हिंदी चिरकाल से ऐसी भाषा रही है जिसने मात्र विदेशी होने के कारण किसी शब्द का बहिष्कार नहीं किया। - राजेंद्रप्रसाद।
तमाशा खत्म (कथा-कहानी)    Print  
Author:कैलाश बुधवार
 

यह एक बड़ी पुरानी कहानी है जिसे आप बार-बार सुनते हैं, अक्सर गुनते हैं लेकिन फिर हमेशा भूल जाते हैं। कहानी रोज ही दोहराई जाती है-- पात्र बदल जाएँ, घटनाओं में हेर-फेर आ जाए पर कहानी वहीं की वहीं रहती है, नई और ताजी; जो मैं सुनाने जा रहा हूँ, यह उसी कहानी की एक शक्ल है।

एक थे मास्टर साहब। यूँ कहिए कि मेरे मास्टर साहब थे, यानी कि मेरा ट्यूशन करते थे। आज भी मुझ पर उनके व्यक्तित्व का उतना ही रौब है जितना तब था जब वह मुझे लँगड़ी भिन्न देकर चाचा जी से किसी ताजी खबर की बहस में उलझ जाते थे। नाम था बाबू रामस्वरूप। जब वह खुद पढ़ते थे तब मेरे यहाँ ट्यूशन करते थे। उन्होंने मेरे भाई साहब को पढ़ाया था और अब मुझे पढ़ा रहे थे। यह उनके स्वभाव की ही खबी थी कि वह परिवार के बिलकुल अंतरंग बन गए थे।

बहुत वर्ष पहले की बात है कि... एक दिन माँ मुझे घर पर अकेला छोड़कर बड़ों के साथ नानी के घर चली गई थीं। बदलू कहार ने मुझे बतलाया कि नाना मर गए। माँ मुझे साथ इसलिए नहीं लेकर गई, क्योंकि बच्चों को ये बातें नहीं जाननी चाहिए। मास्टर साहब भी जब उस दिन बिना पढ़ाए ही छुट्टी देकर जाने लगे तब मैं बाहर तक उनके पीछे-पीछे गया। उन्होंने ड्योढ़ी पर मुढड़कर पूछा, "कहो क्या बात है?" मैं ठिठका। सहमकर बोला, "आदमी मर कैसे जाता है?" मैं दिन-भर इसी उधेड़बुन में रहा कि कोई मर क्यों जाता है? मरकर कहाँ जाना होता है? मास्टर साहब ने मेरी पीठ पर हाथ फेरते हुए समझाया कि मैं अभी छोटा हूँ, समझ नहीं पाऊँगाा। पर सच तो ये है कि आज तक भी यह नहीं समझ पाया हूँ कि क्या हो जाता है जब आदमी मर जाता है। जानता हूँ कि कभी समझ भी नहीं पाऊँगा, खुद मास्टर साहब भी तब या कभी न समझा सकते थे; अब इस बात पर मुझे शक है।

पर तब सवाल के जवाब को न पा सकने पर भी, मैं मास्टर साहब के अगाध ज्ञान पर मुँह ताकता रह गया था। शुरू से मेरी मान्यता थी कि मास्टर साहब ज़रूर किसी दिन बड़े आदमी बनेंगे। चाचाजी का तो ख्याल था कि अनुकूल परिस्थितियाँ पाने के लिए कहते-कहते थक जाती थी तो मास्टर रामस्वरूप का उदाहरण देती थीं । मुझे सभी सुविधाएँ तो मिली थीं-पढ़ने का अलग कमरा, पहनने को यूनीफार्म, दाल में घी आदि...

और बेचारे मास्टर साहब! वह पतली रिम का पुराना चश्मा लगाते थे। उनके किरमिच के जूतों में पैबंद लगी थी, पर कमीज का कॉलर खड़ा रखते थे। उनके बारे में मुझे यह सब बाते इतनी साफ-साफ याद हैं, जितनी वे बातें जो माँ बाबूजी को थाली परोसकर सुनाया करती थीं और मैं उनकी गोद में दुबका सुना करता था। मैंने तभी से यह जाना कि मेरे मास्टर साहब कितने गरीब घर के हैं... साथ में अकेली माँ भी है। चौथे दर्जे के बाद से खुद पैसे जुटाकर उन्होंने पढ़ाई की है, और जिंदगी की रेल-पेल में बराबर धक्कम-धुक्का करते चले जा रहे हैं। किसी दिन ठिकाने से लग जाएँगेयह निश्चय था।

कमाल था कि इतनी दिक्कतों के बावजूद वह आगे बढ़ रहे थे। उनके लिए मेरी हमदर्दी इस कदर बढ़ चुकी थी कि मन में कुछ दार्शनिकों के से विचार आने लगे थे। यह बता हूँ कि मैं उदासपंथी नहीं हूँ। पर न जाने क्यों तब उनका ध्यान आते ही, किसी शायर की वह पंक्ति सामने आ जाती जिसमें उसने कहा था कि जिंदगी किसी सिरफिरे की रची कहानी है; जिसका न कोई ओर-छोर है और न सिलसिला।

