीलैंड - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
आइए, इस बार हम आपको ऑकलैंड की सैर करवा दें। |
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मैं नास्तिक क्यों हूँ? - भगत सिंह | ||
एक नई समस्या उठ खड़ी हुई है - क्या मैं किसी अहंकार के कारण सर्वशक्तिमान सर्वव्यापी तथा सर्वज्ञानी ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करता हूँ? मैंने कभी कल्पना भी न की थी कि मुझे इस समस्या का सामना करना पड़ेगा। लेकिन अपने दोस्तों से बातचीत के दौरान मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मेरे कुछ दोस्त, यदि मित्रता का मेरा दावा गलत न हो, मेरे साथ अपने थोड़े से संपर्क में इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए उत्सुक हैं कि मैं ईश्वर के अस्तित्व को नकार कर कुछ जरूरत से ज्यादा आगे जा रहा हूँ और मेरे घमंड ने कुछ हद तक मुझे इस अविश्वास के लिए उकसाया है। जी हाँ, यह एक गंभीर समस्या है। मैं ऐसी कोई शेखी नहीं बघारता कि मैं मानवीय कमजोरियों से बहुत ऊपर हूँ। मैं एक मनुष्य हूँ और इससे अधिक कुछ नहीं। कोई भी इससे अधिक होने का दावा नहीं कर सकता। एक कमजोरी मेरे अंदर भी है। अहंकार मेरे स्वभाव का अंग है। अपने कामरेडों के बीच मुझे एक निरंकुश व्यक्ति कहा जाता था। यहाँ तक कि मेरे दोस्त श्री बी.के. दत्त भी मुझे कभी-कभी ऐसा कहते थे। कई मौकों पर स्वेच्छाचारी कहकर मेरी निन्दा भी की गई। कुछ दोस्तों को यह शिकायत है, और गंभीर रूप से है, कि मैं अनचाहे ही अपने विचार उन पर थोपता हूँ और अपने प्रस्तावों को मनवा लेता हूँ। यह बात कुछ हद तक सही है, इससे मैं इनकार नहीं करता। इसे अहंकार भी कहा जा सकता है। जहाँ तक अन्य प्रचलित मतों के मुकाबले हमारे अपने मत का सवाल है, मुझे निश्चय ही अपने मत पर गर्व है। लेकिन यह व्यक्तिगत नहीं है। ऐसा हो सकता है कि यह केवल अपने विश्वास के प्रति न्यायोचित गर्व हो और इसको घमंड नहीं कहा जा सकता। घमंड या सही शब्दों में अहंकार तो स्वयं के प्रति अनुचित गर्व की अधिकता है। तो फिर क्या यह अनुचित गर्व है जो मुझे नास्तिकता की ओर ले गया, अथवा इस विषय का खूब सावधानी के साथ अध्ययन करने और उस पर खूब विचार करने के बाद मैंने ईश्वर पर अविश्वास किया? यह प्रश्न है जिसके बारे में मैं यहाँ बात करना चाहता हूँ। लेकिन पहले मैं यह साफ कर दूँ कि आत्माभिमान और अहंकार दो अलग-अलग बातें हैं। |
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मैं नास्तिक क्यों हूँ? - भाग 2 - भगत सिंह | ||
न्यायशास्त्र के सर्वाधिक प्रसिद्ध विद्वानों के अनुसार, दंड को अपराधी पर पड़ने वाले असर के आधार पर, केवल तीन-चार कारणों से उचित ठहराया जा सकता है। वे हैं प्रतिकार, भय तथा सुधार। आज सभी प्रगतिशील विचारकों द्वारा प्रतिकार के सिद्धांत की निंदा की जाती है। भयभीत करने के सिद्धांत का भी अंत वही है। केवल सुधार करने का सिद्धांत ही आवश्यक है और मानवता की प्रगति का अटूट अंग है। इसका उद्देश्य अपराधी को एक अत्यंत योग्य तथा शांतिप्रिय नागरिक के रूप में समाज को लौटाना है। लेकिन यदि हम यह बात मान भी लें कि कुछ मनुष्यों ने (पूर्व जन्म में) पाप किए हैं तो ईश्वर द्वारा उन्हें दिए गए दंड की प्रकृति क्या है? तुम कहते हो कि वह उन्हें गाय, बिल्ली, पेड़, जड़ी-बूटी या जानवर बनाकर पैदा करता है। तुम ऐसे 84 लाख दंडों को गिनाते हो। मैं पूछता हूँ कि मनुष्य पर सुधारक के रूप में इनका क्या असर है? तुम ऐसे कितने व्यक्तियों से मिले हो जो यह कहते हैं कि वे किसी पाप के कारण पूर्वजन्म में गदहा के रूप में पैदा हुए थे? एक भी नहीं? अपने पुराणों से उदाहरण मत दो। मेरे पास तुम्हारी पौराणिक कथाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। और फिर, क्या तुम्हें पता है कि दुनिया में सबसे बड़ा पाप गरीब होना है? गरीबी एक अभिशाप है, वह एक दंड है। मैं पूछता हूँ कि अपराध-विज्ञान, न्यायशास्त्र या विधिशास्त्र के एक ऐसे विद्वान की आप कहाँ तक प्रशंसा करेंगे जो किसी ऐसी दंड-प्रक्रिया की व्यवस्था करे जो कि अनिवार्यतः मनुष्य को और अधिक अपराध करने को बाध्य करे? क्या तुम्हारे ईश्वर ने यह नहीं सोचा था? या उसको भी ये सारी बातें-मानवता द्वारा अकथनीय कष्टों के झेलने की कीमत पर - अनुभव से सीखनी थीं? तुम क्या सोचते हो। किसी गरीब तथा अनपढ़ परिवार, जैसे एक चमार या मेहतर के यहाँ पैदा होने पर इन्सान का भाग्य क्या होगा? चूँकि वह गरीब हैं, इसलिए पढ़ाई नहीं कर सकता। वह अपने उन साथियों से तिरस्कृत और त्यक्त रहता है जो ऊँची जाति में पैदा होने की वजह से अपने को उससे ऊँचा समझते हैं। उसका अज्ञान, उसकी गरीबी तथा उससे किया गया व्यवहार उसके हृदय को समाज के प्रति निष्ठुर बना देते हैं। मान लो यदि वह कोई पाप करता है तो उसका फल कौन भोगेगा? ईश्वर, वह स्वयं या समाज के मनीषी? और उन लोगों के दंड के बारे में तुम क्या कहोगे जिन्हें दंभी और घमंडी ब्राह्मणों ने जान-बूझकर अज्ञानी बनाए रखा तथा जिन्हें तुम्हारी ज्ञान की पवित्र पुस्तकों - वेदों के कुछ वाक्य सुन लेने के कारण कान में पिघले सीसे की धारा को सहने की सजा भुगतनी पड़ती थी? यदि वे कोई अपराध करते हैं तो उसके लिए कौन ज़िम्मेदार होगा और उसका प्रहार कौन सहेगा? मेरे प्रिय दोस्तो, ये सारे सिद्धांत विशेषाधिकार युक्त लोगों के आविष्कार हैं। ये अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूँजी तथा उच्चता को इन सिद्धान्तों के आधार पर सही ठहराते हैं। जी हाँ, शायद वह अपटन सिंक्लेयर ही था, जिसने किसी जगह लिखा था कि मनुष्य को बस (आत्मा की) अमरता में विश्वास दिला दो और उसके बाद उसकी सारी धन-संपत्ति लूट लो। वह बगैर बड़बड़ाए इस कार्य में तुम्हारी सहायता करेगा। धर्म के उपदेशकों तथा सत्ता के स्वामियों के गठबंधन से ही जेल, फाँसी घर, कोड़े और ये सिद्धांत उपजते हैं। |
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The Collected Work of Mahatma Gandhi - Vol 45 - Page 334 - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
The Collected Works of Mahatma Gandhi - Vol 45 - Page 334 |
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क्यों डरें महर्षि वेलेन्टाइन से? - डॉ. वेदप्रताप वैदिक | Dr Ved Pratap Vaidik | ||
‘सेंट वेलेन्टाइन डे' का विरोध अगर इसलिए किया जाता है कि वह प्रेम-दिवस है तो इससे बढ़कर अभारतीयता क्या हो सकती है? प्रेम का, यौन का, काम का जो मुक़ाम भारत में है, हिन्दू धर्म में है, हमारी परम्परा में है, वह दुनिया में कहीं नहीं है। धर्मशास्त्रों में जो पुरुषार्थ-चतुष्टय बताया गया है--धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष-- उसमें काम का महत्व स्वयंसिद्ध है। काम ही सृष्टि का मूल है। अगर काम न हो तो सृष्टि कैसे होगी? काम के बिना धर्म का पालन नहीं हो सकता। इसीलिए काम पर रचे गए ग्रन्थ को कामशास्त्र कहा गया? शास्त्र किसे कहा जाता है? क्या किसी अश्लील ग्रन्थ को कोई शास्त्र कहेगा? शास्त्रकार भी कौन है? महर्षि है! महर्षि वात्स्यायन! वैसे ही जैसे कि महर्षि वेलेन्टाइन जो पैदा हुए, तीसरी सदी में। वे भारत में नहीं, इटली में पैदा हुए। |
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द्वितीय विश्व हिंदी सम्मेलन, पोर्ट लुइस, मॉरीशस - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
द्वितीय विश्व हिंदी सम्मेलन 28-30 अगस्त, 1976 को पोर्ट लुइस, मॉरीशस में आयोजित किया गया था।
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लोहड़ी - लुप्त होते अर्थ - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
