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 बदबू | Badboo - A Hindi Story by Sushant Supriya
भारत की सारी प्रांतीय भाषाओं का दर्जा समान है। - रविशंकर शुक्ल।
बदबू (कथा-कहानी)    Print  
Author:सुशांत सुप्रिय
 

रेल-यात्राओं का भी अपना ही मज़ा है । एक ही डिब्बे में पूरे भारत की सैर हो जाती है । 'आमार सोनार बांग्ला' वाले बाबू मोशाय से लेकर 'बल्ले-बल्ले' वाले सरदारजी तक, 'वणक्कम्' वाले तमिल भाई से लेकर 'केम छो ' वाले गुजराती सेठ तक -- सभी से रेलगाड़ी के उसी डिब्बे में मुलाक़ात हो जाती है । यहाँ तरह-तरह के लोग मिल जाते हैं । विचित्र क़िस्म के अनुभव हो जाते हैं ।

पिछली सर्दियों में मेरे साथ ऐसा ही हुआ । मैं और मेरे एक परिचित विमल किसी काम के सिलसिले में राजधानी एक्सप्रेस से दिल्ली से रायपुर जा रहे थे । हमारे सामने वाली सीट पर फ़्रेंचकट दाढ़ीवाला एक व्यक्ति अपनी पत्नी और तीन साल के बच्चे के साथ यात्रा कर रहा था । परस्पर अभिवादन हुआ । शिष्टाचारवश मौसम से जुड़ी कुछ बातें हुईं । उसके अनुरोध पर हमने अपनी नीचे वाली बर्थ उसे दे दी और हम दोनो ऊपर वाली बर्थ पर चले आए ।

मैं अख़बार के पन्ने पलट रहा था । तभी मेरी निगाह नीचे बैठे उस व्यक्ति पर पड़ी । वह बार-बार हवा को सूँघने की कोशिश करता, फिर नाक-भौंह सिकोड़ता ।

उसके हाव-भाव से साफ़ था कि उसे किसी चीज़ की बदबू आ रही थी । वह रह-रह कर अपने दाहिने हाथ से अपनी नाक के इर्द-गिर्द की हवा को उड़ाता । विमल भी यह सारा तमाशा देख रहा था । आख़िर उससे रहा नहीं गया । वह पूछ बैठा -- "क्या हुआ, भाई साहब ?"

"बड़ी बदबू आ रही है ।" फ़्रेंचकट दाढ़ीवाले उस व्यक्ति ने बड़े चिड़चिड़े स्वर में कहा ।

विमल ने मेरी ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा । मुझे भी कुछ समझ नहीं आया ।

मैंने जीवन में कभी यह दावा नहीं किया कि मेरी नाक कुत्ते जैसी है । मुझे और विमल -- हम दोनो को ही कोई दुर्गन्ध नहीं सता रही थी । इसलिए, उस व्यक्ति के हाव-भाव हमें कुछ अजीब से लगे । मैं फिर अख़बार पढ़ने में व्यस्त हो गया । विमल ने भी अख़बार का एक पन्ना उठा लिया ।

पाँच-सात मिनट बीते होंगे कि मेरी निगाह नीचे गई । नीचे बैठा व्यक्ति अब बहुत उद्विग्न नज़र आ रहा था । वह चारों ओर टोही निगाहों से देख रहा था जैसे बदबू के स्रोत का पता लगते ही वह कोई क्रांतिकारी क़दम उठा लेगा । रह-रहकर उसका हाथ अपनी नाक पर चला जाता । आख़िर उसने अपनी पत्नी से कुछ कहा । पत्नी ने बैग में से 'रूम-फ़्रेश्नर' जैसा कुछ निकाला और हवा में चारों ओर उसे 'स्प्रे ' कर दिया । मैंने विमल को आँख मारी । वह मुस्करा दिया । किनारेवाली बर्थ पर बैठे एक सरदारजी भी यह सारा तमाशा हैरानी से देख रहे थे ।

चलो, अब शायद इस पीड़ित व्यक्ति को कुछ आराम मिलेगा -- मैंने मन-ही-मन सोचा ।

पर थोड़ी देर बाद क्या देखता हूँ कि फ़्रेंचकट दाढ़ी वाला वह उद्विग्न व्यक्ति वही पुरानी हरकतें कर रहा है । तभी उसने अपनी पत्नी के कान में कुछ कहा । पत्नी परेशान-सी उठी और हमें सम्बोधित करके कहने लगी , "भाई साहब, यह जूता किसका है ? इसी में से बदबू आ रही है ।"

जूता विमल का था । वह उत्तेजित स्वर में बोला , "यहाँ पाँच-छह जोड़ी जूते पड़े हैं । आप यह कैसे कह सकती हैं कि इसी जूते में से बदबू आ रही है । वैसे भी, मेरा जूता और मेरी जुराबें, दोनों नई हैं और साफ़-सुथरी हैं ।"

इस पर उस व्यक्ति की पत्नी कहने लगी , "भाई साहब, बुरा मत मानिएगा । इन्हें बदबू सहन नहीं होती । उलटी आने लगती है । आप से गुज़ारिश करती हूँ, आप अपने जूते पालिथीन में डाल दीजिए । बड़ी मेहरबानी होगी ।"