हाँ, तो मास्टर साहब परिश्रमी ही नहीं थे, जीनियस भी थे। शहर की एक पत्रिका में उनकी एक रचना भी छप चुकी थी। अपने अस्तित्व को शून्य कर देने की चेष्टा करते हुए से जब वह अभिवादन करते थे तो कोई ऐसा न था जो उनसे प्रभावित होकर बैठने के लिए न कहता।।

आगे की कहानी यूँ हैं कि एक दिन अचानक हमें अखबार में देखने को मिला कि अपने मास्टर साहब का नाम पी.सी.एस. में आ गया हैं मेरी माँ की तो खुशी का ठिकाना ही न था। बेचारे का आखिरी 'अटैंप्ट' था। परिश्रम फलीभूत हुआ। स्कूल में विदाई समारोह के बाद जब मास्टर साहब ने मेरे सिर पर हाथ फेरा तो मुझे अलौकिक गौरवानुभूति हुई। उन्होंने अपने भाषण में सकुचाते हुए कहा था कि उनके जीवन में अंतर ही क्या हुआ? केवल सही कि किताबों का स्थाल फाइलों ने ले लिया, लेकिन इसे मानने को कोई तैयार न था। सभी कह रहे थे कि मास्टर साहब क्या से क्या बन गए।

पिछले साल भैया उनकी बारात में गए थे। शादी धूमधाम से हुई. इतना दहेज मिला कि घर भर गया। अपनी मौसी के यहाँ गया तो मैं भी मास्टर साहब के बँगले पर पहुँचा । मास्टर साहब की लगनदारी धन्य थी, किस गरीबी से कहाँ आ पहुँचे थे।

उनकी बूढी माँ तब साथ नही थी। मास्टर साहब की पत्नी कार ड्राइव कर मुझे मौसी के घर तक छोड़ गई। उन्हें देखकर मेरे दिमाग मे उन सब सपनों के नक्शे एक-एक कर खिंच गए जो हर मास्टर रामस्वरूप बनता है। जिन सपनों में कॉलेज का हर छात्र खो जाता है। (सिर्फ, उन्हें छोड़कर जो एक्टर बनने का एडवेंचर करने पर तुले हों।) और मेज़ पर झुके-झुके किताब के काले अक्षरों पर नजर गड़ाए घूमता रहता है। कंपीटीशन में आ जाने के बाद उन्हें अफसरी का रौब और गर्ल्स कॉलेज की ऐसी छात्रा के जिसे देखने के लिए दूसरे शहर के छात्र चक्कर काटते हैं - साथ विवाह का प्रस्ताव, बँगला, मोटर, क्लब, सिनेमा, पार्टियों आदि के सिनेमास्कोप सपने । मास्टर साहब की पत्नी उन सब सपनों का साकार रूप प्रतीत होती थी। रात की गाड़ी से लौटकर सुबह रजाई में पड़े-पड़े ही मैंने उनके रूप-गुण की चर्चा की। माँ बहुत खुश हुई भैया ने राज़ की बात बताई कि मास्टर साहब अपनी पत्नी पर कितने मुग्ध हैं । मैंने संतोष की साँस ली कि कहानी चलकर अब उस स्थान पर आ पहुँची है जहाँ यह न बताकर कि आगे क्या हुआ, उसे श्रोता की कल्पना पर छोड़ दिया जाता है।

संयोग की बात है कि कुछ साल बाद उनकी पोस्टिंग हमारे ही शहर में हो गई। शुरू में बड़े हौसले से उनके घर आना-जाना हुआ। मास्टर साहब अब भी उसी तपाक से मिलते थे। उनकी माँ को मरे डेढ़ साल बीत चुका था। मास्टर साहब के कोई संतान न थी। मास्टर साहब के कार्य से सरकारी वर्ग, कर्मचारी वर्ग और साधारण वर्ग सभी संतुष्ट थे। मुझे लगता था कि कहानी में अब कोई लहर नहीं उठेगी, कोई उथल-पुथल नहीं पैदा होगी। 

गर्मी की छुट्टी का आखिरी दौर था। रोज की तरह सवेरे-तड़के बाबूजी गंगा नहाने चले तो छुट्टी का पुण्य लाभ लेने की मेरी देह भी अंगडाई और मैं भी साथ हो लिया । मुझे तैयार होकर चलने में कुछ देर हो गई थी। जब हम घाट पर पहुँचे तो सूरज चढ़ चुका था। बाबूजी के सब रिटायर्ड साथी नहा-धो चुके थे। निगम साहब अपन धोती निचोड़कर कोई बड़ी दिलचस्प बात सुना रहे थे और सभी उत्सुकता से कान उनकी ओर लगाए अपनी माला-पूजा, चंदन-फूल की गिनती में लगे थे।