यह सच है कि आज कोई भी त्यौहार चाहे वह लोहड़ी हो, होली हो या दिवाली हो - भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में भी धूम-धाम से मनाया जाता है। यह भी सत्य है कि अधिकतर आयोजक व आगंतुक इनके अर्थ, आधार व पृष्ठभूमि से अनभिज्ञ होते हैं। आयोजक एक-दो पृष्ठ के भाषण रट कर अपने ज्ञान का दिखावा कर देते हैं और इस तोता रटंत भाषण से हट कर यदि कोई प्रश्न कर लिया जाए तो उनकी बत्ती चली जाती है और आगंतुक/दर्शक वर्ग तो मौज-मस्ती के लिए आता है। आज लोहड़ी है - लेकिन अब कितने बच्चों को लोहड़ी के गीत आते हैं? कौन मां-बाप लोहड़ी के गीत गा अपने बच्चों को पड़ोसियों के घर लोहड़ी मांगने जाने की अनुमति देते हैं? और भूल-चूक से यदि कोई बच्चा आ ही जाए आपके द्वार तो आपके घर में न लकड़ी होगी, न खील और न मक्का तो पारंपरिक तौर पर उन्हें देंगे क्या? त्यौहार के नाम पर बस बालीवुड का हो-हल्ला सुनाई देता है! अच्छे भले गीतों का संगीत बदल कर उनका सत्यानाश करके उसे 'रिमिक्स' कह दिया जाता है। कुछ दिन पहले एक परिचित का फोन आया, "13 को आ जाओ! मेरे बेटे की पहली लोहड़ी है!" मैंने अनभिज्ञता जताते हुए पूछ लिया, "इसके बारे में कुछ बताइए कि लोहड़ी क्या है, क्यों मनाई जाती है?" |
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बात न्यू मीडिया से संबंधित कुछ अटपटे प्रश्न - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
न्यू मीडिया शिक्षक |
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भीष्म को क्षमा नहीं किया गया - हजारीप्रसाद द्विवेदी | ||
मेरे एक मित्र हैं, बड़े विद्वान, स्पष्टवादी और नीतिमान। वह इस राज्य के बहुत प्रतिष्ठित नागरिक हैं। उनसे मिलने से सदा नई स्फूर्ति मिलती है। यद्यपि वह अवस्था में मुझसे छोटे हैं, तथापि मुझे सदा सम्मान देते हैं। इस देश में यह एक अच्छी बात है कि सब प्रकार से हीन होकर भी यदि कोई उम्र में बड़ा हो, तो थोड़ा-सा आदर पा ही जाता है। मैं भी पा जाता हूँ। मेरे इस मित्र की शिकायत थी कि देश की दुर्दशा देखते हुए भी मैं कुछ कह नहीं रहा हूँ, अर्थात इस दुर्दशा के लिए जो लोग जिम्मेदार हैं उनकी भर्त्सना नहीं कर रहा हूँ। यह एक भयंकर अपराध है। कौरवों की सभा में भीष्म ने द्रौपदी का भयंकर अपमान देखकर भी जिस प्रकार मौन धारण किया था, वैसे ही कुछ मैं और मेरे जैसे कुछ अन्य साहित्यकार चुप्पी साधे हैं। भविष्य इसे उसी तरह क्षमा नहीं करेगा जिस प्रकार भीष्म पितामह को क्षमा नहीं किया गया। मैं थोड़ी देर तक अभिभूत होकर सुनता रहा और मन में पापबोध का भी अहसास हुआ। सोचता रहा, कुछ करना चाहिए, नहीं तो भविष्य क्षमा नहीं करेगा। वर्तमान ही कौन क्षमा कर रहा है? काफी देर तक मैं परेशान रहा - चुप रहना ठीक नहीं है, कंबख्त भविष्य कभी माफ नहीं करेगा। उसकी सीमा भी तो कोई नहीं है। पाँच हजार वर्ष बीत गए और अब तक विचारे भीष्म पितामह को क्षमा नहीं किया गया। भविष्य विकट असहिष्णु है। |
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देसियों के विदेशी बुखार - रीता कौशल | ऑस्ट्रेलिया | ||
जैसे ही दिवाली आने वाली होती है सोशल मीडिया पर एक पोस्ट तैरने लगती है कि चीन की बनी इलेक्ट्रिक झालर मत खरीदो, अपने यहाँ के कुम्हारों के बने दीये खरीद कर दिवाली पर जलाओ। ऐसा ही रक्षाबंधन के आसपास राखी के धागों को लेकर होता है पर क्या आज ग्लोबलाइजेशन के दौर में विदेशी सामान की खरीद से बचना इतना आसान है? इन फेसबुक पोस्ट को देख कर लगता है कि हम भारतीयों की देशभक्ति एक मौसमी बुखार की तरह है जो कुछ खास मौसम में ही जोर मारती है। |
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न्यूज़ीलैंड में हिंदी - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
न्यूज़ीलैंड में हिंदी : एक संक्षिप्त विवरण |
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दिया टिमटिमा रहा है - विद्यानिवास मिश्र | ||
लोग कहेंगे कि दीवाली के दिन कुछ अधिक मात्रा में चढ़ाली है, नहीं तो जगर-मगर चारों ओर बिजली की ज्योति जगमग रही है और इसको यही सूझता है कि दिया, वह भी दिए नहीं, दिया टिमटिमा रहा है, पर सूक्ष्म दृष्टि का जन्मजात रोग जिसे मिला हो वह जितना देखेगा, उतना ही तो कहेगा। मैं गवई-देहात का आदमी रात को दिन करनेवाली नागरिक प्रतिभा का चमत्कार क्या समझूँ? मै जानता हूँ, अमा के सूचीभेद्य अंधकार से घिरे हुए देहात की बात, मैं जानता हूँ, अमा के सर्वग्रासी मुख में जाने से इनकार करने वाले दिए की बात, मै जानता हूँ बाती के बल पर स्नेह को चुनौती देनेवाले दिए की बात और जानता हूँ इस टिमटिमाते हुए दिए में भारत की प्राण ज्योति के आलोक की बात। दिया टिमटिमा रहा है! स्नेह नहीं, स्नेह तलछट भर रही है और बाती न जाने किस जमाने का तेल सोखे हुए है कि बलती चली जा रही है, अभी तक बुझ नहीं पाई। सामने प्रगाढ़ अंधकार, भयावनी निस्तब्धता और न जाने कैसी-कैसी आशंकाएँ! पर इन सब को नगण्य करता हुआ दिया टिमटिमा रहा है... |
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मैं नास्तिक क्यों हूँ? | भाग-2 - भगत सिंह | ||
न्यायशास्त्र के सर्वाधिक प्रसिद्ध विद्वानों के अनुसार, दंड को अपराधी पर पड़ने वाले असर के आधार पर, केवल तीन-चार कारणों से उचित ठहराया जा सकता है। वे हैं प्रतिकार, भय तथा सुधार। आज सभी प्रगतिशील विचारकों द्वारा प्रतिकार के सिद्धांत की निंदा की जाती है। भयभीत करने के सिद्धांत का भी अंत वही है। केवल सुधार करने का सिद्धांत ही आवश्यक है और मानवता की प्रगति का अटूट अंग है। इसका उद्देश्य अपराधी को एक अत्यंत योग्य तथा शांतिप्रिय नागरिक के रूप में समाज को लौटाना है। लेकिन यदि हम यह बात मान भी लें कि कुछ मनुष्यों ने (पूर्व जन्म में) पाप किए हैं तो ईश्वर द्वारा उन्हें दिए गए दंड की प्रकृति क्या है? तुम कहते हो कि वह उन्हें गाय, बिल्ली, पेड़, जड़ी-बूटी या जानवर बनाकर पैदा करता है। तुम ऐसे 84 लाख दंडों को गिनाते हो। मैं पूछता हूँ कि मनुष्य पर सुधारक के रूप में इनका क्या असर है? तुम ऐसे कितने व्यक्तियों से मिले हो जो यह कहते हैं कि वे किसी पाप के कारण पूर्वजन्म में गदहा के रूप में पैदा हुए थे? एक भी नहीं? अपने पुराणों से उदाहरण मत दो। मेरे पास तुम्हारी पौराणिक कथाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। और फिर, क्या तुम्हें पता है कि दुनिया में सबसे बड़ा पाप गरीब होना है? गरीबी एक अभिशाप है, वह एक दंड है। मैं पूछता हूँ कि अपराध-विज्ञान, न्यायशास्त्र या विधिशास्त्र के एक ऐसे विद्वान की आप कहाँ तक प्रशंसा करेंगे जो किसी ऐसी दंड-प्रक्रिया की व्यवस्था करे जो कि अनिवार्यतः मनुष्य को और अधिक अपराध करने को बाध्य करे? क्या तुम्हारे ईश्वर ने यह नहीं सोचा था? या उसको भी ये सारी बातें-मानवता द्वारा अकथनीय कष्टों के झेलने की कीमत पर - अनुभव से सीखनी थीं? तुम क्या सोचते हो। किसी गरीब तथा अनपढ़ परिवार, जैसे एक चमार या मेहतर के यहाँ पैदा होने पर इन्सान का भाग्य क्या होगा? चूँकि वह गरीब हैं, इसलिए पढ़ाई नहीं कर सकता। वह अपने उन साथियों से तिरस्कृत और त्यक्त रहता है जो ऊँची जाति में पैदा होने की वजह से अपने को उससे ऊँचा समझते हैं। उसका अज्ञान, उसकी गरीबी तथा उससे किया गया व्यवहार उसके हृदय को समाज के प्रति निष्ठुर बना देते हैं। मान लो यदि वह कोई पाप करता है तो उसका फल कौन भोगेगा? ईश्वर, वह स्वयं या समाज के मनीषी? और उन लोगों के दंड के बारे में तुम क्या कहोगे जिन्हें दंभी और घमंडी ब्राह्मणों ने जान-बूझकर अज्ञानी बनाए रखा तथा जिन्हें तुम्हारी ज्ञान की पवित्र पुस्तकों - वेदों के कुछ वाक्य सुन लेने के कारण कान में पिघले सीसे की धारा को सहने की सजा भुगतनी पड़ती थी? यदि वे कोई अपराध करते हैं तो उसके लिए कौन ज़िम्मेदार होगा और उसका प्रहार कौन सहेगा? मेरे प्रिय दोस्तो, ये सारे सिद्धांत विशेषाधिकार युक्त लोगों के आविष्कार हैं। ये अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूँजी तथा उच्चता को इन सिद्धान्तों के आधार पर सही ठहराते हैं। जी हाँ, शायद वह अपटन सिंक्लेयर ही था, जिसने किसी जगह लिखा था कि मनुष्य को बस (आत्मा की) अमरता में विश्वास दिला दो और उसके बाद उसकी सारी धन-संपत्ति लूट लो। वह बगैर बड़बड़ाए इस कार्य में तुम्हारी सहायता करेगा। धर्म के उपदेशकों तथा सत्ता के स्वामियों के गठबंधन से ही जेल, फाँसी घर, कोड़े और ये सिद्धांत उपजते हैं। |
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रिश्वतखोरों पर सीधी कार्रवाई - डॉ. वेदप्रताप वैदिक | Dr Ved Pratap Vaidik | ||