विमल ग़ुस्से और असमंजस में था । तब मैंने स्थिति को सँभाला,"देखिए, हमें तो कोई बदबू नहीं आ रही । पर आप जब इतनी ज़िद कर रही हैं तो यही सही ।"

बड़े बेमन से विमल ने नीचे उतर कर अपने जूते पालिथीन में डाल दिए ।

मैंने सोचा -- चलो, अब बात यहीं ख़त्म हो जाएगी । पर थोड़ी देर बाद वह व्यक्ति उठा और मुझसे कहने लगा, "भाई साहब, मुझे नीचे अब भी बहुत बदबू आ रही है । आप नीचे आ जाइए । मैं वापस ऊपरवाली बर्थ पर जाना चाहता हूँ ।"

अब मुझसे नहीं रहा गया । मैंने कहा, "क्या आप पहली बार रेल-यात्रा कर रहे हैं ? भाई साहब, आप अपने घर के ड्राइंग-रूम में नहीं बैठे हैं । यात्रा में कई तरह की गंध आती ही हैं । टॉयलेट के पास वाली बर्थ मिल जाए तो वहाँ की दुर्गन्ध आती है । गाड़ी जब शराब बनाने वाली फ़ैक्ट्री के बगल से गुज़रती है तो वहाँ की गंध आती है । यात्रा में सब सहने की आदत डालनी पड़ती है ।"

विमल ने भी धीरे से कहा , "इंसान को अगर कुत्ते की नाक मिल जाए तो बड़ी मुश्किल होती है !"

पर उस व्यक्ति ने शायद विमल की बात नहीं सुनी । वह अड़ा रहा कि मैं नीचे आ जाऊँ और वह ऊपर वाली बर्थ पर ही जाएगा ।

मैंने बात को और बढ़ाना ठीक नहीं समझा । इसलिए मैंने ऊपर वाली बर्थ उसके लिए ख़ाली कर दी । वह ऊपर चला गया ।

थोड़ी देर बाद जब उस व्यक्ति की पत्नी अपने बड़े बैग में से कुछ निकाल रही थी तो वह अचानक चीख़कर पीछे हट गई ।

सब उसकी ओर देखने लगे ।

"क्या हुआ ?" ऊपर वाली बर्थ से उस व्यक्ति ने पूछा ।

"बैग में मरी हुई छिपकली है ।" उसकी पत्नी ने जवाब दिया ।

यह सुनकर विमल ने मुझे आँख मारी । मैं मुस्करा दिया ।

वह व्यक्ति खिसियाना-सा मुँह लिए नीचे उतरा ।

"भाई साहब, बदबू का राज अब पता चला !" सरदारजी ने उसे छेड़ा । वह और झेंप गया ।

ख़ैर । उस व्यक्ति ने मरी हुई छिपकली को खिडकी से बाहर फेंका । फिर वह बैग में से सारा सामान निकाल कर उसे डिब्बे के अंत में ले जा कर झाड़ आया ।

हम सबने चैन की साँस ली । चलो, मुसीबत ख़त्म हुई -- मैंने सोचा ।

पैंट्री-कार से खाना आ गया था । सबने खाना खाया । इधर-उधर की बातें हुईं । फिर सब सोने की तैयारी करने लगे ।

तभी मेरी निगाह उस आदमी पर पड़ी । उद्विग्नता की रेखाएँ उसके चेहरे पर लौट आई थीं । वह फिर से हवा को सूँघने की कोशिश कर रहा था ।

"मुझे अब भी बदबू आ रही है ... ", आख़िर अपनी चुप्पी तोड़ते हुए उसने कहा ।

"हे भगवान !" मेरे मुँह से निकला ।

यह सुनकर विमल ने मोर्चा सँभाला, "भाई साहब, मेरी बात ध्यान से सुनिए । बताइए, हम किस युग में जी रहे हैं ? यह कैसा समय है ? हम कैसे लोग हैं ?"

"क्या मतलब ?" वह आदमी कुछ समझ नहीं पाया ।

"देखिए , हम सब एक बदबूदार युग में जी रहे हैं । यह समय बदबूदार है । हम लोग बदबूदार हैं । यहाँ नेता भ्रष्ट हैं, वे बदबूदार हैं । अभिनेता अंडरवर्ल्ड से मिले हैं, वे बदबूदार हैं । अफ़सर घूसखोर हैं, वे बदबूदार हैं । दुकानदार मिलावट करते हैं, वे बदबूदार हैं । हम और आप झूठ बोलते हैं, दूसरों का हक़ मारते हैं, अनैतिक काम करते हैं -- हम सभी बदबूदार हैं । जब यह सारा युग बदबूदार है, यह समय बदबूदार है, यह समाज बदबूदार है, हम लोग बदबूदार हैं, ऐसे में यदि आपको अब भी बदबू आ रही है तो यह स्वाभाविक है । आख़िर इस डिब्बे में हम बदबूदार लोग ही तो बैठे हैं ...।"

 

- सुशांत सुप्रिय
A-5001
गौड़ ग्रीन सिटी
वैभव खंड
इंदिरापुरम
ग़ाज़ियाबाद - 201014 ( उ. प्र . )
मो: 08512070086
ई-मेल: sushant1968@gmail.com

 

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