जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए । नई ज्योति के धर नये पंख झिलमिल, उड़े मर्त्य मिट्टी गगन-स्वर्ग छू ले, लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी, निशा की गली में तिमिर राह भूले, खुले मुक्ति का वह किरण-द्वार जगमग, उषा जा न पाए, निशा आ ना पाए। जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में, कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी, मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी, कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी, चलेगा सदा नाश का खेल यों ही, भले ही दिवाली यहाँ रोज आए। जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए । मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ़ जग में, नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा, उतर क्यों न आएँ नखत सब नयन के, नहीं कर सकेंगे हृदय में उजारा, कटेगे तभी यह अँधेरे घिरे अब स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए। जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। |