भारत की कुल जनसंख्या में आधे लोग नौजवान हैं। इन नौजवानों से एक अंग्रेजी अखबार ने पूछा कि आप में से कितनों ने कभी रिश्वत दी है? इस अखबार ने देश के 15 शहरों के 7 हजार नौजवानों से बात की। उसने पाया कि अहमदाबाद, मुंबई और दिल्ली जैसे शहरों में लगभग 75 प्रतिशत जवानों ने कभी न कभी रिश्वत दी है। उन नौजवानों का कहना था कि हम क्या करें। हम मजबूर हैं। स्कूटर या कार का लायसेंस हो, पासपोर्ट हो, रेल का आरक्षण हो, जन्म या मृत्यु का प्रमाण-पत्र हो, सरकारी अस्पताल में इलाज करवाना हो- आप कहीं भी चले जाएं, रिश्वत के बिना कोई काम नहीं होता। हम सोचते हैं, चीखने-चिल्लाने और लड़ने-झगड़ने में अपना वक्त क्यों खराब करें? पैसे दें और पिंड छुड़ाएँ! उन्होंने स्वीकार किया कि रिश्वत देने में हमें कोई संकोच नहीं होता। यह बात तो कुछ बड़े शहरों के 75 प्रतिशत नौजवानों पर लागू होती है और छोटे शहरों के लगभग 45 प्रतिशत नौजवानों पर! तो क्या जो शेष नौजवान हैं, वे अपना काम बिना रिश्वत के चलाते हैं? क्या उन्होंने कभी कोई रिश्वत नहीं दी? इस संबंध में यह सर्वेक्षण मौन है। हो सकता है कि उसने यह सवाल नौजवानों से पूछा ही न हो। यह भी संभव है कि जिन नौजवानों ने रिश्वत नहीं दी, उन्हें रिश्वत देने का मौका ही न आया हो। यदि वैसा मौका होता तो वे भी क्यों चूकते? वे भी रिश्वत दे डालते। ‘शार्टकट’ कौन नहीं चाहता है? यह हाल उस पीढ़ी का है, जो रामलीला मैदान और इंडिया गेट पर नारे लगा रही थी कि ‘गली-गली में चोर है।’ तो क्या हम यह मान लें कि पूरे भारत ने ही भ्रष्टाचार के आगे घुटने टेक दिए हैं? लगता तो ऐसा ही है। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। रिश्वत लेने वालों और देने वालों की संख्या मुश्किल से एक-दो प्रतिशत ही होगी। देश के 70-80 करोड़ लोग जो 30-35 रू. रोज पर गुजारा करते हैं, उन्हें रिश्वत से क्या लेना देना है? रिश्वत तो सिर्फ 25-30 करोड़ लोगों याने मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग का सिरदर्द है। उनमें भी सभी लोगों को न तो रिश्वत देने की जरूरत पड़ती है और न ही सारे सरकारी कर्मचारी रिश्वतखोर हैं। रिश्वत लेने और देने वालों की संख्या कुछ हजार और कुछ लाख तक ही सीमित है। इन लोगों को आप सिर्फ कानून के डर से सीधा नहीं कर सकते। इन्हें सीधा करने के लिए सीधी कार्रवाई की जरूरत है। रिश्वतखोरों के दफ्तरों पर अहिंसक धरने दिए जाएं और उनका जमकर प्रचार किया जाए तो ऐसी सौ - दो सौ घटनाएं ही सारे देश के रिश्वतखोरों को हिला देंगी। यदि देश के दस करोड़ नौजवान रिश्वत लेने और देने के विरूद्ध शपथ ले लें तो सोने में सुहागा हो जाए।
dr.vaidik@gmail.com # समाज को कुरीतियों का कोढ़ लगा है और हम हाथ पर हाथ धरे मूक दर्शक बने बैठे हैं? डा वैदिक ने इस ज्वलंत समस्या पर अपने विचार और सुझाव रखे हैं, आप क्या कहते हैं? आप स्वयं से पूछिए इस रिश्वतखोरी जैसी समस्या में आपका भी योगदान है कि नहीं? आज देश की पुलिस, नेता, अभिनेता और यहाँ तक की जनसाधारण अधिकतर भ्रष्ट हो चुके हैं तो पुलिस, नेता, अभिनेता कौन है? हम ही तो हैं? वे कोई आसमान से तो उतरे नहीं? क्या किया जाए? कैसे मुक्ति मिली हमें इस भ्रष्टाचार के झंझावत से? क्या आप डॉ. वेदप्रताप वैदिक के विचारों व उनके सुझावों से सहमत हैं? क्या आप इस बारे में कुछ कहना चाहते हैं?
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तृतीय विश्व हिंदी सम्मेलन, नई दिल्ली, भारत - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
तृतीय विश्व हिंदी सम्मेलन 28-30 अक्टूबर, 1983 नई दिल्ली, भारत में आयोजित किया गया था। |
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इंटरनेट नहीं जानते तो साहित्यकार नहीं! - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
क्या इंटरनेट और फेसबुक जानने-समझने वाले ही हिंदी साहित्यकार हैं? सरकार की माने तो ऐसा ही लगता है। क्योंकि यदि किसी साहित्यकार अथवा हिन्दी प्रेमी को हिन्दी सम्मेलन में शिरकत करना है तो उसे अनिवार्य रूप से ऑनलाइन आवेदन भरना होगा। इसके बिना वह सम्मेलन में हिस्सेदारी नहीं कर पाएगा। |
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कैसे होगी हिंदी की प्रगति और विकास - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
सम्मेलन के सत्रों का हाल तो कुछ और ही था। प्रत्येक सत्र में पत्रकारों का छायाचित्र लेने या रिकार्डिंग करने पर प्रतिबंध था। वे शायद उद्घाटन व समापन समारोह के लिए ही आमंत्रित किए गए थे। मंच पर बैठे पत्रकार बिरादरी के मित्र भी सरकारी पाले में जाकर सरकारी बातें करने लगे थे, "अरे! इतना बड़ा समारोह है! ज़रा आयोजकों की मजबूरी भी तो समझिए!"
अब कई पत्रकार बेचारे तो बुरे फंसे उनके पास मीडिया का पास तो था वे अंदर जा सकते थे लेकिन अब प्रतिनिधि वाला परिचय-पत्र न होने से चाय-नाश्ता निषेध था। इधर हाल यह था कि प्रतिनिधियों और अतिथियों को चाय के लिए तरसते देखा!
कुछ कहेंगे हमने तो ऐसा नहीं देखा - भाई, आप विशिष्ट जो थे! अंदर जो श्रेणी विभाजन किया गया था प्रतिनिधियों और विशिष्ट का - उसमें अंतर तो रहता ही है, न! स्वाभाविक है!
अगले दिन फिर कुछ पत्रकार चाय-नाश्ते की सोच रहे थे पर अब उनके पास 'प्रतिनिधि' वाला बिल्ला तो था नहीं यथा स्वयंसेवी सैनिक उन्हें अंदर कैसे जाने देते? मैं बाहर आया तो एक पत्रकार ने पूछा, "आपको अंदर कैसे जाने दिया?"
मैंने कहा, "भैय्या, भुगतान किया है! मीडिया के साथ-साथ प्रतिनिधि वाला बिल्ला भी है, न! शुल्क चुकाया है!"
अब भाई साहब क्या कहते चाय-नाश्ते का ख्याल छोड़ पानी पीने चल दिए फिर बाकी दिन वे दिखाई नहीं पड़े।
दो पत्रकार भाई अपने होटल में ही पास में ठहरे थे। एक सपत्नीक थे। पहले दिन तो पत्नी के साथ सम्मेलन में ही थे लेकिन जब से चायपान व दोपहर का भोजन बंद हुआ उनका सम्मेलन में आना भी बंद हुआ। अब आयोजकों का गणित देखिए! आमंत्रित किए गए पत्रकारों को होटल व कार की सेवाएं दी गई थीं। होटल में सुबह का नाश्ता करके भाई लोग पत्नी को लेकर 70-80 किलोमीटर जाकर शाम को वापिस आ जाते थे। एक जो पर्चा बांटा था ना भोपाल के आसपास 'भाई साहब' ने वे सब देख लिए थे।
दूसरे भाई भी मुफ्त की गाड़ी खूब दौड़ा रहे थे। मैंने पूछा, "आप दिखाई ही नहीं दिए?"
"सत्रों में तो बैठना 'अलाउड' नहीं। खाने के लिए भी वहाँ 'प्राब्लम' आ रही थी तो बस होटल में ही रहे, कुछ इधर-उधर घूम लिए।"
- रोहित कुमार 'हैप्पी'
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ऐसे रोकें, शादी की फिजूलखर्ची - डॉ. वेदप्रताप वैदिक | Dr Ved Pratap Vaidik | ||
भारतीय समाज में तीन बड़े खर्चे माने जाते हैं। जनम, मरण और परण! कोई कितना ही गरीब हो, उसके दिल में हसरत रहती है कि यदि उसके यहां किसी बच्चे ने जन्म लिया हो या किसी की शादी हो या किसी बुज़ुर्ग की मृत्यु हुई हो तो वह अपने सगे-संबंधियों और मित्रों को इकट्ठा करे और उन्हें कम से कम भोजन तो करवाए। इस इच्छा को गलत कैसे कहा जाए? यह तो स्वाभाविक मानवीय इच्छा है। लेकिन यह इच्छा अक्सर बेकाबू हो जाती है। लोग अपनी चादर के बाहर पाँव पसारने लगते हैं। |
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चतुर्थ विश्व हिंदी सम्मेलन, पोर्ट लुइस, मॉरीशस - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
चतुर्थ विश्व हिंदी सम्मेलन 02-04 दिसम्बर, 1993 को पोर्ट लुइस, मॉरीशस में आयोजित किया गया था। |
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तुम क्या जानो पीर पराई? - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान लाल परेड मैदान में बहुत से छात्र-छात्राओं से वार्तालाप व साक्षात्कार हुआ। वे विश्व हिंदी सम्मेलन देखने आए थे लेकिन प्रवेश-अनुमति न पाने से खिन्न थे। उनमें से अधिकतर तो केवल विश्व हिंदी सम्मेलन का नाम भर सुनकर भोपाल चले आए थे। उन्हें इसके बारे में सीमित जानकारी थी व वे सम्मेलन में प्रवेश-शुल्क से भी अनभिज्ञ थे। कानपुर से आया एक युवक 'प्रभु आज़ाद' लगातार दो दिनों तक मेरे पीछे पड़ा रहा कि मुझे किसी तरह अंदर ले चलिए। मैं चाहते हुए भी विवश था। मैंने कुछ को लगातार तीनों दिन बाहर बैठे पाया। यह उनका हिंदी स्नेह है कि वे अंतिम दिन तक आस लगाए रहे कि शायद वे प्रवेश कर पाएं!
