मित्र होता है हरदम लोटे में पानी – चूल्हे में आग जलन में झमाझम – उदासी में राग
दुर्दिन की थाली में बाड़ी से बटोरी हुई उपेक्षित भाजी-साग रतौंदी के शिविर में मिले सरकारी चश्मे से दिख-दिख जाता हरियर बाग
नहीं होता मित्र राजधानी में नहीं होता मित्र चिकनी-चुपड़ी बानी में
वह तो लोक में आलोक है वेद है, मंत्र है, श्लोक है आँख है कान है नाक है जीभ है खोपड़ी को फाड़ कर निकल आता वाक् है
होता यदि मित्र एक अदद – न कहीं कविता होती होता यदि मित्र एक अदद – यूँ ही नहीं उदास सविता होती
मित्र गिलहरी है, घास है मित्र तितली है, अमलतास है
मित्र है तो दुनिया है
जैसे गणित की परीक्षा में मुफ़्त में कंपास है, परकार है, गुनिया है।
-जयप्रकाश मानस भारत |