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 वेबिनार - डॉ वंदना मुकेश की लघुकथा
भारत की सारी प्रांतीय भाषाओं का दर्जा समान है। - रविशंकर शुक्ल।
वेबिनार | लघुकथा (कथा-कहानी)    Print  
Author:डॉ. वंदना मुकेश | इंग्लैंड
 

कोरोना महामारी ने सारी जीवन-शैली ही बदल डाली। विद्याजी को ऊपर से निर्देश मिला है कक्षाएँ ऑनलाइन करवाई जाएँ। चार महीने के लॉकडाउन के बाद कॉलेज खुले और ऊपर से यह आदेश। दो साल बचे हैं उनकी सेवा-निवृत्ति के लेकिन अब ऑनलाईन कक्षाओं और कार्यक्रमों के आयोजन की बात सुनकर उन्हें पसीने छूट गये। जिंदगी भर कक्षा में आमने–सामने पढ़ाया, अब अंत में यह क्या आफत आ खड़ी हुई? अपने विभाग में हर वर्ष वे अनेक कार्यक्रम आयोजित करवाती थीं लेकिन इस वर्ष हिंदी दिवस पर ऑनलाईन कार्यक्रम के फरमान ने उनकी नींद हराम कर दी थी। उनसे तो माउस तक नहीं पकड़ा जाता और यह 'कर्सर’ खुद चूहे की तरह कूद- कूद कर भाग जाता है। भला हो उनके पड़ोसी शर्माजी और उनकी इंजीनियर बेटी प्रीता का। वह लॉकडॉउन के कारण ‘वर्क फ्रॉम होम’ कर रही थी। उसने विद्या जी को काफी बार समझाया लेकिन जब विद्या जी ने हाथ खड़े कर दिये तो उसने विद्याजी के निर्देशानुसार कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार की और तुरंत गूगल मीट पर सभी लोगों को सूचना भेज दी। 

प्रीता ने कहा, “आंटी आप बिल्कुल वैसे ही बोलिये जैसे आप फ़ेस टू फ़ेस कार्यक्रम में बोलती हैं,  बाकी मैं देख लूँगी। कार्यक्रम शुरु हुआ । विद्या जी को आश्चर्य हुआ। वक्ता और श्रोता गूगल मीट पर जुड़ने लगे, कुछ अनाड़ी, कुछ खिलाड़ी। उनका हृदय उछालें मारने लगा। यह सब कुछ नया था उनके लिये। उन्होंने प्रीता का हाथ कसकर पकड़ा हुआ था। 

फिर शुरु हुआ--"मेरी आवाज सुनाई दे रही है?" किसी ने पूछा। 

"अनम्यूट करिये, सुनाई नहीं दे रहा।"

सवाल पूछनेवाले के चेहरे पर परेशानी झलकने लगी। 

"अरे देखिये लाल बटन, लाउडस्पीकर का निशान" किसी की आवाज़ आई।

"मैं दिख रही हूँ?"

"मैं दिख रही हूँ कि नहीं?" कैमरे पर हेमा जी की मैग्निफाईड छवि नज़र आई। 

कुछ ज़्यादा ही, कैमरे से थोड़ा दूर बैठिये हेमा जी। 

"अरे कुछ सुनाई नहीं दे रहा, आपके कुत्ते की आवाज़ आ रही है म्यूट का बटन दबाइये।" 

कहाँ है बटन?

"मैं दिख रहा हूँ? "

"सुनाई दे रहा है!"

"अरे सर कैमरा अपनी तरफ कीजिये। आपकी छत दिख रही है।"

"अरे सर अब आपकी खिड़की दिख रहे है शायद फ्रंट कैमरा .... "

"वो क्या होता है?"

 

"अरे सर स्क्रीन पर देखिये दो ऐरो बने होंगे उस बटन को दबा दीजिये तो आप दिखने लगेंगे।"

"अरे दबा तो रहे हैं बटन।" वे विचलित हो गये।  उनके चेहरे दीनता का भाव स्पष्ट नज़र आ रहा था। 

तभी मुख्य वक्ता जुड़ गये लेकिन उनका माइक अनम्यूट था। पीछे उनकी पत्नी की आवाजें आ रही थी, "आफत हो गयी है पूरा दिन कंप्यूटर पर बोलते रहते हैं, आखिर घर में और लोग भी हैं।"

वे कह रहे थे, "अरे तुम समझती क्यों नहीं मीटिंग है।....चुप रहो बिल्कुल," वे कैमरे की तरफ देखते हुए मुसकाए। उन्हें पूरा भरोसा था कि वे म्यूट पर हैं। 

किसी ने कहा, "सर अपना माईक म्यूट कर दीजिये।  मैडम की आवाज आ रही है।"

मुख्य वक्ता के चेहरे पर खिसियाहट उभरी। कैमरा और आवाज़ दोनों बंद हो गईं।

सबको समझते-समझाते आधा घंटा निकल चुका था। विद्या जी को थोड़ा–थोड़ा मज़ा आने लगा लेकिन अब तक उन्होंने प्रीता का हाथ नहीं छोड़ा था। अपने नाम की घोषणा होते ही उनके माथे पर पसीने की बूंदे धार बन कर बह निकलीं। सूखते मुँह को जीभ से गीला करते हुए विद्याजी ने निवेदन शुरु किया ही था कि फक्क कर के लाईट चली गई और विद्या जी ने चैन की साँस ली और सिल्क की साड़ी के पल्ले से पसीना पोंछा। 

उन्होंने अपनी ओर से विश्वविद्यालय के निर्देश का पूरा पालन किया था। 

-वंदना मुकेश
वॉलसॉल यूके

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