एक दिन तो एक लड़की इतनी आतुर थी प्रवेश करने को, कि पूछिए मत! मैंने अपने जीवन में इतना असहाय कभी महसूस नहीं किया होगा! क्या करता...मैं तो स्वयं एक परदेसी से अधिक क्या था! मेरे पास केवल सहानुभूति थी और यह उनके विशेष काम की नहीं थी।
मुंबई से आए मनोज ने कहा, "सम्मेलन के नाम से ऐसा आभास होता है कि निशुल्क ही होगा।" कुछ और ने भी अपनी सहमति जता दी। "हम, शुल्क चुकाने को भी तैयार हैं लेकिन बताया गया है कि डेट निकल चुकी सो नहीं हो सकता।"
"हाँ, भाई। आवेदन भरने की तिथि निकल चुकी है। सम्मेलन की साइट पर सब दिया तो था।" मैंने कहा।
"लेकिन हमें तो कुछ पता ही नहीं था। साइट का कहाँ से पता चलता। इतना ही पता चला समाचारों में कि भोपाल में विश्व हिंदी सम्मेलन हो रहा है। साइट कहाँ प्रचारित की गई थी सामान्य लोगों व छात्रों में? हमें तो नहीं पता था।" उसके कई और साथियों ने भी उसकी हाँ में हाँ मिलाते हुए 'ना' के अंदाज वाला सिर हिला दिया।
"वैसे यह सम्मेलन किसके लिए हो रहा है?" एक युवती ने सवाल किया फिर स्वयं ही उत्तर दे दिया, "सामान्य लोगों के लिए तो नहीं लगता! क्या केवल कुछ ख़ास लोगों के लिए है? इससे हिंदी का प्रचार कैसे होगा?"
"जहाँ शहर की सजावट करने में इतना खर्चा हुआ है, वहाँ कम से कम यहाँ बाहर एक प्रोजेक्टर ही लगा देते! हम बाहर बैठकर ही देख लेते।" बैंच से उठकर पास आते एक अन्य युवक ने कहा।
"क्या करें, भाई!"
"आप मुख्यमंत्री से मिलें तो उन्हें हमारी शिकायत तो दर्ज करवा ही सकते हैं।"
"हाँ, आपके लिए अधिक नहीं कर सका पर आपकी यह शिकायत मैं अवश्य मुख्यमंत्री तक पहुंचा दूंगा।" मैंने उन्हें सांत्वना दी।
"हिंदी का प्रचार करने वाले तो सब बाहर ही बैठे हैं!" एक ने बैंच पर बैठे बहुत से अपने छात्र मित्रों की ओर हाथ घुमाते हुए कहा। फिर बहुत-से युवक-युवतियों ने एक साथ ठहाका लगा दिया। मैं भी मुसकरा कर उनके अट्हास में छिपे दर्प, व्यंग्य और पीड़ा का आकलन करता हुआ आगे बढ़ गया। मैं सोच रहा था कि सचमुच यदि एक प्रोजेक्टर बाहर किसी पंडाल में लगाया जाता तो कितना अच्छा होता!
सम्मेलन के अंतिम दिन मुझे अवसर मिल ही गया। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री विदेश से आए अतिथियों से मिलने आए तो मैंने बाहर बैठे छात्र-छात्राओं की पीड़ा का मुद्दा उनके समक्ष रखा। छात्रों द्वारा प्रोजेक्टर वाले सुझाव की भी चर्चा की। विदेश से आए एक-आध अतिथि को मेरा यह मुद्दा उठाना भाया नहीं। मुझे संतुष्टि थी कि मैंने उन छात्र-छात्राओं से किया वादा निभाया।
- रोहित कुमार 'हैप्पी'
[साभार- वेब दुनिया]
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ऑनलाइन शिक्षण : कोरोना संकट में आशा की एक किरण - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
अर्थव्यवस्था और सामाजिक जीवन के अतिरिक्त कोरोना वायरस से शिक्षा व्यवस्था सर्वाधिक प्रभावित हुई है। प्राथमिक पाठशाला से लेकर उच्च स्तरीय शैक्षणिक संस्थानों में और पठन-पाठन का भविष्य अनिश्चितता के दौर से गुजर रहा है। जब से कोरोना की महामारी ने विश्व को अपनी चपेट में लिया है, विश्वव्यापी तालाबंदी का एक नया दौर चल रहा है। हमारा संपूर्ण सामाजिक ढांचा कोविड-19 (कोरोना) से बुरी तरह प्रभावित हुआ है। |
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आशा भोंसले का तमाचा - डॉ. वेदप्रताप वैदिक | Dr Ved Pratap Vaidik | ||
आशा भोंसले और तीजन बाई ने दिल्लीवालों की लू उतार दी। ये दोनों देवियाँ 'लिम्का बुक ऑफ रेकार्ड' के कार्यक्रम में दिल्ली आई थीं। संगीत संबंधी यह कार्यक्रम पूरी तरह अँग्रेज़ी में चल रहा था। यह कोई अपवाद नहीं था। आजकल दिल्ली में कोई भी कार्यक्रम यदि किसी पांच-सितारा होटल या इंडिया इंटरनेशनल सेंटर जैसी जगहों पर होता है तो वहां हिंदी या किसी अन्य भारतीय भाषा के इस्तेमाल का प्रश्न ही नहीं उठता। इस कार्यक्रम में भी सभी वक्तागण एक के बाद एक अँग्रेज़ी झाड़ रहे थे। मंच संचालक भी अँग्रेज़ी बोल रहा था। |
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पांचवाँ विश्व हिंदी सम्मेलन, ट्रिनिडाड एवं टोबेगो - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
पांचवाँ विश्व हिंदी सम्मेलन (04-08 अप्रैल, 1996) |
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‘फीजी हिंदी’ साहित्य एवं साहित्यकार: एक परिदृश्य - सुभाषिनी लता कुमार | फीजी | ||
‘फीजी हिंदी’ फीजी में बसे भारतीयों द्वारा विकसित हिंदी की नई भाषिक शैली है जो अवधी, भोजपुरी, फीजियन, अंग्रेजी आदि भाषाओं के मिश्रण से बनी है। फीजी के प्रवासी भारतीय मानक हिंदी की तुलना में, फीजी हिंदी भाषा में अपनी भाव-व्यंजनाओं को अच्छी तरह से अभिव्यक्त कर पाते हैं। इसीलिए भारतवंशी साहित्यकारों ने अंग्रेजी भाषा के मोह को छोड़कर हिंदी में साहित्यिक कृतियाँ लिखनी प्रारंभ कीं। मातृभाषा के इसी प्रेम के फलस्वरूप फीजी हिंदी की साहित्यिक कृतियों का सृजन भी हुआ है, जिनमें रेमंड पिल्लई का ‘अधूरा सपना’ और सुब्रमनी का ‘डउका पुराण’ प्रमुख हैं। |
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हिन्दी भाषा का भविष्य - गणेशशंकर विद्यार्थी | Ganesh Shankar Vidyarthi | ||
[ हिन्दी साहित्य सम्मेलन के गोरखपुर अधिवेशन में अध्यक्ष पद से दिये हुए भाषण का कुछ अंश ] |
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छठा विश्व हिंदी सम्मेलन, ब्रिटेन - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
छठा विश्व हिंदी सम्मेलन (14-18 सितंबर, 1999) |
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मैं कहानी कैसे लिखता हूँ - मुंशी प्रेमचंद | Munshi Premchand | ||
मेरे किस्से प्राय: किसी-न-किसी प्रेरणा अथवा अनुभव पर आधारित होते हैं, उसमें मैं नाटक का रंग भरने की कोशिश करता हूँ मगर घटना-मात्र का वर्णन करने के लिए मैं कहानियाँ नहीं लिखता। मैं उसमें किसी दार्शनिक और भावनात्मक सत्य को प्रकट करना चाहता हूँ। जब तक इस प्रकार का कोई आधार नहीं मिलता, मेरी कलम ही नहीं उठती। आधार मिल जाने पर मैं पात्रों का निर्माण करता हूँ। कई बार इतिहास के अध्ययन से भी प्लाट मिल जाते हैं लेकिन कोई घटना कहानी नहीं होती, जब तक कि वह किसी मनोवैज्ञानिक सत्य को व्यक्त न करे। |
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अथ हिंदी कथा अच्छी थी पर अपने झंडे को क्या हुआ - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन में 'हिंदी अथ कथा' निःसंदेह अविस्मरणीय था। 'हिंदी अथ कथा' में लहराये जाने वाले झंडे से चक्र गायब था। मंत्रियों, पत्रकारों व साहित्यकारों की उपस्थिति में यह झंडा कई मिनटों तक लहराता रहा। सब तालियां बजाते रहे, झंडा भी लहराता रहा। मैंने साथ वाले पत्रकार से पूछा कि यह झंडे को क्या हुआ। उसने कंधे झटक कर, "आइ डांट नो!" बता दिया। |
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फीजी के प्रवासी भारतीय साहित्यकार प्रो. बृज लाल की दृष्टि - सुभाषिनी लता कुमार | फीजी | ||
अकादमिक स्वर्गीय प्रो. बृज लाल का नाम फीजी तथा दक्षिण प्रशान्त महासागर के प्रतिष्ठित साहित्यकारों की अग्रीम श्रेणी में लिया जाता है। उनके पूर्वज गिरमिटिया मजदूर के रूप में सन् 1908 में भारत से लगभग 12000 हजार किलोमीटर दूर फीजी द्वीप आकर बस गए। प्रो. बृजलाल के उत्थान की कहानी फीजी के एक साधारण गाँव के स्कूल ‘ताबिया सनातन धर्म’ से शुरू होती है। उन्होंने अपनी शिक्षा और कड़ी मेहनत के बल पर ऑस्ट्रेलियन राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में प्रशांत और एशियाई इतिहास के एमेरिटस प्रोफेसर का पद संभाला तथा अपने लेखन के माध्यम से प्रवासी भारतीयों के इतिहास को रचनात्मक रूप प्रदान किया है। |
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राष्ट्रीयता | निबंध - गणेशशंकर विद्यार्थी | Ganesh Shankar Vidyarthi | ||