बाबूजी को देखते ही उन्होंने पूछा, क्यों खन्ना साहब, आपने सुना?' और फिर भेद के विस्फोट से पहले जो कुतूहल बँधा, उसका मज़ा लेते हुए उन्होंने बड़ी जोर की खीसे निपोरी। उसके बाद निगम साहब ने हमारा बिनसुना जो सुनाया, उसको सुनकर मैं सकते में आ गया। बड़े विश्वस्त और खुफिया तौर पर उन्होंने बताया कि डिप्टी रामस्वरूप बाहर दौरे पर गए थे। पीछे से उनकी बीवी उनके एक विजातीय मित्र के साथ भाग गई। मोटर पर दोनों अमृतसर जा रहे थे। भाग्य की बात कि मोटर पेड़ से टकरा गई। दोनों कहीं रास्ते के अस्पताल में हैं।

दिन-भर उस खबर से घर और शहर गर्म रहा। अगले दिन मैं यूनिवर्सिटी चला आया और दस रोज़ बाद माँ की चिट्ठी से मुझे पता चला कि उनकी बीवी घर आ गई है। मैं सोचता रहा कि शहर-भर में कैसी-कैसी अफवाहें उड़ती होंगी। जगह-जगह क्या-क्या चर्चाएँ चली होंगी। मास्टर साहब बेचारे क्या मुँह लेकर घर से निकलते होंगे उसके बाद तो शायद ही अपने घर से कोई उनके यहाँ गया हो । कैसी-कैसी बातें उड़कर माँ के कानों में पड़ रही होंगी। दो महीने बाद एक इतवार की सुबह मैं अपने कमरे के बाहर बैठा 'शेव' कर रहा था कि अशोक छात्रावास के कॉमनरूम से अखबार लिए आया और बोला कि मेरे शहर की एक बड़ी सनसनीखेज खबर उड़ी थी। मैंने झपटकर अखबार लिया। डिप्टी साहब गिरफ्तार कर लिए गए थे। दो दिन पहले डिप्टी साहब सोकर उठे तो उन्होंने बीवी को मरा पाया। जहर से उनकी मौत हुई थी। पोस्टमार्टम हुआ। संदेह में डिप्टी साहब हिरासत में ले लिए गए। जाँच हुई, महीनों केस चला। मास्टर साहब पर कोई जुर्म साबित नहीं हो सका। जूरी इस निष्कर्ष पर पहुँची कि पेट में बच्चे के मर जाने से शरीर में जहर फैल जाने के कारण उनकी मौत हुई थी। मास्टर साहब बेदाग बरी ही नहीं हुए, बल्कि बीच का सारा वेतन भी मिला और अपनी पुरानी पोस्ट पर बहाल भी हो गए।

उनका तबादला बुलंदशहर हो गया। माँ एक रोज कहीं से खबर ले आई कि जनवरी में उनकी दूसरी शादी हो गई। बड़े सामान्य ढंग से उनकी जिंदगी फिर बह निकली। मैं बराबर सोचता था कि इतने मोड़-तोड़ और इतने उतार-चढ़ाव के बाद अब उनकी कहानी में भला क्या क्लाइमेक्स आ सकता है। उन्हें देखकर मुझे ऐसा लगता था कि जैसे जिंदगी की कहानी में कहीं कोई तरतीब, कहीं कोई सिलसिला ही नहीं है। जुए में कब क्या दाँव खुलेगा, चिकने फर्श पर पड़ा पानी किधर बह चलेगा, कहाँ थमेगा, जैसे इसका कोई नियम-क्रम ही नहीं। इससे मुझे उत्सुकता होती कि देखू अब मास्टर साहब की जिंदगी में कौन-सा मोड़ आता है। पर कहानी बड़े सुचारू रूप से चल रही थी और फिर कुछ नहीं हुआ। हो भी क्या सकता था।

परसों स्कूली दिनों का मेरा एक दोस्त पी.सी.एस. में बैठने इलाहाबाद आया हैं। मेरे साथ ही ठहरा हैं। काफी हँसमुख है। जिंदगी में बड़ी ऊँची-ऊँची तमन्नाएँ रखता है पर डिप्टी कलेक्टर बनने से उसे नफरत है; सिर्फ माँ-बाप के दबाव से इम्तिहान में बैठ रहा है। __ आज हम दोनों नहा-धोकर जब नाश्ता करने बैठे तो अचानक उसे कुछ याद आ गया। टोस्ट काटते हुए उसने पूछा, "अरे, तुम्हें कुछ मालूम है?" स्वाभाविक था कि मुझे कुछ मालूम नहीं था।

उसने चाय की एक चुस्की ली, और कहा, "मास्टर रामस्वरूप की याद है न। वही जो डिप्टी... मैंने बात काटकर कहा, "हाँ-हाँ.... "महीना-भर हुआ, वह मर गए। "क...कैसे?" मेरे मुँह से निकला। "कैसे क्या? कोई मरता कैसे है?"

रेडियो पर एक भजन चल रहा था कि पिंजड़े से चिड़िया उड़ गई। आज वह पिंजरा जिसे अब तक इतने जतन से सहेजा जाता था कूड़े की तरह बेकार पड़ा है। मुझे ऐसे लगा जैसे सिनेमा के पर्दे पर कोई फिल्म चलते-चलते अचानक थम गई हो।

- कैलाश बुधवार

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