देश में कहीं-कहीं राष्ट्रीयता के भाव को समझने में गहरी और भद्दी भूल की जा रही है। आये दिन हम इस भूल के अनेकों प्रमाण पाते हैं। यदि इस भाव के अर्थ भली-भाँति समझ लिये गये होते तो इस विषय में बहुत-सी अनर्गल और अस्पष्ट बातें सुनने में न आतीं। राष्ट्रीयता जातीयता नहीं है। राष्ट्रीयता धार्मिक सिद्धांतों का दायरा नहीं है। राष्ट्रीयता सामाजिक बंधनों का घेरा नहीं है। राष्ट्रीयता का जन्म देश के स्वरूप से होता है। उसकी सीमाएँ देश की सीमाएँ हैं। प्राकृतिक विशेषता और भिन्नता देश को संसार से अलग और स्पष्ट करती है और उसके निवासियों को एक विशेष बंधन-किसी सादृश्य के बंधन-से बाँधती है। राष्ट्र पराधीनता के पालने में नहीं पलता। स्वाधीन देश ही राष्टों की भूमि है, क्योंकि पुच्छ-विहीन पशु हों तो हों, परंतु अपना शासन अपने हाथों में न रखने वाले राष्ट्र नहीं होते। राष्ट्रीयता का भाव मानव-उन्नति की एक सीढ़ी है। उसका उदय नितांत स्वाभाविक रीति से हुआ। योरप के देशों में यह सबसे पहले जन्मा। मनुष्य उसी समय तक मनुष्य है, जब तक उसकी दृष्टि के सामने कोई ऐसा ऊँचा आदर्श है, जिसके लिए वह अपने प्राण तक दे सके। समय की गति के साथ आदर्शों में परिवर्तन हुए। धर्म के आदर्श के लिए लोगों ने जान दी और तन कटाया। परंतु संसार के भिन्न-भिन्न धर्मों के संघर्षण, एक-एक देश में अनेक धर्मों के होने तथा धार्मिक भावों की प्रधानता से देश के व्यापार, कला-कौशल और सभ्यता की उन्नति में रुकावट पड़ने से, अंत में धीरे-धीरे धर्म का पक्षपात कम हो चला और लोगों के सामने देश-प्रेम का स्वाभाविक आदर्श सामने आ गया। जो प्राचीन काल में धर्म के नाम पर कटते-मरते थे, आज उनकी संतति देश के नाम पर मरती है। पुराने अच्छे थे या ये नये, इस पर बहस करना फिजूल ही है, पर उनमें भी जीवन था और इनमें भी जीवन है। वे भी त्याग करना जानते थे और ये भी और ये दोनों उन अभागों से लाख दर्जे अच्छे और सौभाग्यवान हैं जिनके सामने कोई आदर्श नहीं और जो हर बात में मौत से डरते हैं। ये पिछले आदमी अपने देश के बोझ और अपनी माता की कोख के कलंक हैं। देश-प्रेम का भाव इंग्लैंड में उस समय उदय हो चुका था, जब स्पेन के कैथोलिक राजा फिलिप ने इंग्लैंड पर अजेय जहाजी बेड़े आरमेड़ा द्वारा चढ़ाई की थी, क्योंकि इंग्लैंड के कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट, दोनों प्रकार के ईसाइयों ने देश के शत्रु का एक-सा स्वागत किया। फ्रांस की राज्यक्रांति ने राष्ट्रीयता को पूरे वैभव से खिला दिया। इस प्रकाशमान रूप को देखकर गिरे हुए देशों को आशा का मधुर संदेश मिला। 19वीं शताब्दी राष्ट्रीयता की शताब्दी थी। वर्तमान जर्मनी का उदय इसी शताब्दी में हुआ। पराधीन इटली ने स्वेच्छाचारी आस्ट्रिया के बंधनों से मुक्ति पाई। यूनान को स्वाधीनता मिली और बालकन के अन्य राष्ट्र भी कब्रों से सिर निकाल कर उठ पड़े। गिरे हुए पूर्व ने भी अपने विभूति दिखाई। बाहर वाले उसे दोनों हाथों से लूट रहे थे। उसे चैतन्यता प्राप्त हुई। उसने अँगड़ाई ली और चोरों के कान खड़े हो गये। उसने संसार की गति की ओर दृष्टि फेरी। देखा, संसार को एक नया प्रकाश मिल गया है और जाना कि स्वार्थपरायणता के इस अंधकार को बिना उस प्रकाश के पार करना असंभव है। उसके मन में हिलोरें उठीं और अब हम उन हिलोरों के रत्न देख रहे हैं। जापान एक रत्न है - ऐसा चमकता हुआ कि राष्ट्रीयता उसे कहीं भी पेश कर सकती है। लहर रुकी नहीं। बढ़ी और खूब बढ़ी। अफीमची चीन को उसने जगाया और पराधीन भारत को उसने चेताया। फारस में उसने जागृति फैलाई और एशिया के जंगलों और खोहों तक में राष्ट्रीयता की प्रतिध्वनि इस समय किसी न किसी रूप में उसने पहुँचाई। यह संसार की लहर है। इसे रोका नहीं जा सकता। वे स्वेच्छाचारी अपने हाथ तोड़ लेंगे - जो उसे रोकेंगे और उन मुर्दों की खाक का भी पता नहीं लगेगा - जो इसके संदेश को नहीं सुनेंगे। भारत में हम राष्ट्रीयता की पुकार सुन चुके हैं। हमें भारत के उच्च और उज्ज्वल भविष्य का विश्वास है। हमें विश्वास है कि हमारी बाढ़ किसी के राके नहीं रुक सकती। रास्ते में रोकने वाली चट्टानें आ सकती हैं। बिना चट्टानें पानी की किसी बाढ़ को नहीं रोक सकतीं, परंतु एक बात है, हमें जान-बूझकर मूर्ख नहीं बनना चाहिए। ऊटपटाँग रास्ते नहीं नापने चाहिए। कुछ लोग 'हिंदू राष्ट्र' - 'हिंदू राष्ट्र' चिल्लाते हैं। हमें क्षमा किया जाय, यदि हम कहें-नहीं, हम इस बात पर जोर दें - कि वे एक बड़ी भारी भूल कर रहे हैं और उन्होंने अभी तक 'राष्ट्र' शब्द के अर्थ ही नहीं समझे। हम भविष्यवक्ता नहीं, पर अवस्था हमसे कहती है कि अब संसार में 'हिंदू राष्ट्र' नहीं हो सकता, क्योंकि राष्ट्र का होना उसी समय संभव है, जब देश का शासन देशवालों के हाथ में हो और यदि मान लिया जाय कि आज भारत स्वाधीन हो जाये, या इंग्लैंड उसे औपनिवेशिक स्वराज्य दे दे, तो भी हिंदू ही भारतीय राष्ट्र के सब कुछ न होंगे और जो ऐसा समझते हैं - हृदय से या केवल लोगों को प्रसन्न करने के लिए - वे भूल कर रहे हैं और देश को हानि पहुँचा रहे हैं। वे लोग भी इसी प्रकार की भूलकर रहे हैं जो टर्की या काबुल, मक्का या जेद्दा का स्वप्न देखते हैं, क्योंकि वे उनकी जन्मभूमि नहीं और इसमें कुछ भी कटुता न समझी जानी चाहिए, यदि हम यह कहें कि उनकी कब्रें इसी देश में बनेंगी और उनके मरिसेये - यदि वे इस योग्य होंगे तो - इसी देश में गाये जाएँगे, परंतु हमारा प्रतिपक्षी, नहीं, राष्ट्रीयता का विपक्षी मुँह बिचका कर कह सकता है कि राष्ट्रीयता स्वार्थों की खान है। देख लो इस महायुद्ध को और इंकार करने का साहस करो कि संसार के राष्ट्र पक्के स्वार्थी नहीं है? हम इस विपक्षी का स्वागत करते हैं, परंतु संसार की किस वस्तु में बुराई और भलाई दोनों बातें नहीं हैं? लोहे से डॉक्टर का घाव चीरने वाला चाकू और रेल की पटरियाँ बनती हैं और इसी लोहे से हत्यारे का छुरा और लड़ाई की तोपें भी बनती हैं। सूर्य का प्रकाश फूलों को रंग-बिरंगा बनाता है पर वह बेचारा मुर्दा लाश का क्या करें, जो उसके लगते ही सड़कर बदबू देने लगती है। हम राष्ट्रीयता के अनुयायी हैं, पर वही हमारी सब कुछ नहीं, वह केवल हमारे देश की उन्नति का उपाय-भर है। |
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गिरमिटियों को श्रद्धांजलि (भाग 2)‘ का लोकार्पण - सुभाषिनी लता कुमार | फीजी | ||
नरेश चंद की ऑडियो सीडी ‘गिरमिट गाथा- गिरमिटियों को श्रद्धांजलि (भाग 2)‘ का लोकार्पण |
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सातवाँ विश्व हिंदी सम्मेलन, सूरीनाम - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
सातवाँ विश्व हिंदी सम्मेलन (5-9 जून, 2003) |
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पत्रकार का दायित्त्व - गणेशशंकर विद्यार्थी | Ganesh Shankar Vidyarthi | ||
हिंदी में पत्रकार-कला के संबंध में कुछ अच्छी पुस्तकों के होने की बहुत आवश्यकता है। मेरे मित्र पंडित विष्णुदत्त शुक्ल ने इस पुस्तक को लिखकर एक आवश्यक काम किया है। शुक्ल जी सिद्धहस्त पत्रकार हैं। अपनी पुस्तक में उन्होंने बहुत-सी बातें पते की कही हैं। मेरा विश्वास है कि पत्रकार कला से जो लोग संबंध करना चाहते हैं, उन्हें इस पुस्तक और उसकी बातों से बहुत लाभ होगा। मैं इस पुस्तक की रचना पर शुक्ल जी को हृदय से बधाई देता हूँ। |
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हिंदी में उर्दू शब्दों का इस्तेमाल - प्रो. राजेश कुमार | ||
हम कभी-कभी शुद्धतावादी लोगों से सुनते हैं कि हिंदी में उर्दू शब्दों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। आपने इस तरह की सूची भी देखी होगी, जिसमें लोग उर्दू शब्दों के हिंदी पर्याय देते हैं और सुझाव देते हैं कि उनके स्थान पर हिंदी शब्दों का ही उपयोग करना ज्यादा उचित होगा। |
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सिंगापुर में हिंदी का फ़लक | विश्व में हिंदी - डॉ संध्या सिंह | सिंगापुर | ||
विश्व आज वैश्विक गाँव बनता जा रहा है और इस वैश्विक गाँव में तमाम भाषाएँ अपने वजूद को बरक़रार रखने की कोशिश में लगी हैं। एक भाषा का हावी होना कई बार दूसरी भाषा के लिए ख़तरा उत्पन्न कर देता है और ऐसा कई परिस्थितियों में देखा गया है कि इस जद्दोजहद की लड़ाई में कभी-कभी कुछ भाषाएँ और संकुचित होती जाती हैं लेकिन कुछ लड़कर और निखरती है। हिंदी को लेकर भी कई अटकलें उसके राजभाषा बनने के पूर्व से आज तक लगाई जाती रही हैं और हिंदी के भारत की राष्ट्रभाषा न बनने के कारण कई बार प्रसार में अड़चनें भी आई हैं। पर वहीं यह भी सत्य है कि भारत की राष्ट्रीय भाषा का दर्जा भले ही हिंदी को न मिला हो लेकिन भारत से बाहर भारत की प्रतिनिधि भाषा के रूप में वह अवश्य अपने पंख पसार रही है। हिंदी भाषा के प्रति पिछले कुछ वर्षों में अधिक जागरूकता बढ़ी है। आज अगर कहें कि हिंदी वह रेलगाड़ी स्वरूप प्रतीत हो रही है जो वैश्विक पुल पर अपनी गति से आगे बढ़ रही है तो संभवत: अतिशयोक्ति नहीं होगी। दुनिया के मानचित्र में भारतीयों ने हर भाग में पहुँचने की कोशिश की है और अपने साथ भाषा और संस्कृति की मंजुषा भी ले जाने की कोशिश की है। जैसा कि माना जाता है कि भाषा ही चाहे व्यक्ति हो, समाज हो या राष्ट्र हो उसकी अस्मिता-पहचान की निकष है। हिंदी में इस दायित्व को निभाने और पूरा करने की सभी खूबियाँ मौजूद हैं जिनके बल पर आज वह भारत की भाषा के साथ ही कहीं न कहीं विश्व भाषा की ओर बढ़ रही है। लाख विरोधों के बाद भी हिंदी अपनी पहचान विश्व जनता से करा चुकी है और आगे बढ़ रही है। हिंदी का वैश्विक परिदृश्य बहुत व्यापक है और यही व्यापकता हिंदी की लोकप्रियता का कारण है। |
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धर्म की आड़ - गणेशशंकर विद्यार्थी | Ganesh Shankar Vidyarthi | ||
इस समय, देश में धर्म की धूम है। उत्पात किए जाते हैं, तो धर्म और ईमान के नाम पर, और ज़िद की जाती है, तो धर्म और ईमान के नाम पर। रमुआ पासी और बुद्धू मियाँ धर्म और ईमान को जानें, या न जानें, परंतु उनके नाम पर उबल पड़ते हैं और जान लेने और जान देने के लिए तैयार हो जाते हैं। |
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आधी रात का चिंतन | ललित निबंध - डॉ. वंदना मुकेश | इंग्लैंड | ||
‘सर’ के यहाँ घुसते ही लगा कि शायद घर पर कुछ भूल आई हूँ। लेकिन समझ में नहीं आया। अरे, आप सोच रहे होंगे , ये ‘सर’ कौन हैं? तो बताऊँ कि ‘सर’ हैं डॉ. केशव प्रथमवीर, भूतपूर्व विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग पुणे विद्यापीठ। कब गुरु से पितृ-तुल्य हो गये, पता ही नही चला। ...और भारत–यात्रा पर बेटी पिता से न मिले वह तो संभव ही नहीं है। सो पुणे पँहुचते ही रात सर के पास रुकने की तैयारी से चल दी। दिमाग में घूम रही थी उनकी वह दीवार जिसपर पुस्तकें ही पुस्तकें सजी हैं। मेरे सोने की व्यवस्था कर के सर बात्रा ‘सर’ के पास सोने चले गये। |
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रामायण में निहित वित्तीय साक्षरता के कुछ संदेश | आलेख - डॉ पुष्पा भारद्वाज-वुड | न्यूज़ीलैंड | ||
वित्तीय साक्षरता एक ऐसा विषय है जो लोगों में अलग-अलग तरह की भावनाएं जगा देता है और फिर शुरू हो जाती है या तो खर्चो का स्पष्टीकरण या पैसों की कमी का दुःख। पिछले दो दशकों से इसी क्षेत्र में काम करते-करते मैंने बहुत कुछ देखा और सुना है। कुछ उसके आधार पर और कुछ अपने धार्मिक ग्रंथों को खोजने पर सोचा कि क्यों ना हमारे धार्मिक ग्रंथों में छुपे ज्ञान को वित्तीय साक्षरता के साथ जोड़ा जाए। यह लेख उसी प्रयास की एक झलक है। |
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आत्मनिर्भरता - आचार्य रामचन्द्र शुक्ल | ||
विद्वानों का यह कथन बहुत ठीक है कि नम्रता ही स्वतन्त्रता की धात्री या माता है। लोग भ्रमवश अहंकार-वृत्ति को उसकी माता समझ बैठते हैं, पर वह उसकी सौतेली माता है जो उसका सत्यानाश करती है। चाहे यह सम्बन्ध ठीक हो या न हो, पर इस बात को सब लोग मानते हैं कि आत्मसंस्कार के लिए थोड़ी-बहुत मानसिक स्वतन्त्रता परम आवश्यक है-चाहे उस स्वतन्त्रता में अभिमान और नम्रता दोनों का मेल हो और चाहे वह नम्रता ही से उत्पन्न हो। यह बात तो निश्चित है कि जो मनुष्य मर्यादापूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहता है, उसके लिए वह गुण अनिवार्य है, जिससे आत्मनिर्भरता आती है और जिससे अपने पैरों के बल खड़ा होना आता है। युवा को यह सदा स्मरण रखना चाहिए कि उसकी आकांक्षाएँ उसकी योग्यता से कहीं बढ़ी हुई हैं। उसे इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह अपने बड़ों का सम्मान करे, छोटों और बराबर वालों से कोमलता का व्यवहार करे। ये बातें आत्म-मर्यादा के लिए आवश्यक हैं। यह सारा संसार, जो कुछ हम हैं और जो कुछ हमारा है - हमारा शरीर, हमारी आत्मा, हमारे कर्म, हमारे भोग, हमारे घर की और बाहर की दशा, हमारे बहुत से अवगुण और थोडे़ गुण सब इसी बात की आवश्यकता प्रकट करते हैं कि हमें अपनी आत्मा को नम्र रखना चाहिए। नम्रता से मेरा अभिप्राय दब्बूपन से नहीं है जिसके कारण मनुष्य दूसरों का मुँह ताकता है, जिससे उसका संकल्प क्षीण और उसकी प्रज्ञा मन्द हो जाती है, जिसके कारण आगे बढ़ने के समय भी वह पीछे रहता है और अवसर पड़ने पर चटपट किसी बात का निर्णय नहीं कर सकता। मनुष्य का बेड़ा अपने ही हाथ में है, उसे वह चाहे जिधर लगाये। सच्ची आत्मा वही है जो प्रत्येक दशा में, प्रत्येक स्थिति के बीच, अपनी राह आप निकालती है। |
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किसी राष्ट्र के वास्तविक निर्माता उस देश के शिक्षक होते हैं - डा. जगदीश गांधी | ||
शिक्षक दिवस पर विशेष लेख |
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जगन्नाथ पांचवीं बार प्रधानमंत्री - डॉ. वेदप्रताप वैदिक | Dr Ved Pratap Vaidik | ||
कल रात मोरिशस के प्रधानमंत्री श्री अनिरुद्ध जगन्नाथ के साथ लगभग दो घंटे बात हुई। भोजन करते समय हम दोनों साथ-साथ बैठे थे। उनके साथ मोरिशस और भारत में पहले भी कई बार भोजन और संवाद हुआ लेकिन इस बार जितनी खुली और अनौपचारिक बात हुई, शायद पहले कभी नहीं हुई। सर शिवसागर रामगुलाम के बाद, जो कि पहले प्रधानमंत्री थे, मोरिशस में प्रधानमंत्री का पद सिर्फ तीन लोगों के इर्द-गिर्द घूमता रहा है। पहले जगन्नाथजी, दूसरे नवीन रामगुलाम और तीसरे पाॅल बेरांजे। यह संयोग है कि इन तीनों नेताओं से मेरे काफी अच्छे संबंध रहे। पिछले 30-35 वर्षों में हम लोग एक-दूसरे के घर भी आते-जाते रहे लेकिन जब हम भारत-मोरिशस संबंधों की बात करते हैं तो सर शिवसागर रामगुलाम के बाद जो नाम सबसे ज्यादा उभरता है, वह अनिरुद्ध जगन्नाथ का ही है। वे अपना नाम रोमन में फ्रांसीसी शैली में लिखते हैं, जिसका उच्चारण होता है-‘एनीरुड जुगनेट' लेकिन मैं उन्हें उनके शुद्ध हिंदी नाम से ही बुलाता हूं। वे पांचवीं बार मोरिशस के प्रधानमंत्री बने हैं। दुनिया की राजनीति मैं जितनी भी जानता हूं, आज तक मैंने किसी भी ऐसे नेता का नाम नहीं सुना जो अपने देश का पांच बार प्रधानमंत्री चुना गया हो। जगन्नाथजी तो दो बार राष्ट्रपति भी चुने गए। उनकी पत्नी लेडी सरोजनी भी बहुत उदार और सुसंस्कृत महिला हैं। मोरिशस में ही स्वनामधन्य स्व. स्वामी कृष्णानंदजी ने ही इन दोनों से मेरा पहला परिचय करवाया था। जगन्नाथजी के पुत्र भी आजकल सांसद हैं। जगन्नाथजी पिछले 50 साल से भी ज्यादा से मोरिशस की राजनीति में सक्रिय हैं। 86 साल की उम्र में भी उनका उत्साह देखने लायक है। उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वियों के बारे में मुझे बहुत विस्तार से बताया लेकिन अब उनकी भाषा में वह तेजाब नहीं दिखाई दिया, जो 30 साल पहले हुआ करता था। वे भारत-मोरिशस संबंधों में चीन या पाकिस्तान को कोई खास बाधा नहीं मानते। हालांकि उनके बढ़ते असर को वे स्वीकार करते हैं। उन्होंने मोरिशस से भारत आनेवाले अरबों रु. के ‘काले धन' की खबरों को निराधार बताया और दुतरफा कराधान समझौते के महत्व को रेखांकित किया। अफ्रीका में फैल रहे आतंकवाद पर जब मैंने चिंता जाहिर की तो उन्होंने कहा मोरिशस में हम काफी सावधान हैं। चिंता की कोई बात नहीं है।
dr.vaidik@gmail.com #
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हिंदी महारानी है या नौकरानी ? - डॉ. वेदप्रताप वैदिक | Dr Ved Pratap Vaidik | ||
आज हिंदी दिवस है। यह कौनसा दिवस है, हिंदी के महारानी बनने का या नौकरानी बनने का ? मैं तो समझता हूं कि आजादी के बाद हिंदी की हालत नौकरानी से भी बदतर हो गई है। आप हिंदी के सहारे सरकार में एक बाबू की नौकरी भी नहीं पा सकते और हिंदी जाने बिना आप देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री भी बन सकते हैं। इस पर ही मैं पूछता हूं कि हिंदी राजभाषा कैसे हो गई ? आपका राज-काज किस भाषा में चलता है ? अंग्रेजी में ! तो इसका अर्थ क्या हुआ ? हमारी सरकारें हिंदुस्तान की जनता के साथ धोखा कर रही हैं। उसकी आंख में धूल झोंक रही हैं। भारत का प्रामाणिक संविधान अंग्रेजी में हैं। भारत की सभी ऊंची अदालतों की भाषा अंग्रेजी है। सरकार की सारी नीतियां अंग्रेजी में बनती हैं। उन्हें अफसर बनाते हैं और नेता लोग मिट्टी के माधव की तरह उन पर अपने दस्तखत चिपका देते हैं। सारे सांसदों की संसद तक पहुंचने की सीढ़ियां उनकी अपनी भाषाएं होती हैं लेकिन सारे कानून अंग्रेजी में बनते हैं, जिन्हें वे खुद अच्छी तरह से नहीं समझ पाते। बेचारी जनता की परवाह किसको है ? सरकार का सारा महत्वपूर्ण काम-काज अंग्रेजी में होता है। सरकारी नौकरियों की भर्ती में अंग्रेजी अनिवार्य है। उच्च सरकारी नौकरियां पानेवालों में अंग्रेजी माध्यमवालों की भरमार है। उच्च शिक्षा का तो बेड़ा ही गर्क है। चिकित्सा, विज्ञान और गणित की बात जाने दीजिए, समाजशास्त्रीय विषयों में भी उच्च शिक्षा और शोध का माध्यम आज तक अंग्रेजी ही है। आज से 53 साल पहले मैंने अपना अंतरराष्ट्रीय राजनीति का पीएच.डी. का शोधग्रंथ हिंदी में लिखने का आग्रह करके इस गुलामी की जंजीर को तोड़ दिया था लेकिन देश के सारे विश्वविद्यालय अभी भी उस जंजीर में जकड़े हुए हैं। अंग्रेजी भाषा को नहीं उसके वर्चस्व को चुनौती देना आज देश का सबसे पहला काम होना चाहिए लेकिन हिंदी दिवस के नाम पर हमारी सरकारें एक पाखंड, एक रस्म-अदायगी, एक खानापूरी हर साल कर डालती हैं। हमारे महान राष्ट्रवादी प्रधानमंत्री को चार साल बाद फुर्सत मिली कि अब उन्होंने केंद्रीय हिंदी समिति की बैठक बुलाई। उसकी वेबसाइट अभी तक सिर्फ अंग्रेजी में ही है। यदि देश में कोई सच्चा नेता हो और उसकी सच्ची राष्ट्रवादी सरकार हो तो वह संविधान की धारा 343 को निकाल बाहर करे और हिंदी को राष्ट्रभाषा और अन्य भारतीय भाषाओं को राज-काज भाषाएं बनाए। ऐसा किए बिना यह देश न तो संपन्न बन सकता है, न समतामूलक, न महाशक्ति ! |
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भारत में दो हिंदुस्तान हैं - डॉ. वेदप्रताप वैदिक | Dr Ved Pratap Vaidik | ||
कोरोना के इन 55 दिनों में मुझे दो हिंदुस्तान साफ-साफ दिख रहे हैं। एक हिंदुस्तान वह है, जो सचमुच कोरोना का दंश भुगत रहा है और दूसरा हिंदुस्तान वह है, जो कोरोना को घर में छिपकर टीवी के पर्दों पर देख रहा है। |
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कैसे मनाएं होली? - डॉ. वेदप्रताप वैदिक | Dr Ved Pratap Vaidik | ||
होली जैसा त्यौहार दुनिया में कहीं नहीं है। कुछ देशों में कीचड़, धूल और पानी से खेलने के त्यौहार जरूर हैं लेकिन होली के पीछे जो सांसारिक निर्ग्रन्थता है, उसकी समझ भारत के अलावा कहीं नहीं है। निर्ग्रन्थता का अर्थ ग्रंथहीन होना नहीं है। वैसे हिंदुओं को मुसलमान और ईसाई ग्रंथहीन ही बोलते हैं, क्योंकि हिंदुओं के पास कुरान और बाइबिल की तरह कोई एक मात्र पवित्र ग्रंथ नहीं होता है। उनके ग्रंथ ही नहीं, देवता भी अनेक होते हैं। मुसलमान और ईसाई अपने आप को अहले-किताब याने ‘किताबवाले आदमी' बोलते हैं। |
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हिंदी में न्यूजीलैंड का माओरी साहित्य - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
न्यूजीलैंड में तीन भाषाएं आधिकारिक रूप से मान्य हैं-- अंग्रेजी, माओरी और सांकेतिक भाषा। हिन्दी न्यूज़ीलैंड में सर्वाधिक बोली जाने वाली पाँचवीं भाषा है। |
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कछुआ-धरम | निबंध - चंद्रधर शर्मा गुलेरी | Chandradhar Sharma Guleri | ||
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भारत विश्व-शक्ति कैसे बने? - डॉ. वेदप्रताप वैदिक | Dr Ved Pratap Vaidik | ||
भारत की सरकारों से मेरी शिकायत प्रायः यह रहती है कि वे शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में क्रांतिकारी कदम क्यों नहीं उठाती हैं? अभी तक आजाद भारत में एक भी सरकार ऐसी नहीं आई है, जिसने यह बुनियादी पहल की हो। कांग्रेस और भाजपा सरकारों ने छोटे-मोटे कुछ कदम इस दिशा में जरूर उठाए थे लेकिन मोदी के प्रधानमंत्री बनने के पहले मेरा सोच यह था कि यदि वे प्रधानमंत्री बन गए तो वे जरूर यह क्रांतिकारी काम कर डालेंगे लेकिन यह तभी हो सकता है जबकि हमारे नेता नौकरशाहों की गिरफ्त से बाहर निकलें। फिर भी 2018 से सरकार ने जो आयुष्मान बीमा योजना चालू की है, उससे देश के करोड़ों गरीब लोगों को राहत मिल रही है। यह योजना सराहनीय है लेकिन यह मूलतः राहत की राजनीति है याने मतदाताओं को तुरंत तात्कालिक लाभ दो और बदले में उनसे वोट लो। इसमें कोई बुराई नहीं है लेकिन इस देश का स्वास्थ्य मूल रूप से सुधरे, इसकी कोई तदबीर आज तक सामने नहीं आई है। फिर भी इस योजना से देश के लगभग 40-45 करोड़ लोगों को लाभ मिलेगा। वे अपना 5 लाख रू. तक का इलाज मुफ्त करवा सकेंगे। उनके इलाज का पैसा सरकार देगी। अभी तक देश में लगभग 3 करोड़ 60 लाख लोग इस योजना के तहत अपना मुफ्त इलाज करवा चुके हैं। उन पर सरकार ने अब तक 45 हजार करोड़ रु. से ज्यादा खर्च किया है। देश की कुछ राज्य सरकारों ने भी राहत की इस रणनीति को अपना लिया है लेकिन क्या भारत के 140 करोड़ लोगों की स्वास्थ्य-रक्षा और चिकित्सा की भी योजना कोई सरकार लाएगी? इसी प्रकार भारत में जब तक प्रांरभिक से लेकर उच्चतम शिक्षा भारतीय भाषाओं के जरिए नहीं होती है, भारत की गिनती पिछड़े हुए देशों में ही होती रहेगी। जब तक यह मैकाले प्रणाली की गुलामी का ढर्रा भारत में चलता रहेगा, भारत से प्रतिभापलायन होता रहेगा। अंग्रेजीदाँ भारतीय युवजन भागकर विदेशों में नौकरियाँ ढूंढेंगे और अपनी सारी प्रतिभा उन देशों पर लुटा देंगे। भारतमाता टूंगती रह जाएगी। इसका अर्थ यह नहीं कि हमारे बच्चे विदेशी भाषाएं न पढ़ें। उन्हें सुविधा हो कि वे अंग्रेजी के साथ कई अन्य प्रमुख विदेशी भाषाएं भी जरूर पढ़ें लेकिन उनकी पढ़ाई का माध्यम कोई विदेशी भाषा न हो। सारे भारत में किसी भी विदेशी भाषा को पढ़ाई का माध्यम बनाने पर कड़ा प्रतिबंध होना चाहिए। कौन करेगा, यह काम? यह काम वही संसद, वही सरकार और वही प्रधानमंत्री कर सकते हैं, जिनके पास राष्ट्रोन्नति का मौलिक सोच हो और नौकरशाहों की नौकरी न करते हों। जिस दिन यह सोच पैदा होगा, उसी दिन से भारत विश्व-शक्ति बनना शुरु हो जाएगा। |
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न्यूज़ीलैंड में हिन्दी पठन-पाठन - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
यूँ तो न्यूज़ीलैंड कुल 40 लाख की आबादी वाला छोटा सा देश है, फिर भी हिंदी के मानचित्र पर अपनी पहचान रखता है। पंजाब और गुजरात के भारतीय न्यूज़ीलैंड में बहुत पहले से बसे हुए हैं किन्तु 1990 के आसपास बहुत से लोग मुम्बई, देहली, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, हरियाणा इत्यादि राज्यों से आकर यहां बस गए। फिजी से भी बहुत से भारतीय राजनैतिक तख्ता-पलट के दौरान यहां आ बसे। न्यूज़ीलैंड में फिजी भारतीयों की अनेक रामायण मंडलियाँ सक्रिय हैं। यद्यपि फिजी मूल के भारतवंशी मूल रुप से हिंदी न बोल कर हिंदुस्तानी बोलते हैं तथापि यथासंभव अपनी भाषा का ही उपयोग करते हैं। उल्लेखनीय है कि फिजी में गुजराती, मलयाली, तमिल, बांग्ला, पंजाबी और हिंदी भाषी सभी भारतवंशी लोग हिंदी के माध्यम से ही जुड़े हुए हैं। |
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न्यू मीडिया - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
न्यू मीडिया वास्तव में परम्परागत मीडिया का संशोधित रूप है जिसमें तकनीकी क्रांतिकारी परिवर्तन व इसका नया रूप सम्मिलित है। आइए, हिंदी न्यू मीडिया के स्वरुप, उद्भव और विकास पर एक दृष्टिपात करें। |
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न्यूज़ीलैंड एक परिचय - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
न्यूज़ीलैंड (New Zealand) या आओटियारोआ (Aotearoa - न्यूज़ीलैंड का माओरी नाम) दक्षिण प्रशान्त महासागर में आस्ट्रेलिया के 2000 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में स्थित है। इसका कुल क्षेत्रफल 269,000 वर्ग किलोमीटर है। यह क्षेत्रफल व आकार की दृष्टि से जापान से कुछ छोटा व ब्रिटेन से थोड़ा सा बड़ा कहा जा सकता है। न्यूज़ीलैंड की राजधानी वैलिंगटन है तथा सबसे बड़ा शहर ऑकलैंड है। ऑकलैंड को न्यूज़ीलैंड की वाणिज्य राजधानी भी कहा जा सकता है। न्यूज़ीलैंड की जनसंख्या लगभग 45 लाख ( 4.5 मिलियन) है जिसमें 80 प्रतिशत यूरोपियन समुदाय, सात में से एक माओरी (तांगाता फेनुआ, मूल या देशी लोग) 15 में से एक एशियन और 16 में से एक प्रशान्त द्वीप मूल के लोग सम्मिलित हैं। न्यूज़ीलैंड तेजी से बहु-संस्कृति समाज (Multi-cultural Society) के रूप में परिवर्तित होता जा रहा है। |
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मैं नास्तिक क्यों हूँ - भगत सिंह | ||
'मैं नास्तिक क्यों हूँ ?' यह आलेख भगत सिंह ने जेल में रहते हुए लिखा था जो लाहौर से प्रकाशित समाचारपत्र "द पीपल" में 27 सितम्बर 1931 के अंक में प्रकाशित हुआ था। भगतसिंह ने अपने इस आलेख में ईश्वर के बारे में अनेक तर्क किए हैं। इसमें सामाजिक परिस्थितियों का भी विश्लेषण किया गया है। |
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प्रोफेसर ब्रिज लाल - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
प्रोफेसर ब्रिज लाल प्रसिद्ध इंडो-फीजियन इतिहासकार थे। आप लंबे समय से निर्वासन में थे और वर्तमान में ब्रिस्बेन, ऑस्ट्रेलिया के निवासी थे। |
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हरिद्वार यात्रा - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जीवन परिचय | Bharatendu Harishchandra Biography Hindi | ||
श्रीमान क.व.सु. संपादक महोदयेषु! |
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ईश्वरचंद्र विद्यासागर - भारत-दर्शन | ||
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न्यूज़ीलैंड में हिंदी का भविष्य और भविष्य की हिंदी - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
लगभग 50 लाख की जनसंख्या वाले न्यूज़ीलैंड में अँग्रेज़ी और माओरी न्यूज़ीलैंड की आधिकारिक भाषाएं है। यहाँ सामान्यतः अँग्रेज़ी का उपयोग किया जाता है। |
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गणेश शंकर विद्यार्थी के निबंध - गणेशशंकर विद्यार्थी | Ganesh Shankar Vidyarthi | ||
श्री गणेश शंकर विद्यार्थी राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के चोटी के सेनानियों में से एक थे। 'प्रताप' के संपादक इस यशस्वी पत्रकार, गणेश शंकर विद्यार्थी के निबंधों को यहाँ संकलित किया जा रहा है। |
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पंडित चन्द्रधर शर्मा गुलेरी का कथा संसार | एक विवेचना - सुदर्शन वशिष्ठ | ||
बहुआयाभी प्रतिमा के स्वाभी पंडित चन्द्रधर शर्मा गुलेरी के विषय में तीन बातें बहुत विलक्षण हैं । पहली तो ये कि उनकी एकमात्र कहानी 'उसने कहा था' आज से एक सदी पूर्व हिन्दी जगत में एक अभूतपूर्व घटना के रूप में प्रकट हुईं । दूसरी, संस्कृत के महापण्डित होने के साथ कई भाषाओं के ज्ञाता होते हुए भी एक विशुद्ध हिन्दी प्रेमी रहे । दर्शन शास्त्र ज्ञाता, भाषाविद, निबन्धकार, ललित निबन्धकार, कवि, कला समीक्षक, आलोचक, संस्मरण लेखक, पत्रकार और संपादक होते हुए वे हिन्दी को समर्पित रहे । और तीसरी यह कि 12 सितम्बर 1922 को केवल उनतालीस वर्ष, दो महीने और पांच दिन की अल्पायु में उनका देहावसान हो गया किंतु अपने अल्प जीवन में वे इतना अधिक हिन्दी साहित्य को दे गए जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती । |
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डा वेदप्रताप वैदिक के आलेख - डॉ. वेदप्रताप वैदिक | Dr Ved Pratap Vaidik | ||
डॉ. वेदप्रताप वैदिक भारत के सुप्रसिद्ध लेखक, पत्रकार, विचारक व स्वप्नद्रष्टा हैं। उनके विचार, स्वप्न, लेखन और पत्रकारिता सहज ही मनन करने का विषय बन जाते हैं औरे पाठक इन विषयों पर सोचने को बाध्य हो जाता है। |
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जनता का साहित्य किसे कहते हैं ? - गजानन माधव मुक्तिबोध | Gajanan Madhav Muktibodh | ||
ज़िन्दगी के दौरान में जो तजुर्बे हासिल होते हैं, उनसे नसीहतें लेने का सबक़ तो हमारे यहाँ सैकड़ों बार पढ़ाया गया है। होशियार और बेवक़ूफ़ में फ़र्क़ बताते हुए, एक बहुत बड़े विचारक ने यह कहा, "ग़लतियाँ सब करते हैं, लेकिन होशियार वह है जो कम-से-कम ग़लतियाँ करे और ग़लती कहाँ हुई यह जान ले और यह साव- धानी वरते कि कहीं वैसी ग़लती तो फिर नहीं हो रही है।" जो आदमी अपनी ग़लतियों से पक्षपात करता है उसका दिमाग़ साफ़ नहीं रह सकता। |
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न्यू मीडिया क्या है? - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
न्यू मीडिया क्या है? |
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वेब पत्रकारिता - योग्यताएं व संसाधन - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
न्यू मीडिया |
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वेब पत्रकारिता लेखन व भाषा - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
वेब पत्रकारिता लेखन व भाषा |
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न्यू मीडिया विशेषज्ञ या साधक - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
न्यू मीडिया विशेषज्ञ या साधक |
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धनतेरस | पौराणिक लेख - भारत-दर्शन संकलन | Collections | ||
कार्तिक मास में त्रयोदशी का विशेष महत्व है, विशेषत: व्यापारियों और चिकित्सा एवं औषधि विज्ञान के लिए यह दिन अति शुभ माना जाता है। |
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विश्व हिंदी सम्मेलन - भारत-दर्शन संकलन | Collections | ||
विश्व हिंदी सम्मेलन का उद्देश्यहिंदी को विश्व स्तर पर प्रसारित और प्रचारित करना है जिससे वैश्विक स्तर पर हिंदी को स्थापित करने में सहायता मिल सके। |
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रोहित कुमार 'हैप्पी' के आलेख - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||
रोहित कुमार 'हैप्पी' के आलेख |
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